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शहर पुराना सा .

16 अगस्त 2016

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अंग्रेज़ीदा लोगों का मौफुसिल टाउन ,
और यादों का शहर पुराना सा .
कुछ अधूरी नींद का जागा,
कुछ ऊंघता कुनमुनाता सा
शहर मेरा अपना कुछ पुराना सा .
हथेलियों के बीच से गुज़रते
फिसलते रेत के झरने सा .

 

कुछ लोग पुराने से ,
कुछ छींटे ताज़ी बूंदों के
कुछ मंज़र अजूबे से
और एक ठिठकती ताकती उत्सुक सी सुबह .

 

सरसरी सवालिया निगाहों की बातें
और कुछ अचकचाती सी ज़बान
कुछ उड़ते खामोश परिंदे
जो ग़ुमशुदा हो जाते यकायक ,
हो जाते तब्दील ,
बादलों के मखमली लिबास में लिपटे
सफ़ेद रुई के पुलिंदे में,

 

शहर जो मसरूफ़ है
अपनी ही बेकारियों के जश्न में .
शहर जो ठिठुरता है , ठन्डे रिश्तों से
और गर्म शॉल सा ओढ़ा लेता है
अपनी दरियादिली की मिसालों से
तो कहीं जलता है आग बनके
तेज़ी से गायब होते और
सरसर बढ़ते नए ज़माने के नए रंगों की ओर

 

खुशबू धनक की औ
सौंधी गीली मिटटी के जैसे गढ़ते
बनते बिगड़ते और
नित नए आकार में ढलते
मेरे शहर की गलियों की नुक्कड़ों पर
अब भी वही यादें पसरती हैं
क्यूंकि मॉफुसिल याने कस्बे की
खनक उसकी अनगिनत कहानियों में है
और कहानियाँ लिखती हैं सभ्यताएं और
शहर पुराने से
जो खड़े हैं नए सुरीले स्वप्निल संसार के दरवाज़े पर
बन एक चंचल उत्सुक बच्चे से .

 

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