shabd-logo

कितने पाकिस्तान

31 जुलाई 2016

322 बार देखा गया 322

article-image


पाकिस्तान क्या है? क्या सिर्फ एक देश जिसने भारत से अलग हो कर अपना वजूद तलाशने की कोशिश की? या फिर पाकिस्तान एक सोच है? एक सोच जिसमें कि एक ही देश के लोग अपने बीच एक सेकटेरियन मानसिकता को पहले उपजाते हैं, फिर उसको सींचते हैं और फिर हाथों में हंसिये और कुदाल ले कर उसी फसल को काटते हैं। एक ऐसी सभ्यता जो 5000 सालों से तमाम ज्वार भाटों के बीच अक्षुण्ण बनी रही, तो ऐसा क्या हो गया जो रातोंरात अचानक एक नए देश की ज़रूरत आन पड़ी?


क्या इतिहास सिर्फ वही होता है जो किताबों और पन्नों पर कलम से रिसती स्याही से कुरेदा गया हो? टाइपराइटर पर हिज्जों के हथौड़े जब तलक वक़्त के कागज को लहू लुहान ना कर दें, क्या इतिहास पैदा नहीं हो सकता? क्या साम्राज्यवादी नस्लों ने जिस प्रपगैंडा को लिपिबद्ध किया है सिर्फ वही इतिहास है? दरअसल सच्चा इतिहास तो एक निरपेक्ष दृष्टा होता है। ब्रिटिश ने जो हिंदुस्तान का इतिहास लिखा, औरंगजेब के समय जो शिबली नोमानी की कलम से बहा वो एक प्रपगैंडा है ठीक वैसे ही जैसे वर्णाश्रम को कर्म प्रधान बताने की तमाम कोशिशें ब्राह्मणवाद ने अपनी कलम से उकेरी हैं। सच्चा इतिहास वह है जो उन शोषितों और दलितों की आत्माओं पर टंकित है जिन्होनें उस इतिहास को जिया है। और अगर ऐसा नहीं है तो कोई बताए कि मंटो का टोबाटेक सिंह उन इतिहास की किताबों में कहाँ है? कहाँ है गंगौली के फुन्नन मिया? सच्चा इतिहास तो लोगों के मन मस्तिष्क और हृदय में घटित होता है और इसका एक ही साक्षी है - खुद समय।


कल्पना कीजिये कि यदि समय की अदालत लगे और उसमें उन सभी पक्षों को हाजिर होना पड़े जो अपनी शक्लों पर काला पोत कर इन तमाम किताबों पर चिपकी मात्राओं की ओट में छुपे हुए थे। जब औरंगजेब से दारा शिकोह का हिसाब मांगा जाये, हिन्दू राजाओं से दारा से गद्दारी करने का हिसाब मांगा जाये, अंग्रेजों से विभाजन का हिसाब मांगा जाये और अमेरिका से हिरोशिमा-नागासाकी का हिसाब मांगा जाये। कमलेश्वर की 'कितने पाकिस्तान' एक ऐसी ही अदालत का लेखा जोखा है। एक अनूठी कल्पना जिसमें मानव इतिहास के 5000 सालों को साढ़े तीन सौ पन्नों में उतारा गया है। कमलेश्वर की इस अदालत का दरवाजा खटखटाटी हैं वे लाशें जो कभी आक्रांताओं और विजेताओं की शौर्य गाथाओं के बोझ तले कुचली जाती थीं और आज के समय में वे न्यूज़ चैनलों पर दौड़ती न्यूज़ पट्टी को अपने सिरों पर ढोते हुए तेज़ी से गुज़र जाती है। कोलैटरल डैमेज के आकड़ों और पाई चार्टों में अपने प्रतिनिधित्व के लिए एक एक पिक्सल को मोहताज होकर स्पोन्सर्स का मुंह ताकती लाशें झकझोरते हुए कहती हैं कि बस अब और पाकिस्तान नहीं।


बिपन चन्द्र ने अपनी किताब History of Modern India में लिखा था कि किसी देश की आम जनता की आवश्यकताएँ अपने आप में ही सेकुलर होती हैं। सड़कें बनेंगी तो सबके लिए बनेंगी, अस्पताल बनेंगे तो सबको अच्छी स्वास्थ सेवाएँ मिलेंगी, शिक्षा, रोजगार, छत, बिजली, साफ पानी, सभी के लिए यही प्राथमिकताएँ हैं। गाँव-गाँव तक अगर बिजली पहुंचेगी तो वो हिन्दू के घर का भी बल्ब जलाएगी और मुसलमान के घर का भी। आम जनता की जरूरतें अपने आप में धर्मनिरपेक्ष होती हैं। लेकिन जब जनता को ये यकीन दिलाया जाये कि किस तरह उनकी ज़रूरतें तभी पूरी हो पाएंगी जब वे अलग हो जाएंगे। जब जनता को यकीन दिलाया जाता है कि बाबर ने हिंदुओं पर आक्रमण किया था, ना कि दिल्ली के मुसलमान शासक इब्राहिम लोदी पर। बाबर ने मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई और एक लाख चौहत्तर हज़ार हिंदुओं को अयोध्या में मारा गया था जबकि पंद्रहवीं सदी में अयोध्या की आबादी ही ज़्यादा से ज़्यादा चार हज़ार रही होगी। राम तो लोकप्रिय ही हुए तुलसीदास की रामचरित मानस के बाद। उस समय तो वैष्णवों के सबसे बड़े आराध्य कृष्ण कन्हैया ही थे। तुलसीदास ने रामचरित मानस लिखी बाबर के मरने के बाद। बाबर की राजधानी आगरा से मथुरा बाजू में था जो लोकप्रिय कृष्ण का स्थान था, वो बाजू वाला ज़्यादा लोकप्रिय स्थान तोड़ने के बजाए अयोध्या जा कर मंदिर क्यों तोड़ेगा? अंग्रेजों के जरिये जिस बाबरनामा को इतिहास का हिस्सा बनाया उसके वे पन्नें फटे हुए थे जिसमें उस यात्रा का ज़िक्र था जब वो फैजाबाद से आगरा गया। उन फटे हुए पन्नों के बारे में ही अफवाह उड़ाई गई कि उनमें ही बाबरी मस्जिद का जिक्र था। उसकी बेटी गुलबदन के लिखे हुमायूँनामा में उन फटे पन्नों का ज़िक्र कुछ यूं आता है कि बाबर की बीवी मेहम बेगम और बेटी गुलबदन पहली बार काबुल से आगरा आ रहीं थीं तो बाबर फैजाबाद से ही वापस आगरा उन्हें मिलने को आया गया था। वो कभी अयोध्या गया ही नहीं। बाबर की कब्र के ऊपर का शिलालेख भी अंग्रेज़ी इतिहासकारों के पढ़ने के बाद मिटा दिया गया। खुद बाबर की कब्र को आगरा से खोद कर काबुल ले जाया गया। काबुल में उसका क्या था? काबुल से तो वो हार कर एक नए वतन की तलाश करने हिंदुस्तान आया था। दरअसल ये सब हुआ 1857 की क्रांति के बाद जिसमें हिन्दू-मुसलमान साथ-साथ अंग्रेजों का विरोध कर रहे थे। इस तरह एक बेलगाम साम्राज्यवादी ताकत ने अपने मंसूबे पूरे करने के लिए पाकिस्तान तो तभी बना दिया था। वर्तमान समय में अमेरिकी इलैक्शन में भी डोनाल्ड ट्रम्प के द्वारा अमेरिका में भी एक पाकिस्तान कुछ ऐसे ही बनाया जा रहा है। खुद पाकिस्तान में भी बांग्लादेश एक और पाकिस्तान बन के उभरा। हिंदुस्तान में तो दलितों को ब्रह्मा के पैर में बने किसी गर्भाशय से पैदा हुआ बता कर एक पाकिस्तान बना दिया गया था। रसूल के बाद मौलवियों, उलेमाओं, काजियों और खलीफाओं ने इंसान और उस निराकार ब्रम्ह के बीच जगह-जगह दाढ़ियों, टोपियों, हिजाबों और बुर्कों के खेत लगा दिये जिनमें लगी अफीम की फसल ने आने वाली नस्लों में शियाओं का एक पाकिस्तान और एक सुन्नियों का पाकिस्तान बना डाला। खुद हिंदुओं ने गीता के कर्मवाद को छोड़ कर निरंकुश ब्राह्मणवादी वर्णवाद को खाद पानी देकर अपना-अपना पाकिस्तान बना लिया था।


5000 सालों में जो भी बड़ी घटनाएँ हुईं जिसने इस धरती के इतिहास जो मोड़ा वो कमलेश्वर ने बहुत रोचक ढंग से किताब में उतारा है। शुद्धतावादी इसे उपन्यास न मानकर अनुपन्यास कहते हैं, लेकिन कमलेश्वर का कहना है कि मैंने इसे उपन्यास समझ कर लिखा और लोगों ने इसे उपन्यास ही समझ कर पढ़ा।


कमलेश्वर ने नई कहानी विधा को समृद्ध बनाने में बहुत बड़ा योगदान दिया है। मैंने उन्हें कॉलेज के समय दैनिक भास्कर के संपादकीय पन्ने पर पढ़ना शुरू किया था। मुझे याद है कि अखबार में सबसे पहले यही चेक करता था कि कमलेश्वर का लेख आया है कि नहीं। उसके बाद हिन्दी सिनेमा में उनके योगदान के बारें में एक किताब 'कथाकार कमलेश्वर और हिन्दी सिनेमा' पढ़ी। उनके लिखे उपन्यास 'काली आंधी' पर गुलज़ार ने 'आंधी' और 'आगामी अतीत' पर 'मौसम' फिल्में बनाईं। उसी किताब में मैंने पहली बार 'कितने पाकिस्तान' के बारे में पढ़ा था। सन 2000 में निकला यह उपन्यास इतना बिका कि तीन महीने में ही दूसरा संस्कारण निकाला गया। इसकी पाइरेटेड फोटोकॉपियाँ भी खूब ब्लैक में बिकीं।


इतिहास पर ज़बरदस्त पकड़, भाषा में ज़बरदस्त ईंटेंसिटी और लिखावट में बेजोड़ प्रवाह। समय के इतने लंबे दौर में बार-बार आगे-पीछे आना-जाना बहुत अच्छा अनुभव है। ऐसा ही एक प्रयोग अश्विन सांघी ने रोजाबाल वंशावली में भी किया जिसमें वो कहते हैं कि प्राचीन समय की एशियाई सभ्यता हमारी समझ से कहीं ज़्यादा समृद्ध थीं। ये सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि यहूदियों के अब्राहम (Abraham) का A अगर आगे से हटा कर पीछे लगा दें तो ये ब्रम्हा (Brahama) हो जाता है। अमीश की Shiva Trilogy में भी ज़िक्र है कि महादेव शिव तो तिब्बत के थे और उनके पहले जो महादेव हुए थे 'रुद्र' वो पश्चिम एशिया के थे। उनके प्राचीन ग्रन्थों को देखें तो अग्नि देवता हैं 'अहुरमज़दा'। सभी अच्छी शक्तियों को कहा जाता था 'अहुर' जो कि 'असुर' से निकला शब्द है और उनके ग्रन्थों में जो बुरी शक्तियाँ हैं उन्हें कहा जाता है 'दैव'। ये ग्रंथ इतिहास का हिस्सा हैं। ये संस्कृतियाँ और सभ्यताएँ जो बनी, फली फूलीं और मिटीं या साम्राज्यवादियों ने जिन्हें मिटाया और जगह-जगह पाकिस्तान बनाने का एक जो ये सिलसिला शुरू किया अब बस। बहुत पाकिस्तान देख लिए दुनिया ने! अब और नहीं! और नहीं! और नहीं!


अभिषेक ठाकुर की अन्य किताबें

1

अटाला

10 जून 2016
0
5
0

एक कहानी जिसे सुनाना बाक़ी है एक तस्वीर जिसे उतारना बाक़ी है यादों और ख्वाहिशों के गलीचों के बीच कुछ ऐसा है जिसे अभी टटोलना बाक़ी है सोचता हूँ घर के टाँड़ पे पड़े काठ के टूटे घोड़े में चंद कीलों के पैबंद लगा किसी बचपन को दे दूँ कि कल की यादों में आज के लम्हों को बचाना बाक़ी है और...  कुछ झपटी हुई पतंगें है

2

War Craft

10 जून 2016
0
2
0

आजदेखने गए war craft मूवी। ऑफिस से ही सभी लोग जीवी सिनेमा में देखने गएथे। कई फिल्में ट्रेलर में ही ज़्यादा आकर्षक लगती हैं। असल में जब देखो तो बहुत निराशाहोती है। और ये निराशा हॉलीवुड की मूवीस के साथ ज़्यादा होती है। बॉलीवुड ने तो फॉर्मूलाप्रधान फिल्में बना बना के अपना स्तर और अपेक्षाएँ इतनी कम कर ली

3

अंशि

12 जून 2016
0
3
0

नंगे पंजों के बल दौड़ते हुएगिरने के बाद जो सौंधा अहसास है रोज़मर्रा कि फीकी ज़िन्दगी के बीच जो मिश्री की मिठास है पुतलाये ठूंठ मुखौटों के बीच जो किलकारी कि आवाज़ है दशहत से पथराई आँखों के बीच जो परियों का  मासूम ख्वाब है कंटीली दुनियादारी के मरुस्थल में फूटती नई कपोल पे ओस कि महक यकीं नहीं होता वो कस्तू

4

बचपन

14 जून 2016
0
2
0

इस दुनिया में छिपी एक और दुनिया है जिस दुनिया में कोई क़ायदा नहीं होता बस प्यार होता है आँखों में मासूमियत होती है असीम विश्वास होता है निहीत स्वार्थ और फ़ायदा नहीं होता यहाँ शेर को बचाता एक चूहा है ख़रगोश को हराता एक कछुआ है हमारी दुनिया की तरह कोई भेड़ की खाल ओढ़े भेड़िया नहीं होता इस दुनिया का हर शख्स 

5

अव्यक्त

16 जून 2016
0
3
0

कभी कुछ कहते हुए थोड़ा रह जाता हूँ मैं कभी आँखों के रस्ते थोड़ा बह जाता हूँ मैं मैं अव्यक्त हूँ एक पहेली-सा एक अनकही में कुछ कह जाता हूँ मैं अव्यक्त का अपना एक वजूद है व्यक्त उसका ही तो प्रकट स्वरुप है पर अव्यक्त किसका स्वरुप है ?किस अमूर्त्य का मूर्त्य है ?किसकी खोज है ?किसको ढूँढता रह जाता हूँ मैं ए

6

ययाति के मिथक - भाग 1

16 जून 2016
0
1
1

नियति क्या है? क्या ये महत्त्वपूर्ण है? क्योंकि जब आप नियति की बात करते हैं तो किरदार गौण हो जाते हैं। लेकिन वे किरदार ही हैं जो अपनी-अपनी ज़िंदगियों के सिरों को जोड़कर नियति को गढ़ते हैं। शब्दों से इतर कहानी क्या है? अगर नुक्ते  और लकीरें, मात्राओं, हलन्तों और अक्षरों की शक्लें अख़्तियार ना करें तो क्

7

महायज्ञ

21 जून 2016
0
0
1

साल 1930। जवाहर लाल नेहरू लाहौर में रावी के तट पर भारत का झंडा फहरा चुके थे। कांग्रेस पूर्ण स्वराज की घोषणा कर चुकी थी। साहब सुबह सवेरे अपने घर के दालान में बैठे थे। सामने मेज पर एक खाकी टोपी और कुछ अखबार।  गहरी चिंता में लगते थे। खाकी वर्दी, घुटनों तक चढ़ते बूट और उस पर रोबदार मूंछे। साहब अंग्रेजी स

8

नारद की भविष्यवाणी

28 जून 2016
0
2
0

अभी हाल ही में जो क़िताब ख़तम की वो है मनु शर्मा की लिखी 'नारद की भविष्यवाणी'। मनु शर्मा ने कृष्ण की कहानी को आत्मकथात्मक रूप में लिखा है। ये क़िताब 'कृष्ण की आत्मकथा' सिरीज़ का पहला भाग है। लिखने का तरीका मौलिक है। कृष्ण की कहानी टीवी सीरियलों में कई बार देख चुके हैं। लेकिन एक व्यक्तित्व के रूप में उनक

9

2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया

13 जुलाई 2016
0
3
0

अभी हाल में राजदीप सरदेसाई की किताब '2014 दि इलेक्शन दैट चेंज्ड इंडिया' पढ़ी। एक ही शब्द है लाजवाब। 2014 में हुए इलैक्शन का इससे अच्छा ब्यौरा दे पाना मुश्किल है। किताब में 10 चैप्टर हैं और इनके अलावा एक भूमिका और एक एपिलॉग भी है। राजदीप सरदेसाई मीडिया में एक जाना पहचाना नाम हैं। 2008 में उन्हें पद्मश

10

कितने पाकिस्तान

31 जुलाई 2016
0
2
0

पाकिस्तान क्या है? क्या सिर्फ एक देश जिसने भारत से अलग हो कर अपना वजूद तलाशने की कोशिश की? या फिर पाकिस्तान एक सोच है? एक सोच जिसमें कि एक ही देश के लोग अपने बीच एक सेकटेरियन मानसिकता को पहले उपजाते हैं, फिर उसको सींचते हैं और फिर हाथों में हंसिये और कुदाल ले कर उसी फसल को काटते हैं। एक ऐसी सभ्यता ज

11

किताबें अगस्त की

31 जुलाई 2016
0
4
0

तो इस महीने तीन किताबें पढ़ीं: 1. 2014 The Election That Changed India  (राजदीप सरदेसाई)2. खुशवंतनामा (खुशवंत सिंह)3. कितने पाकिस्तान (कमलेश्वर)अगस्त का टार्गेट 4 किताबों का है और ये चार किताबें हैं:1. Metamorphosis (फ्रैंज काफ्का) 2. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती)3. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)

12

मेटामोर्फोसिस

9 अगस्त 2016
0
3
0

किसी भी देश के द्वारा चुनी गई आर्थिक नीतियाँ केवल वहाँ के नागरिकों की सामाजिक और आर्थिक ज़िंदगियों पर ही असर नहीं डालतीं बल्कि उन ज़िंदगियों की पारिवारिक और नैतिक बुनियादें भी तय करतीं हैं। ग्रेगोर साम्सा नाम का एक आदमी एक दिन सुबह-सुबह नींद से जागता है और अपने आप को एक बहुत बड़े कीड़े में बदल चुका हुआ

13

मिसेज़ फनीबोन्स

13 अगस्त 2016
0
1
0

अगस्त महीने की दूसरी किताब थी - "मिसेज़ फनीबोन्स"। किताब की लेखिका हैं ट्विंकल खन्ना। ट्विंकल खन्ना, जिन्हें ज़्यादातर लोग कई रूप में जानते हैं - राजेश खन्ना और डिंपल कपाड़िया की बेटी, अक्षय कुमार की बीवी और एक फ्लॉप एक्ट्रेस। लेकिन इनके अलावा इनकी एक शख्सियत और है। ये बात अक्सर मध्यम वर्गीय लोगों में

14

गुनाहों का देवता

21 अगस्त 2016
0
1
1

अगस्त महीने की तीसरी किताब थी - गुनाहों का देवता। किताब के लेख क हैं धर्मवीर भारती। बहुत कुछ सुना था इस किताब के बारे में। इस किताब को मेरे जान-पहचान के बहुत लोगों ने recommend भी किया था। ये हिन्दी रोमैंटिक उपन्यासों में सबसे ज़्यादा ल

15

किताबें सितंबर की

28 अगस्त 2016
0
1
0

अगस्त के लिए चार किताबों का लक्ष्य था और येकिताबें सोचीं थीं:1. Metamorphosis (फ्रैंज काफ्का)2. गुनाहों का देवता (धर्मवीर भारती)3. मेरे मंच की सरगम (पीयूष मिश्रा)4. Home and the World (रबिन्द्रनाथटैगोर) इनमें से 'मेरे मंच कीसरगम' और 'Home and the World' की delivery ही नहीं हो पाई।इसलिए इन दो किताबों

16

द ग्लास कैसल

4 सितम्बर 2016
0
0
0

अगस्त महीने की आखिरी किताब थी जीनेट वॉल्स की लिखी 'द ग्लास कैसल'। जीनेट वॉल्स एक अमरीकी जर्नलिस्ट हैं और ये उनका लिखा संस्मरण है। एक किताब जो उनके और उनके पिता के रिश्ते के बीच कुछ तलाश करती हुई सीधे दिल में उतरती है और कुछ हद तक उसे तोड़ भी देती है।इंसान एक परिस्थितिजन्य पुतला है। उसका व्यक्तित्व पर

17

द होम एंड द वर्ल्ड

12 सितम्बर 2016
0
0
0

सितंबर महीने की पहली किताब थी - रबिन्द्रनाथ टैगोर की लिखी 'द होम एंड द वर्ल्ड'। यूं तो टैगोर का नाम सभी ने सुना है। गीतांजली के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। उनका लिखा गीत 'जन गण मन' हमारा राष्ट्रगान बना और उन्हीं का लिखा एक और गीत 'आमार शोनार बांग्ला' पाकिस्तान

18

और तभी...

25 फरवरी 2017
0
2
0

एक बार फिर उसने बाइक की किक पर ताकत आज़माई. लेकिन एक बार फिर बाइक ने स्टार्ट होने से मना कर दिया. चिपचिपी उमस तिस पर हेलमेट जिसे वो उतार भी नहीं सकता था. वो उस लम्हे को कोस रहा था जब इस मोहल्ले का रुख़ करने का ख़याल आया. यादें उमस मुक्त होतीं हैं और शायद इसलिए अच्छी भी लगती हैं. अक्सर ही आम ज़िंदगी हम

19

विधानसभा चुनाव - नज़रिया

13 मार्च 2017
0
0
1

कल पाँच राज्यों में चुनाव के नतीजे आ गए। दिन भर YouTube और Facebook पर ऑनलाइन नतीजे देखते रहे। ये चुनाव भी एक बार फिर डेमोक्रेसी की च्विंगम ही साबित हुए। रस तो कब ही का खत्म हो चुका है बस रबड़ है जब तक चबाते रहो। प्रधानमंत्री एक बार फिर सबसे शक्तिशाली साबित हुए। उनकी जीत के बाद तथाकथित liberals एक बा

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए