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गरीबी पाप नहीं

22 अगस्त 2016

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मेरे हिस्से की गरीबी झेल रहा हूं,

जबसे पैदा हुआ बस मिट्टी से खेल रहा हूं।

माना कि गरबी पाप नहीं है,

यह कोई बहुत घिनोना श्राप नहीं है,

पर इसको कैसे पून्य बता दूं,

क्या बीत रही है गरीबी में मुझ पर,

सबको सब कुछ कैसे बता दूं।

बचपन में तरसा था हरदम,

कॉपी,

पेंसिल,

बरते,

पट्टी को,

बारिस में टपकते देखा है,

घर में लगी टाट की पट्टी को।

सङक की बत्ती जब भी गुल होती,

अंधेरा मेरी टपरी में आ जाता,

समझ न पाया तब कुछ भी मैं,

सामने का बंगला कैसे जगमगाता।

जब भी आती है बस वो पीली,

आँख आज भी भर आती है,

नीली,

पीली,

लाल,

गुलाबी ड्रेसें,

आज भी मुझको भरमाती है।

जब बापू गुजरे थे हैजे से,

पास नहीं दो अन्नी थी।

माँ खङी थी

मजबूती से मेरा हाथ पकङ कर,

गोद में माँ के नन्ही थी।

रातें खूब बितायी हमने,

जागते सोते फुटपाथों पर,

घिस गयी मेहनत से रेखाएं सारी,

नहीं दिखती अब हाथों पर।

भाग्य हमारा नहीं बदलता,

मेहनत से हमारा नाता है।

गरीबी में जो पैदा होता,

लगभग गरीबी में ही मर जाता है।

सूरज रोज सवेरा करता जग में,

पर मेरे घर में आते ही धूंधलाता है,

हम गरीबी के जन्मे जाये,

गरीबी से ही हमारा नाता है।

पर सच कुछ और भी हैं जग में,

काले सन्नाटे से घिरी हवेली है,

बहुत अधिक है खाने को पर,

बदहजमी उनकी सहेली है।

कारों में बेकार घूमते,

कुत्तों संग में कुत्ते हैं,

क्या चलेंगे धरती पे वो,

जिनके पांव में लग जाते जूते हैं।

बेटा बाप की शक्ल को तरसे,

माँ मदिरा में सब भूल गयी,

बाप पङा पथ पुत्र का देखे,

घर लक्ष्मी परायी बांहों मे झूल रही।

खाक डालता हूं मैं ऐसी,

निर्लज्ज नीच अमीरी पर,

मैं गरीब हूं गौरव है मुझको,

मेरी खुद्दार गरीबी पर।।

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