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लोभ व् क्रोध है नर्क के द्वार

11 अगस्त 2016

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क्रोध विवेक को नष्ट कर देता है, प्रीति को नष्ट कर देता है। क्रोध जब व्यक्ति को आता है तो वह बेभान हो जाता है, उसे करणीय-अकरणीय का विवेक नहीं रहता, वह प्रीति को समाप्त कर देता है। प्रेम को नष्ट कर देता है। क्रोधी व्यक्ति में विवेक नहीं रहता तो विनय भी नहीं रहता। मान, विनय को नष्ट कर देता है। अभिमान में व्यक्ति को यह ध्यान नहीं रहता कि मेरे सामने कौन खडा है? उनका विनय किस प्रकार किया जाए? वह तो स्वयं को सर्वेसर्वा मानता है। अभिमानी व्यक्ति को जरा-सी प्रतिकूलता मिली नहीं कि वह क्रोध से आगबबूला हो उठता है।माया, मैत्री भाव को नष्ट कर देती है। माया-छल-कपट जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है तो फिर वह मित्र को भी मित्र नहीं मानता। उससे भी छलावा करने लगता है। मायावी व्यक्ति में अहंकार भी होता है और क्रोध भी।और लोभ, लोभ जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है, तो वह सर्वनाश कर देता है। सब कुछ नष्ट कर देता है। लोभ तो सारी इज्जत को मिट्टी में मिला देता है। सारी प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है। सारी कीर्ति नष्ट कर देता है। इतना ही नहीं, लोभ के आ जाने पर सारा जीवन ही नष्ट हो जाता है। लोभ हमारे भीतर जाग जाता है, तो हम पर पदार्थों के साथ मैत्री कर लेते हैं। पर पदार्थों के साथ जब मैत्री होने लगती है तो वहीं सारी विषम स्थितियां पैदा हो जाती है। लोभी व्यक्ति में माया भी होती है और अहंकार व क्रोध भी।क्रोध, मान, माया और लोभ ये आत्मा के स्वभाव नहीं, आत्मा के गुण नहीं, ये विभाव हैं, ये सभी बाहरी, पर संयोगों का परिणाम हैं। ये चारों किसी न किसी रूप में अन्योन्याश्रित भी हैं और साथ-साथ भी चलते हैं। क्रोध, मान का कारण भी है। मान, माया का कारण भी है। माया, लोभ का कारण भी है।क्रोध, मान, माया और लोभ राग-द्वेष के परिणामरूप हैं। राग और द्वेष भी न्योन्याश्रित हैं और दोनों साथ-साथ भी चलते हैं। द्वेष, राग का कारण है। तो निष्कर्ष रूप में यह भी कहा जा सकता है कि राग सब बुराइयों की जड है। राग, पर से, दूसरे से, पर पदार्थों से। इसे छोडे बिना मुक्ति नहीं।हम आत्म-मैत्री करना सीखें। अपनी आत्मा से मित्रता स्थापित करें। यह आत्म-मैत्री कब स्थापित हो सकती है? जब हम पर-पदार्थों से अलग हटें। पर-पदार्थों के प्रति हमारी आसक्ति नहीं रहेगी तो हमारी मित्रता आत्मा से स्थापित हो सकेगी। शरीर से भी हमें अपना राग-भाव हटाना होता है।ी चिंतन करिए, आप उसमें कोई फर्क न करवा पाएंगे। फर्क कुछ भी हो सकता है, तो इसमें हो सकता है जिसे क्रोध हुआ है। तो जब क्रोध पकड़े, लोभ पकड़े, कामवासना पकड़े-जब कुछ भी पकड़े-तो तत्काल आब्जेक्ट को छोड़ दें। क्रोध भीतर आ रहा है, तो चिल्लाएं, कूदें, फांदें, बकें, जो करना है, कमरा बंद कर लें। अपने पूरे पागलपन को पूरा अपने सामने करके देख लें। और आपको पता तब चलता है, जब यह सब घटना जा चुकी होती है, नाटक समाप्त हो गया होता है। अगर क्रोध को पूरा देखना हो, तो अकेले में करके ही पूरा देखा जा सकता है। तब कोई सीमा नहीं होती। यह वृत्ति से कोई फर्क नहीं पड़ता, प्रक्रिया एक ही होगी। बीमारी एक ही है, उसके नाम भर अलग हैं।.... क्रोध विवेक को नष्ट कर देता है, प्रीति को नष्ट कर देता है। क्रोध जब व्यक्ति को आता है तो वह बेभान हो जाता है, उसे करणीय-अकरणीय का विवेक नहीं रहता, वह प्रीति को समाप्त कर देता है। प्रेम को नष्ट कर देता है। क्रोधी व्यक्ति में विवेक नहीं रहता तो विनय भी नहीं रहता। मान, विनय को नष्ट कर देता है। अभिमान में व्यक्ति को यह ध्यान नहीं रहता कि मेरे सामने कौन खडा है? उनका विनय किस प्रकार किया जाए? वह तो स्वयं को सर्वेसर्वा मानता है। अभिमानी व्यक्ति को जरा-सी प्रतिकूलता मिली नहीं कि वह क्रोध से आगबबूला हो उठता है।माया, मैत्री भाव को नष्ट कर देती है। माया-छल-कपट जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है तो फिर वह मित्र को भी मित्र नहीं मानता। उससे भी छलावा करने लगता है। मायावी व्यक्ति में अहंकार भी होता है और क्रोध भी।और लोभ, लोभ जब व्यक्ति के भीतर जाग जाता है, तो वह सर्वनाश कर देता है। सब कुछ नष्ट कर देता है। लोभ तो सारी इज्जत को मिट्टी में मिला देता है। सारी प्रतिष्ठा को धूल में मिला देता है। सारी कीर्ति नष्ट कर देता है। इतना ही नहीं, लोभ के आ जाने पर सारा जीवन ही नष्ट हो जाता है। लोभ हमारे भीतर जाग जाता है, तो हम पर पदार्थों के साथ मैत्री कर लेते हैं। पर पदार्थों के साथ जब मैत्री होने लगती है तो वहीं सारी विषम स्थितियां पैदा हो जाती है। लोभी व्यक्ति में माया भी होती है और अहंकार व क्रोध भी।क्रोध, मान, माया और लोभ ये आत्मा के स्वभाव नहीं, आत्मा के गुण नहीं, ये विभाव हैं, ये सभी बाहरी, पर संयोगों का परिणाम हैं। ये चारों किसी न किसी रूप में अन्योन्याश्रित भी हैं और साथ-साथ भी चलते हैं। क्रोध, मान का कारण भी है। मान, माया का कारण भी है। माया, लोभ का कारण भी है।क्रोध, मान, माया और लोभ राग-द्वेष के परिणामरूप हैं। राग और द्वेष भी न्योन्याश्रित हैं और दोनों साथ-साथ भी चलते हैं। द्वेष, राग का कारण है। तो निष्कर्ष रूप में यह भी कहा जा सकता है कि राग सब बुराइयों की जड है। राग, पर से, दूसरे से, पर पदार्थों से। इसे छोडे बिना मुक्ति नहीं।हम आत्म-मैत्री करना सीखें। अपनी आत्मा से मित्रता स्थापित करें। यह आत्म-मैत्री कब स्थापित हो सकती है? जब हम पर-पदार्थों से अलग हटें। पर-पदार्थों के प्रति हमारी आसक्ति नहीं रहेगी तो हमारी मित्रता आत्मा से स्थापित हो सकेगी। शरीर से भी हमें अपना राग-भाव हटाना होता है। इसी तरह यदि हम होश ,प्रेम और ध्यान को सीखते है , तो धीरे धीरे यह स्वाभाविक हो जाता है और उर्जा ध्यान और प्रेम में ही लग जाती है! अब काम, क्रोध वगेरा स्वत ही कमजोर बन जाते और प्रेम मजबूत हो जाता है ! अब कहा काम क्रोध की राजनितिक रहती है क्यों इस पर चिल्लना है ? उर्जा वहा बहती है जहा बहने का मार्ग है तो काम क्रोध तो सभाविक मार्ग है और प्रेम और ध्यान प्रयत्न का ,कर्म का मार्ग है ,यही तो तप है

उत्तम जैन (विद्रोही )

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बचपन की यादे और आज

10 अगस्त 2016
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बेटी है तो कल है

10 अगस्त 2016
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                  बोये जाते हैं बेटेपर उग जाती हैं बेटियाँ,खाद पानी बेटों कोपर लहराती हैं बेटियां,स्कूल जाते हैं बेटेपर पढ़ जाती हैं बेटियां,मेहनत करते हैं बेटेपर अव्वल आती हैं बेटियां,रुलाते हैं जब खूब बेटेतब हंसाती हैं बेटियां,नाम करें न करें बेटेपर नाम कमाती हैं बेटियां,......क्यों की में अपने बेट

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11 अगस्त 2016
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राजनितिक पार्टिया और भ्रष्टाचार

11 अगस्त 2016
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रंग बदलने की फितरत और उदाहरण भले ही गिरगिट के हिस्से मेंआते हैं, लेकिन मानव जाति में भी कम रंग बदलू लोग नहीं हैं। सबसेज्यादा यह प्रजाति आपको लोकतंत्र के मंदिर में मिल जाएगी ! बल्कि ऐसे लोगों कीसंख्या दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ रही है।तो साहेबान, कदरदान, मेहरबान, पेश हैभ्रष्टाचार में सर से पांव तक डूबे

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दिनों दिन पनपती यह गंभीर समस्या

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आज वर्तमान में हमारे देश की सबसे गंभीर समस्या तेजी से पनप रही है वह है तलाक नामक बीमारी ! जो व्यक्ति या नारी इस बीमारी से गुजरा है या गुजर रहा है तलाक नाम सुनते ही खुद अपने आपको दुर्भाग्यशाली समझने लग जायेगा ! आखिर यह समस्या क्यों पनप रही है ! आज क्यों अदालतो में हजारो लाखो इस तरह के केस लंबित पड़े

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एक नारी की पीड़ा - मेरी जुबानी

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मित्रो में आज एक ऐसे विषय पर अपने विचार प्रेषित कर रहा हु जो आज की सबसे बड़ी समस्या है कुछ दिनों पूर्व मेरे एक पत्रकार मित्र के साथ बेठा था उसने उसे प्राप्त एक किशोरी के खत की चर्चा की मेरे मानस पटल पर यही बात बात बार बार आ रही थी ... मेने सोचा अपने विचारो को ब्लॉग, फेसबुक , व्हट्स अप के सभी पा

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ये भटकता मन

25 अगस्त 2016
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मन एक ऐसी शक्ति है जो आपको एक सेंकंड में कहा से कहा तक हजारो मील की यात्रा करा देता है !हम अपने घर पर बेठे देहली , अमेरिका तक की यात्रा मन से क्षणों में कर के आ जाते है ! इसे हम कह सकते भटकता मन ! मनुष्य का मन कितनी जल्दी भटकता है । ये नही तो

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2 सितम्बर 2016
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क्षमा मांगना एक यान्त्रिक कर्म नहीं है बल्कि अपनी गलतियों को महसूस कर उस पर पश्चाताप करना है । पश्चाताप में स्वयं को भाव होता है । ताकि हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा आगे बढ़ा सकें । भूल करना मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है; हम सभी भूल करते

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जैनधर्म के पर्युषण देता मधुरता व् मेत्री का सन्देश

3 सितम्बर 2016
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4 सितम्बर 2016
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में एक दिन रात्री के दुसरे प्रहर यानी करीब एक बजे में कुछ विचारो में खोया हुआ था नींद नही आ रही थी तो मन को शांत व् एकाग्रचित करने के लिए एक पुस्तक पढने बेठ गया पुस्तक हाथ में लगी रूस में एक बहुत बड़े लेखक इतने बड़े कि सारी दुनिया उन्हें जानती है। उनका नाम था लियो टॉल्स्टॉय, पर हमारे देश में उन्हे

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एक वृक्ष दस पुत्रो के समान होता है, अतः अगर हम एक वृक्ष काटते है तो हमे दस मनुष्यों की हत्या का पाप लगता है। इसलिए हमने वायु प्रदान करने वाले वृक्ष को नही काटना चाहिए। जल, थल और आकाश मिलकर पर्यावरण को बनाते हैं। हमने अपनी सुविधा के लिए प्रकृति के इन वरदानों का दोहन किया,

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