1985 के अंत में दक्षिण ध्रुव (एंटार्कटिक) के ऊपर ओजोन की परत में छेद का पता चलने के बाद सरकारों ने क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी-11, 12, 113, 114 और 115) और अनेक हैलॅन्स (1211,
1301, 2402) के उत्पादन और खपत को कम करने के कड़े उपायों की आवश्यकता को पहचाना। प्रोटोकॉल इस तरह से तैयार किया गया है ताकि समय-समय पर वै ज्ञान िक और प्रौद्योगिकी आंकलनों के आधार पर इस प्रकार की गैसों से निजात पाने के लिये इसमें संशोधन किया जा सके। इस प्रकार के आंकलनों के बाद इस प्रकार की गैसों से छुटकारा पाने की प्रक्रिया को तेज करने के लिये 1990 में लंदन, 1992 में कोपेनहेगन, 1995 में वियना, 1997 में मॉन्ट्रियल और 1999 में पेचिंग में चरणबद्ध बहिष्करण में तेजी लाने के लिए प्रोटोकॉल को समायोजित किया गया। अन्य प्रकार के नियंत्रण उपायों को शुरू करने और इस सूची में नये नियंत्रण तत्वों को जोड़ने के लिये भी इसमें संशोधन किया गया। 1990 में लंदन संशोधन के तहत अतिरिक्त क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी-13, 111, 112, 211, 212, 213,
214, 215, 216, 217) और दो विलायक (सॉल्वेंट) (कार्बन टेट्राक्लोराइट और मिथाइल क्लोरोफार्म) को शामिल किया गया जबकि 1992 में कोपेनहेगन संशोधन के तहत मिथाइल ब्रोमाइड, एचबीएफसी और एचसीएफसी को जोड़ा गया। 1997 में मॉन्ट्रियल संशोधन को अंतिम रूप दिया गया जिसके तहत मिथाइल ब्रोमाइड से निजात पाने की योजना बनायी गयी। 1999 में पेचिंग संशोधन के तहत ब्रोमोक्लोरोमिथेन के उपयोग से तुरंत छुटकारा पाने (चरणबद्ध ढंग से बाहर करने) के लिये इसे शामिल किया गया। इस संशोधन के तहत एचसीएफसी के उत्पादन पर नियंत्रण के साथ-साथ गैर-पक्षों के साथ इसके कारोबार पर लगाम लगाने की योजना भी बनाई गई। ओजोन परतः ओजोन के अणुओं (ओ-3) में ऑक्सीजन के तीन परमाणु होते हैं। यह जहरीली गैस है और वातावरण में बहुत दुर्लभ है। प्रत्येक 10 मिलियन अणुओं में इसके सिर्फ 3 अणु पाये जाते हैं। 90 प्रतिशत ओजोन वातावरण के ऊपरी हिस्से या समताप मंडल (स्ट्राटोस्फेयर) में पाई जाती है जो पृथ्वी से 10 और 50 किलोमीटर (6 से 30 मील) ऊपर है। क्षोभमंडल (ट्रोपोस्फेयर) की तली में जमीनी स्तर पर ओजोन हानिकारक प्रदूषक है जो ऑटोमोबाइल अपकर्षण और अन्य स्रोतों से पैदा होती है। ओजोन की परत सूर्य से आने वाले ज्यादातर हानिकारक पराबैंगनी- बी विकिरण को अवशोषित करती है। यह घातक पराबैंगनी (यूवी- सी) विकिरण को पूरी तरह रोक देती है। इस प्रकार ओजोन का सुरक्षा कवच हमारे जीवन के लिये बहुत जरूरी है और यह हम जानते हैं। ओजोन की परत की क्षति से पराबैंगनी विकिरण अधिक मात्रा में धरती तक पहुंचता है। अधिक पराबैंगनी विकिरण का मतलब है और अधिक मैलेनुमा और नॉनमैलेनुमा त्वचा कैंसर, आँखों का मोतियाबिंद अधिक होना, पाचन तंत्र में कमजोरी, पौधों की उपज घटना, समुद्रीय पारितंत्र में क्षति और मत्स्य उत्पादन में कमी। 1970 में जब प्रोफेसर पाल क्रुटजन ने ये संकेत दिया कि उर्वरकों और सुपरसोनिक एयरक्रॉफ्ट से निकलने वाली नाइट्रोजन ऑक्साइड से ओजोन की परत को नुकसान होने की आशंका है तो इसके बारे में वैज्ञानिक चिंतित हुए। 1974 में प्रोफेसर एफ शेरवुड रॉलेंड और मारियो जे मोलिना ने यह पता लगाया कि क्लोरोफ्लोरोकार्बन वातावरण में विभाजित होकर क्लोरीन के परमाणु जारी करते हैं और वे ओजोन क्षय का कारण बनते हैं। हेलेन्स के जरिए जारी होने वाले ब्रोमीन परमाणु भी ऐसा ही बुरा प्रभाव डालते हैं। इन तीन वैज्ञानिकों ने अपने महत्वपूर्ण कार्य के लिए 1995 में रसायन विज्ञान में नोबल पुरस्कार प्राप्त किया। 1980 के दशक के प्रारंभ में जब से इसका मापन शुरू हुआ तब से दक्षिण ध्रुव के ऊपर ओजोन की परत स्थिर रूप से कमजोर हो रही है। बेहद ठंडे वातावरण और ध्रुवीय समताप मंडलीय बादलों के कारण भूमंडल के इस भाग पर समस्या और गंभीर है। ओजोन की परत में क्षय वाला भू-क्षेत्र स्थिर रूप से बढ़ रहा है। यह 1990 के दशक में 20 मिलियन वर्ग किलोमीटर से अधिक हो गया और उसके बाद यह 20 और 29 वर्ग किलोमीटर के दायरे में फैल गया। उत्तरी ध्रुव के ऊपर ओजोन की परत 30 प्रतिशत जबकि यूरोप और अन्य उच्च अक्षांश वाले क्षेत्रों में ओजोन की परत में क्षय की दर 5 प्रतिशत से 30 प्रतिशत के बीच है।
बीते दिनों ओट्टावा में कनेडियन वाटर नेटवर्क (सीडब्लूएन) द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय बैठक में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि ग्लोबल वार्मिंग और जनसंख्या बढ़ोतरी के चलते आने वाले 20 सालों में पानी की मांग उसकी आपूर्ति से 40 फीसद ज्यादा होगी। यानी 10 में से चार लोग पानी के लिए तरस जाएंगे। पानी की लगातार कमी के कारण कृषि , उद्योग और तमाम समुदायों पर सकंट मंडराने लगा है, इसे देखते हुए पानी के बारे में नए सिरे से सोचना बेहद आवश्यक है। अगले दो दशकों में दुनिया की एक तिहाई आबादी को अपनी मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए जरूरी जल का सिर्फ आधा हिस्सा ही मिल पाएगा। कृषि क्षेत्र, जिस पर जल की कुल आपूर्ति का 71 फीसदी खर्च होता है, सबसे बुरी तरह प्रभावित होगा। इससे दुनियाभर के खाद्य उत्पादन पर असर पड़ जाएगा।
ऐसे में हाल ही में घोषित राष्ट्रीय जल अभियान की सफलता की उम्मीद करना बेमानी है। यह तभी संभव है जब हर व्यक्ति पानी का महत्व समझे। इस दिशा में कार्यरत मंत्रालयों और विभागों को एक-दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के बजाय समन्वित तरीके से समस्या के समाधान हेतु प्रयास करने चाहिए। यदि हम कुछ संसाधनों को समय रहते विकसित करने में कामयाब हो जाएं तो काफी मात्रा में पानी की बचत हो सकती है। उदाहरण के तौर पर यदि औद्योगिक संयंत्रों में अतिरिक्त प्रयास कर लिए जायें तो तकरीबन बीस से पच्चीस फीसद तक पानी की बर्बादी रोकी जा सकती है। बाहरी देशों में फैक्ट्रियों से निकलने वाले गंदे पानी का खेती में इस्तेमाल किया जाता है लेकिन विडम्बना यह है कि हमारे यहां औद्योगिक क्षेत्रों में ही सबसे ज्यादा पानी की बर्बादी होती है। जरूरत है इस पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाये और एक व्यापक नीति बनाई जाये जिससे उचित प्रबंधन के जरिए पानी की बर्बादी पर अंकुश लग सके।
सूर्य का प्रकाश ओजोन परत से छनकर ही पृथ्वी पर पहुंचता हैं। यह खतरनाक पराबैंगनी विकिरण को पृथ्वी की सतह पर पहुंचने से रोकती है और इससे हमारे ग्रह पर जीवन सुरक्षित रहता है। ओजोन परत के क्षय के मुद्दे पर पहली बार 1976 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की प्रशासनिक परिषद (यूएनईपी) में विचार-विमर्श किया गया। ओजोन परत पर विशेषज्ञों की बैठक 1977 में आयोजित की गई। जिसके बाद ‘यूएनईपी’ और विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने समय-समय पर ओजोन परत में होने वाले क्षय को जानने के लिए ओजोन परत समन्वय समिति (सीसीओएल) का गठन किया
ओजोन-क्षय विषयों से निबटने के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझौते हेतु अंतर-सरकारी बातचीत 1981 में प्रारंभ हुई और मार्च, 1985 में ओजोन परत के बचाव के लिए वियना सम्मेलन के रूप में समाप्त हुई। 1985 के वियना सम्मेलन ने इससे संबंधित अनुसंधान पर अंतर-सरकारी सहयोग, ओजोन परत के सुव्यवस्थित तरीके से निरीक्षण, सीएफसी उत्पादन की निगरानी और सूचनाओं के आदान-प्रदान जैसे मुद्दों को प्रोत्साहित किया। सम्मेलन के अनुसार मानव स्वास्थ्य और ओजोन परत में परिवर्तन करने वाली मानवीय गतिविधियों के विरूद्ध वातावरण बनाने जैसे आम उपायों को अपनाने पर देशों ने प्रतिबद्धता व्यक्त की। वियना सम्मेलन एक ढाँचागत समझौता है और इसमें नियंत्रण अथवा लक्ष्यों के लिए कानूनी बाध्यता नहीं है। ओजोन परत को कम करने वाले विषयों पर मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल को सितम्बर, 1987 में स्वीकार किया गया। ओजोन परत के क्षय को रोकने वाले, ओजोन अनुकूल उत्पादों और जागरूकता जगाने के लिए मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल विषयों के कार्यान्वयन के महत्व का उल् लेख करते हुए ओजोन परत के संरक्षण के लिए 16 सितम्बर को अंतर्राष्ट्रीय दिवस घोषित किया गया। सभी सदस्य देशों को इस विशेष दिवस पर मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के उद्देश्यों एवं लक्ष्यों और इसके संशोधन के साथ राष्ट्रीय स्तर पर ठोस गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए आमंत्रित किया जाता है।
तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराता है। इससे नौ नदियों में पानी की आपूर्ति होती है, जिनमें गंगा और ब्राह्मपुत्र शामिल हैं। इनसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, नेपाल और बांग्लादेश को पानी मिलता है। लेकिन जलवायु परिवर्तन व 'ब्लैक कार्बन' जैसे प्रदूषक तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों की बर्फ की मात्रा घटा दी है। माना जा रहा है कि कुछ तो इस सदी के अंत ही तक खत्म हो जाएंगे। लेकिन उससे पहले तेजी से गलते ग्लेशियर समुद्र का जलस्तर बढ़ा देंगे, जिससे तटीय इलाकों के डूबने का खतरा होगा। पानी की उपलब्धता के मामले में राजधानी दिल्ली में ही जहां लोग एक ओर अमोनियायुक्त गंदा पानी पीने को मजबूर हैं, वहीं दूसरी ओर रोजाना पानी के पाइपों से इतना पानी बर्बाद हो रहा है जिससे 40 लाख लोगों की प्यास बुझ सकती है। पानी की बर्बादी का यह खमियाजा निकट भविष्य में भुगतना पड़ेगा।