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सफ़र और हमसफ़र : एक अनुभव

16 अगस्त 2016

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अकसर अकेली सफ़र करती लड़कियों की माँ को चिंताएं सताया करती हैं और खासकर ट्रेनों में . मेरी माँ के हिदयातानुसार दिल्ली से इटारसी की पूरे दिन की यात्रा वाली ट्रेन की टिकट कटवाई मैंने स्लीपर क्लास में .

पर साथ में एक परिवार है बताने पर निश्चिन्त सी हो गयीं थोड़ी .फिर भी इंस्ट्रक्शन मैन्युअल थमा ही दी उन्होंने फ़ोन पर ही .


अधिकांशतः स्लीपर में ही सफ़र करने की एक बड़ी वजह यह है कि स्लीपर में अक्सर मुझे नए किस्से ,नयी कहानियां और नए लोग ों के साथ साथ अपने ही जैसे ,अपने ही ख्यालों वाले या आम भारत के तस्वीर को सजाने वाले लोग मिल जाया करते हैं . और नही तो मुझे बेहद प्यारे छोटे छोटे बच्चे मिल जाते हैं जो सफ़र को मेरे लिए अल्हड नटखट सा बना देते हैं .एक बार की तस्वीरें मेरे कैमरा में अभी भी हैं जो बच्चा मुझे दीदी दीदी कहकर लगभग पूरे सफ़र में मेरी बर्थ पर ही रहा मेरे साथ .


भारत जो मेरे जैसा आम है .  परिवारों सी आम चिंताएं – बच्चे का कॉलेज कौनसा लिया ,ब्रांच क्या लें , आदि आदि . वही भारत तो बसता है ...इन दौड़ती जिंदगियों के डिब्बों में .


खैर सामने बैठा एक संयुक्त परिवार मुझे अपनी किताब से बार बार नज़रें उठाके मुस्कुराने को मजबूर कर रहा था अपनी बातों से . एक सत्रह साल का लड़का जहाँ मुझे अपनी इसी उम्र की बहन की याद दिला रहा था तो बेटी एक कज़न सिस्टर की . शांत सी . परिवार की चुहलबाजियों से अलग . पर एक बात मजेदार और आजकल के हिसाब से सामान्य थी . पापा-बेटा-बेटी अपने फोन पर लगे हुए थे . और इस बात की प्यार भरी शिकायत दादी माँ और दादाजी बार बार कर रहे थे कि बस अब तो हो गया सब ये तो लग गये इसमें .


एक बात जो सर्वथा दृश्यमान है हर जगह –जनरेशन गैप – बार बार झलक रहा था . प्रौढ़ पुत्र -अरे पापा आप अपना चार्जर नही लाये ? भूल गया ....!  ओहो आप भी न .... . बाबा ...आप भी न किस ज़माने का फोन रखे बैठे हो .दादी बोलीं कि हाँ तो हमें करना ही क्या है ....मुझे अपनी नानी याद हो आयीं ! 


फिर दादा दादी किसी परिवार या पहचान के बच्चे के एडमिशन की बात कर रहे थे कि वो तो ये करना चाहता था पर अब यहाँ चला गया ....बार बार जिस कॉलेज का नाम ले रहे थे वह मैंने सुन रखा था और मुझसे रहा न गया .

हमें सिखाया जाता है कि आजकल भरोसा किफ़ायत के साथ करना चाहिए . पर स्लीपर क्लास में जो गर्माहट मुझसे अक्सर टकराई है वो मुझे अपनी खुशबू में समेट ही लेती है . J और फिर लगता है ....थोड़ी बात शुरू कर देंगे तो घट नही जायेंगे . अपने ही से हैं . थोड़ी देर जानने समझने के बाद मुस्कुरा लेने की फीस नही लगती .


खैर तो मैं मन ही मन पहले तो खुद को समझाने लगी ----तुझे क्या करना ....पर फिर बोल पड़ी. और दादी गर्व से बताने लगीं कि कैसे उनका वह बच्चा /पोता/नाती जे ई ई निकाल चुका है .मैं मुस्कुरा उठी क्यूंकि मेरे आई आई टी में पढने का गर्व हमारे परिवार को भी ऐसे ही होता है .


गर्व ,खुशियाँ ,परिवार और भारत एक दूसरे में गुंथे हुए हैं . 


दादा दादी थोड़े अधिक खुले थे . शायद ज़िन्दगी का अनुभव आपको बोल्ड के साथ साथ निश्चिन्त भी कर देता है . खैर फिर कुछ देर बाद ....मैं लंच कर सोने चली गयी और वापस आई तो मौसम खूबसूरत अंगडाइयां ले रहा था ...रिमझिम बारिशों के बीच मेरा सफ़र बेहद सुहाना सा हो गया था . सुबह की उमस मनभावन ब्रीज़ में तब्दील हो गयी थी . और मैं फिर से अपनी किताब में डूब गयी .


पर बीच बीच में उस सत्रह साल के लड़के की हरक़तों से मुझसे रहा नही गया और आखिर मैंने अब उन दोनों भाई बहन से बात करनी शुरू कर दी . कैसे वो फिजियोथेरेपी का कोर्स कर रही है और तारीफ की कि चलो ,गुड टू नो दैट कोई तो नॉन इंजिनियर है ...तो दादा जी भी खुश हो उठे .


फिर दादी अनायास ही बोल उठीं कि ये बच्चे जब कॉलेज जायेंगे शायद तभी पैसे और समय का अमोल समझेंगे . सच ही तो है . घर के अम्ब्रेला में अकेले भीगने की नौबत ही नही आती और अकेले रहने पर कम से कम रोज़मर्रा की छोटी मोटी बारिशें ही सही ,आगे की मूसलाधार बारिशों के लिए तैयार कर देती हैं !



ज़िन्दगी ,लोग,किताबें और यात्राएं सबसे बेहतर क्लासरूम्स होते हैं . समझ आ रहा था .


अब जैसे इस परिवार से और बात करने का मन होता जा रहा था . किताबें तो पढ़ी जायेंगीं ही . पर लोग कहाँ टकरायेंगे ऐसे .खैर पता चला कि वे लोग शिर्डी जा रहे हैं तो मैंने ऐसे ही दादी से बातों बातों में कहा कि आप प्लीज़ मेरे लिए दुआ कीजिये . और उन्होंने मेरे लिए कामयाबियों की दुआओं की झड़ी लगा दी .फिर कहने लगीं ....बेटा..जब हम अपना काम अच्छे से करते हैं न तो वो भी कभी न कभी हमें सूद समेत सब कुछ दे देता है . इसलिए अपना काम करते रहो. मैं भावविह्वल हो गयी . सच्ची दुआएं ऐसी ही तो होती हैं .


इस बीच दादी पूछ बैठीं कि मैंने तो खाना खाया ही नही सुबह के बाद .....अच्छा लगा कि माँ साथ नही तो कोई है जो फ़िक्र कर रहा है . दरअसल वे सो रही थीं जब मैंने लंच किया था . J

धीरे धीरे वो अपने संघर्ष के दिनों की बातें बताती रहीं और कैसे अब वे अपनी अच्छे और ज़िम्मेदार बेटों के कारण खूब यात्राएं कर रहीं हैं ....वगैरह .और मैं उनके यात्रा वृत्तान्त सुनते रही . मैंने कम ही बुजुर्गों को विजिट की गयीं जगहों के बारे में इतना सांस्कृतिक ,ऐतिहासिक और सामान्य ज्ञान वाली बातें करते सुना होगा . वो मुझे अधिकांशतः सभी धार्मिक ,सांस्कृतिक स्थलों के बारे में बताते रहीं और मैं कौतूहल से सवाल करती रही . वैष्णोदेवी ,राजस्थान के कृष्ण मंदिरों से लेकर ,मथुरा ,गंगासागर और साउथ इंडिया के मंदिरों की खूबियों विशेषताओं और लोक कथाओं ,पौराणिक किस्सों को जानने में मुझे बड़ा मज़ा आ रहा था .


 

धर्म , संस्कार ,बच्चियों और लड़कियों की सुरक्षा पर  बरती जाने वाली  ज़रूरी हिदायतें जो मुझे व्यावहारिक लगीं, आस्था , कर्मकांड , शिक्षा , आजकल के बेटों – बेटियों की प्रवृत्तियाँ और सामान्य माँ और नानी सी ऐहियातन बातें .....मैं गदगद हो उठी . उनके बेटे अपनी शंघाई यात्रा और चीन की उत्पादन प्रणाली पर अपने पिता को बताने लगे और अब क्यूंकि मैं चीन नही गयीं हूँ और किताबों और अखबारों में लाख पढ़ा हो ....कुछ बातें ज़मीनी होती हैं सोचकर उनसे चर्चा होने लगी .सच में ज्ञान का विस्तार ऐसे ही तो होता है .



 

और फिर हमारी आपकी दादियाँ ऐसी ही तो होती हैं . भारत में  अक्सर . शुभकामनाओं , सलाहों और बाय बाय दादी कहकर मैं अपने स्टेशन पर उतर गयी . पर ये बातें ज़ेहन में एक हफ्ते से तैरती हैं .अनुभव ऐसे उतर जाते हैं दिलों में .

मैं मेरी स्लीपर क्लास यात्राओं से इसीलिए तो खुश रहती हूँ . 



फ्लाइट्स  और एयरकंडिशनिंग संभवतः व्यक्ति को थोडा एलीट होने का अहसास देती हैं तो कुछ पहले के अनुभव उन्हें दूरियां बनाए रखने को मजबूर करते हैं .पर इनसे परे इस भीड़ में आम बन सफ़र करने का अहसास निराला होता है . उम्मीद करती हूँ ,हम सब मिलकर ट्रेन्स के टॉयलेट्स के मग जो चुरा लिए जाते हैं , जो गंदगियाँ तमाम फ़ाईन और हिदायतों के बोर्ड के बावजूद हम लोग फैलातें हैं ,यह सोचकर कि यह पब्लिक प्रॉपर्टी है ...जैसी बुरी और गैरजिम्मेदार रवैये को छोड़ हमारे जैसे आम लोगों के सफ़र को बेहतर बनाने में रेलवे का साथ देंगे .क्यूंकि तालियाँ तो दोनों हाथ से ही बजेंगी.

   

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