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मेरे एक स्केच ----- तीन मित्र तीन बात का एक अंश

24 अगस्त 2016

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जब रचना अपने बच्चे को कपड़े पहना कर आंगन में अपनी अटेची उठाने के लिए आगे बढी तो मुझे सामने देख कर एक साथ मुझ से जोर से चिपट गयी और कंघे पर सर रख कर फफकते हुए बोली --- बड़े भैया ! अब मैं बहुत थक गई हूँ | अब मुझसे और नहीं सहा जाता | ऐसा लगता है जैसे सारी जिन्दगी ही हाथ से फिसल गई है | सारे सपने टुकड़े टुकड़े हो गये हैं | आपने तो मुझे बहुत मन से शादी पर सदा प्रसन्न रहने का आशीर्वाद दिया था | पर शायद वह भी मेरे कुण्ठित भाग्य के सामने बौना पड़ गया |

रचना --- मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा -- नहीं , आशीर्वाद कभी व्यर्थ नहीं जाते | वह तो प्रतिपल हर बुरी दृष्टि से रक्षा करने के लिए एक सशक्त कवच का काम करते हैं | कभी कभी कोई प्रदूषित हवा का झोंका अवश्य हमारी जिन्दगी को कुछ क्षण के लिए झकझोरने में सफल हो जाता है | पर हमें उससे विचलित नहीं होना चाहिये | वह क्षण तो हमारे मानसिक संतुलिन की परीक्षा के क्षण होते हैं | अगर हम उन क्षणों में जरा सा भी बहक गये तो समझो हमने प्यार ,सम्मान , सहानुभूति के रूप में संचित की हुई अपनी समस्त पूंजी को हमेशा के लिए खो दिया |

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