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तीसरा पक्ष

12 अगस्त 2016

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तीसरा-पक्ष : अंक 35
अप्रेल-जून 2016 
संपादक : असंगघोष, शिवनाथ चौधरी 
संपर्क : ३७३४/२३ए, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर मप्र ४८२००२ ०७६१२६४८६८६
पृष्ठ १०४ एक प्रति : 20/- वार्षिक : 80/- आजीवन : १०००/-

दलित लेख न की त्रैमासिकी 'तीसरा पक्ष' इसलिए एक ज़रूरी पठनीय लघुपत्रिका है कि इसमें घोर अंधकार में मशाल का प्रकाश है. इस प्रकाश की ज़रूरत इसलिए है कि यातना-प्रताड़ना-तिरस्कार के गड्ढे में अब ये कौम नहीं गिरने वाली है. वो समय कोई और था जब इन मूलनिवासियों ने अपनी ही आवाज़ का गला घोंट रखा था सिर्फ इसलिए कि तथाकथित सभ्य समाज का ढांचा या यूँ कि कहें कि यथास्थिति बची रहे. बची रहे यातना-प्रताड़ना से पूर्ण सामाजिक संरचना. ये ज्न्हीं जानते थे कि इनके पास पैने दांत भी हैं जिनसे जब चाहे ये काट सकते हैं प्रताड़ित करने वालों के हाथों को.. इनके पास नाखून हैं कि खरबोट सकते हैं जालिमों की चमडियाँ. बाबा साहेब के विचारों का प्रसार हुआ तो इस समाज में प्रतिकार और प्रतिरोध की स्वर सुनाई देने लगे और आज गुजरात की सड़कों पर जो जोश और एकजुटता दिखलाई दे रही है उसे हम सलाम करते हैं. ये ताकत एक दिन में नहीं मिली है इन पीड़ितों को..ये नहीं जानते थे अपनी ही आवाज़ के असर को...
ये नहीं जानते थे वे भी इस धरती के वैसे ही पुत्र हैं जैसे कि अन्य...
लोग कह रहे हैं फेसबुक, व्हाट्सअप आदि के कारण लोग एकजुट हुए. अरे भाई ये कोई क्रिमिनल नहीं हैं कि किसी षड़यंत्र को या किसी प्लान को अंजाम देने के लिए सोशल साइट्स का सहारा ले रहे हों. ये लोग सदियों से पीड़ित/प्रताड़ित हैं और अब इनके अन्दर बाबा साहेब, ज्योतिबा फुले आदि महापुरुषों की शिक्षा का प्रभाव दिखलाई देने लग गया है. सावधान हो जाओ...इन लोगों को पूर्वजन्मों के फल भोगने की दुहाई काम नहीं आएगी. ये अब नहीं मानते कोई ऐसा विधान. इनके पास अपना विधान है, अपना संविधान है और अपना लोकाचार है और ये भी इस लोकतान्त्रिक राष्ट्र के नागरिक हैं जैसे कि अन्य सभी. 
जबलपुर जैसे छोटे शहर से तीसरा-पक्ष का निरंतर प्रकाशन आशान्वित करता है. सम्पादकीय में चेतावनी है रामबहादुर राय सरीखे पत्रकारों को जो बाबा साहेब के गुणगान के साथ ये कहने का दुस्साहस कर बैठते हैं कि--'संविधान बनाने में डॉ अम्बेडकर ने सिर्फ प्रूफरीडिंग का काम किया था'. किसी झूठे इतिहास को बार-बार दुहराकर सच साबित करने की साजिशों को बेनकाब करता सम्पादकीय और इस तरह पत्रिका के तेवर और दिशा से पाठक लोक-शिक्षित होने लगता है. 
दलित बुद्धिजीवी संजीव खुदशाह भारतीय समाज में व्याप्त बाबाओं का बाज़ार और ठगी जाती जनता का विश्लेषण किया है. 
मुसाफिर बैठा ने कबीरपंथ और कबीर पर अपनी चिंताएं व्यक्त की हैं. डॉ कौशल पवार का आलेख वर्तमान दौर में दलित शिक्षा के समक्ष चुनौतियाँ भी बहुत उल्लेखनीय है. यह आलेख हर दलित को पढना चाहिए ताकि जो आज सुविधाभोगी हैं वे अपने सजातीय के उत्थान के लिए प्रयास करें. 
तीसरा-पक्ष का सबसे महत्वपूर्ण लेख जयप्रकाश फाकिर का आत्मकथांश है. ये अंश इतना जीवंत, इतना प्रेरणास्पद और इतना मार्मिक है कि मैंने इसकी ज़ेरोक्स करा कर मित्रों को पोस्ट की हैं. वाकई, धारा के विरुद्ध तैरकर किनारे पहुंचना संघर्षपथ गामीयों के लिए टॉनिक का काम करता है. लेखक फाकीर ने अपने जीवन-संघर्ष में जो बेचारा तत्व थे उन्हें भावी भविष्य के लिए कच्चा माल की तरह उपयोग किया. वे अपनी असुविधाओं, अभावों, तिरस्कारों, प्रताडनाओं की जुगाली नहीं करते बल्कि एक नए आकाश, एक नई धरती की तलाश के जद्दोजेहद को जारी रखते हैं. बेहद प्रेरणादाई है जयप्रकाश फाकीर का आत्मकथांश. उनकी पूरी आत्मकथा हम पढना चाहते हैं और चाहते हैं कि ये अंश देश की पाठ्य-पुस्तकों में जोड़ा जाए. नकली आत्मकथाएं और गौरव-गाथाओं के दिन अब लदने चाहिए.
विद्व लेखक शिवनाथ चौधरी 'आलम' की विचार-श्रृंखला (6) ब्राम्हण धर्म के ढिंढोरची विवेकानंद बेहद शोध-परक आलेख है. इसे पढ़कर देश का दलित समाज जानेगा कि उसकी दुर्दशा के पीछे समाज में कैसे-कैसे षड्यंत्र होते रहे हैं.
तीसरा-पक्ष के अंकों की प्रतीक्षा रहती है मुझे.


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रचनाएँ
hamnafas
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समय के द्वार पर दस्तक
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अच्छा हुआ मैं किसान ना हुआ, सपने सच नही होते...किसान पर कविता - CGNet Swara

17 अप्रैल 2016
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CGnet Swara is a platform to discuss issues related to Central Gondwana region in India. To record a message please call on +91 80 500 68000.

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प्रसिद्ध चित्रकार कवि कुंवर रवीन्द्र सिंह (के रवीन्द्र ) जी, उनकी किताब 'रंग जो छूट गया था' के साथ मैं

17 अप्रैल 2016
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जनकवि विद्रोही

17 अप्रैल 2016
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और क्या ये उस आत्मा को सही श्रद्धांजली नहीं है...जब इतनी रात बीतगई और फिर भी मैं जाग हूँ? इतनी थकावट है फिर भी मैं व्यथित जाग  रहा हूँ?  सोचता हूँ कि यदि मैं पागल नहीं हूँ तो फिर पागलपन होता क्या है? एक पागल और (अ)पागल में क्या अंतर होता है? क्या संसार (अ)पागलों से संचालित होता है? यानी जो पागल नहीं

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आदमी और आदमियत के सवालों से जूझती कविताएँ

29 अप्रैल 2016
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देश के प्रमुखचित्रकार-कवि कुंवर रवीन्द्र सिंह या के. रवीन्द्र की कविताएँ ‘रंग जो छूट गया था’के रूप में आई हैं. छोटी-छोटी कविताओं में कवि आदमियत को बचाए रखने के लिए चिंतितनजर आते हैं. ये आदमी निस्संदेह पंक्ति का आखिरी आदमी ही है जिसकी जिजीविषा औरजीवन-संघर्ष को बड़ी बेचैनी से कवि महसूस करता है. ये आदमी

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बदला लेने का पढाई

12 मई 2016
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वे जो भी थे, जैसे भी थे वे उस समय वैसे क्यों थे इन सवालों का जवाब क्यों खोजा जा रहा अब उनके अपराधों की सुनवाई हुई नहीं क्यों तब क्यों नहीं तय की गई सज़ावे जो भी थे, वे हम नहीं थे वे जो भी थे, वे तुम नहीं थे बेशक उस समय हम नहीं थे बेशक उस समय तुम नहीं थे फिर क्यों पलटे जा रहे पन्ने उस समय के जब तुम नह

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वंचित जन का अभिनन्दन

13 मई 2016
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जिसकी मर्ज़ी साथ चले औजिसके मन में हो कट जाए बेमन से मिलने से बेहतरखुद ही रस्ते से हट जाए।लम्बा रस्ता, ऊबड़ खाबड़ चारों और उड़े है धूल छाँह तलाशे व्याकुल आँखें जित देखो तित उगे बबूल ।फिर भी जो भी साथ चल रहे उनका अभिषेक, उनको नमनभूखे प्यासे अलख जगाते वंचित जन का हो अभिनन्दन।।।।

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दलित विमर्श की त्रैमासिकी 'तीसरा पक्ष'

16 मई 2016
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शिवनाथ चौधरी 'आलम' का पैंतालिस पृष्ठीय आलेख अंक को पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय बनाता है. आज देश भर में सोशल मीडिया और प्रिंट मीडिया में मनुवाद, अम्बेडकर, दलित, स्त्री और अल्पसंख्यक जैसे शब्द उछाले जा रहे हैं और इनपर अलग-अलग खेमों से जाने कितने विमर्श और निष्कर्ष निकाले जा रहे हैं. तीसरा पक्ष के संप

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खनिक

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कोयला खदान की आँतों सी उलझी सुरंगों में पसरा रहता अँधेरे का साम्राज्यअधपचे भोजन से खानिकर्मी इन सर्पीली आँतों में भटकते रहते दिन-रात चिपचिपे पसीने के साथ...तम्बाकू और चूने को हथेली पर मलते एक-दूजे को खैनी खिलाते सुरंगों में पिच-पिच थूकतेखानिकर्मी जिस भाषा में बात करते हैं संभ्रांत समाज उस भाषा को अस

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पहचान : उपन्यास अंश

31 मई 2016
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यहकोतमा और उस जैसे नगर-कस्बों में यह प्रथा जाने कब से चली आ रही है कि जैसे ही किसी लड़के के पर उगे नहीं कि वह नगर के गली-कूचों को ‘टा-टा’ कहके ‘परदेस’ उड़ जाता है।कहते हैं कि ‘परदेस’ मे सैकड़ों ऐसे ठिकाने हैं जहां नौजवानों की बेहद ज़रूरत है। जहां हिन्दुस्तान के सभी प्रान्त के युवक काम की तलाश में आते है

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अस्त-व्यस्त

2 जून 2016
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काम का कोई अंत नही समय की कोई सीमा नही सब कुछ अस्त-व्यस्त ऐसे में कितना मुश्किल है बचा पाना समय खुद के लिए अपनों के लिए कुल मिलाकर टालते जाता हूँ अपनी ज़रूरतें अपनी ख्वाहिशें और फिर से भिड जाता हूँ एक बेहतर कल की उम्मीद के साथ जाने वो कल कब आएगा ----

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जहर की खेती

16 जून 2016
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ज़हर की खेतीफिर फिर होतीबोने वाले, शातिर इतनेऔर बहुत माहिर हैं देखोक़ानून बनाकर ज़हर बो रहेमकसद उनका. लोकतन्त्र मेंखूब  उगे  वोटों की फसलदेखो तो अपने मकसद मेंबेशरम हुए जा रहे सफल....भोले-भाले  आम  जन  को  जाने कब  आएगी  अकल.....

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मेहनतकश के सीने में

23 जून 2016
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कितना कम सो पाते हैं वेयही कोई पांच-छः घंटे ही तोयदि हुई नही बरसातपड़ा नही कडाके का जाड़ातो उतने कम समय में वेसो लेते भरपूर नींदबरखा और शीत में हीअधसोए गुजारते रातउनसे पहले उठती घरवालियाँचूल्हे सुलगा पाथती छः रोटियाँअचार या नून-मिरिच के साथपोटली में गठियातीं तब तकछोड़कर बिस्तर वे किसी यंत्र-मानुष की तर

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तीसरा पक्ष

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तीसरा-पक्ष : अंक 35अप्रेल-जून 2016 संपादक : असंगघोष, शिवनाथ चौधरी संपर्क : ३७३४/२३ए, त्रिमूर्ति नगर, दमोह नाका, जबलपुर मप्र ४८२००२ ०७६१२६४८६८६पृष्ठ १०४ एक प्रति : 20/- वार्षिक : 80/- आजीवन : १०००/-दलित लेखन की त्रैमासिकी 'तीसरा पक्ष' इसलिए एक ज़रूरी पठनीय लघुपत्रिका है कि इसमें घोर अंधकार में मशाल का

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