मित्रो में आज एक ऐसे विषय पर अपने
विचार प्रेषित कर रहा हु जो आज की सबसे बड़ी समस्या है कुछ दिनों पूर्व
मेरे एक पत्रकार मित्र के साथ बेठा था उसने उसे प्राप्त एक किशोरी के खत
की चर्चा की मेरे मानस पटल पर यही बात बात बार बार आ रही थी ... मेने
सोचा अपने विचारो को ब्लॉग, फेसबुक , व्हट्स अप के सभी पाठको को अपने
विचार संप्रेषित करू उसने मेरे पत्रकार मित्र को लिखा था, 'मेरे साथ
जबर्दस्ती हुई थी। तब से लेकर आज तक मैं हर पल तनाव में रहती हूँ। मैं बहुत
हीन भावना महसूस करती हूँ क्योंकि मैं किसी से आँख मिलाने के लायक नहीं
रही...।"पता नहीं मनोचिकित्सक महोदय को बताउंगी तो क्या उत्तर देंगे। शायद
कोई समझाइश या दिलासा दें । इस किस्म की कि तुम्हारी इसमें कोई गलती नहीं,
भूल जाओ वगैरह। मगर क्या स्त्री के लिए 'घोर यौन शुचिता' का सामाजिक आग्रह
उसे यह भूलने देगा? समाज शिकारी को नहीं, शिकार को घूरे पर फेंकेगा। ताज्य
मानेगा। मान लो कि लड़की ने किसी से यह बात शेयर न की हो, तब भी समाज तो
मानसिक रूप से उसके पीछे लगा ही है। स्त्रियों के दिमाग में कूट-कूटकर यह
बात भरी हुई है कि जबर्दस्ती वाले यौन समागम से भी वे अपवित्र हो जाती हैं।
दूषित हो जाती हैं! शायद इसी मानसिकता के चलते बलात्कार के पर्यायवाची
शब्दों में इज्जत, अस्मत जैसे शब्द आते हैं। बलात्कार होने पर इज्जत लुट
गई, अस्मत लुट गई, सब कुछ चला गया, किसी को मुँह दिखाने काबिल नहीं रही,
आँख मिलाने लायक नहीं रही, मुँह पर कालिख पुत गई वगैरह वगेरह । समझ नहीं
आता कि जिसने कुछ गलत नहीं किया उसकी 'इज्जत' क्यों गई? उसे शर्म क्यों आई?
ठीक है, एक हादसा था। जैसे दुनिया में अन्य हादसे होते हैं और समय के साथ
चोट भरती है वैसी ही यह बात होनी चाहिए। मगर नहीं होती। सिर्फ और सिर्फ औरत
के लिए ही यौन शुचिता के आग्रह के चलते हम घटना को कलंक बनाकर शिकार के
माथे पर सदा-सर्वदा के लिए थोप देते हैं। स्त्री को जिन्दगी भर के लिए
कलंकित कर घुटने को मजबूर कर देते है जब उसकी कोई गलती नही होती ! हार समाज
उसे घृणा की द्रष्टि से देखने लगता है ! लोग अगुली बता कर कर उसे इंगित
करते है ! स्त्री का तथाकथित दंभ तोड़ने के लिए भी बलात्कार किया जाता है।
प्रताड़ना करने हेतु आज भी गाँवों में स्त्री को निर्वस्त्र करके घुमाया
जाता है। क्षेत्रीय अखबारों में इस तरह की आँचलिक खबरें अक्सर आती हैं।
क्योंकि कहीं न कहीं हम स्त्री के अस्तित्व को देह के इर्द-गिर्द ही देखते
हैं। गाँवों में महिला सरपंचों तक के साथ ऐसी घटनाएँ हुई हैं, जहाँ पुरुषों
की अकड़ के आगे स्त्री को पदावनत करने का और कोई उपाय नजर नहीं आया तो यह
किया।इसी तरह सती की अवधारणा है। जिसका ताल्लुक स्त्री की यौनिक पवित्रता
से है। एक पुरुष के सिवा किसी की न होना तो उसकी एक अभिव्यक्ति भर है। यह
ठीक है कि इस अभिव्यक्ति के लिए अब स्त्रियाँ पति की चिता के साथ नहीं जलाई
जातीं (कभी-कभी जला भी दी जाती हैं) परंतु भारतीय समाज में सती की अवधारणा
अब भी बेहद महिमा मंडित है। सदियों से भारतीय समाज में नारी की अक्षत पर
बहुत अत्याचार होते आए हैं. इसे चरित्र से जोड़ना किसी भी रूप में उचित
नहीं है. इसके विपरीत पुरुष समाज में सिर उठा कर चलता है जबकि नारी द्वारा
किए गए नही उसके साथ किया गयाजबरन छोटे से अपराध के लिए भी उस से उस का
जीने का अधिकार तक छीन लिया जाता है! .नारी जीवन में बहुत से समझौते
सामाजिक, धार्मिक आर्थिक परिस्थितियों के कारण भी कर लेती है, जिस का
खमियाजा उसे ताउम्र आंसू बहाते हुए करना पड़ता है.सारी नैतिकता की
जिम्मेदारी केवल नारी की ही तो नहीं, पुरुष का भी दायित्व बनता है कि वह
नारी को तन मन और धन से संतुष्ट रखे. केवल नारी से ही सतीसावित्री होने की
आशा रखना उचित नहीं है. लेकिन यह भी एक कटु सत्य है कि जितना दुरुपयोग नारी
का धर्म के कारण होता है उतना किसी और कारण से नहीं....
उत्तम जैन (विद्रोही )