जीव जिस रूप में आता है उसी रूप में चला जाता है। न आने के समय कोई साथ न जाने के समय। यात्रा के पड़ाव में अनेक संगी साथी अवश्य हो जाते हैं, सो सुखमय यात्रा के लिए जहाँ यह आवश्यक है कि सब लोग प्रेमभाव से चलें, नीति और सदाचार का पालन करें, विश्व-बंधुत्व की भावना की अनुशीलन करें वहाँ यह भी नितान्त आवश्यक है कि अपनी एकाकी यात्रा के लिए भी पूर्ण तैयारी करते हुए आगे बढ़े। निराश, भय और विक्षोभ उस महाशून्य की यात्रा में बाधक न बनें इसके लिए जो भी अभी तैयार नहीं हुआ उसका यहाँ आना निरर्थक गया।
“मैं शरीर नहीं हूँ, शरीर अवश्य मेरा है। दूर से आता रथ तो दिखाई देता है किन्तु रथी नहीं। अपनी दृष्टि का छोटा होना-अपनी दर्शन की क्षमता का संकुचित होना मात्र कारण है अन्यथा बुद्धि जानती है कि रथ में जुते हुए घोड़ों को सीधे रास्ते लाने ले जाने वाले वाहन में कोई रथी अवश्य बैठा होगा। शरीर भी एक रथ है, आत्मा उसका सारथी, इन्द्रियाँ ही वह घोड़े है जिन पर नियन्त्रण रखकर सारथी उन्हें जिधर चाहे ले जा सकता है। महत्व रथ और घोड़े का नहीं उसके स्वामी-आत्मा का है सो अपनी दृष्टि, अपनी बुद्धि, अपना ज्ञान और तर्क इतना संकीर्ण नहीं होना चाहिए कि आत्मा को भी न पहचाना जा सके।
घोड़े (इन्द्रियाँ) थके, रथ (शरीर) टूटे इसके पूर्व हमें उस स्थान तक पहुँच ही लेना चाहिये महाकाल की महा निशा में सुखपूर्वक विश्राम कर जहाँ से आगे की यात्रा में बढ़ा जा सके। भारी मन थके शरीर भटके हुए पथ की यात्रा कष्टप्रद होती है इसलिये इस जीवन यात्रा को बहुत सोच समझ कर जीना चाहिये।