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यादें : शिक्षकों की !

5 सितम्बर 2016

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आज शिक्षक दिवस पर मैं अपने सभी शिक्षकों जो मुझे प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा तक मिले या कार्य स्थल पर मुझे शिक्षित करते रहे सबको नमन करती हूँ और उनमें से कुछ के साथ जुडी यादें भी स्मरण कर रही हूँ। मुझे वो अपने सारे शिक्षक अच्छे तरह से याद हैं।


मेरी प्राथमिक शिक्षा सनातन धर्म स्कूल , उरई में हुई। स्कूल शिक्षक तो नहीं लेकिन मुझे घर पर उसी स्कूल में चपरासी का काम करने वाले गुप्ता जी पढ़ाने आते थे। उस समय शिक्षकों को भाई साहब और शिक्षिकाओं को बहनजी कहा जाता था। गुप्ता जी ने हमारी नींव मजबूत की थी और जब वे स्कूल में क्लास में चाक और डस्टर रखने आते थे तो मैं उठ कर खड़ी हो जाती थी। एक दिन उन्होंने समझाया कि क्लास में खड़े मत हुआ करो। मैं घर का टीचर हूँ न। मुझे उनकी बात आज भी याद है।

मेरी इण्टर तक की शिक्षा आर्य कन्या इण्टर कॉलेज , उरई में हुई। हाईस्कूल तक की शिक्षा में मेरी क्लास टीचर और होम साइंस टीचर प्रवेश प्रभाकर ने मुझे बहुत प्रभावित किया और यही नहीं मेरी अभिव्यक्ति की क्षमता को उन्होंने ही पहचाना था। उनका प्रयास रहता कि मैं क्लास के पढाई से इतर कामों में भी सक्रिय रहूँ। इत्तेफाक से वे हमारे घर के बगल वाले घर में रहती थी। उनके पापा सरकारी हॉस्पिटल में डॉक्टर थे। मेरी आज भी इच्छा है कि वे मुझे मिल जाएँ तो मैं उनसे कहूँ - 'मैं वह बन चुकी हूँ , जो वह चाहती थीं। '

मेरी इण्टर कॉलेज की प्रिंसिपल प्रेम भार्गव भी मुझे हमेशा याद रहेंगी। वैसे तो मैं जिस कॉलेज में जिस स्तर तक पढ़ी , शिक्षक और कॉलेज में शक्ल और नाम से सब जानते थे। एक कड़क टीचर थी वो। मैं उन्हें हमेशा याद रही। शादी के बाद भी कभी भाई साहब से उनका मिलना होता तो पूछती 'रेखा कहाँ है ? क्या कर रही है ?' अफ़सोस की वो अब नहीं हैं।

डिग्री स्तर पर -को-एजुकेशन वाला था और छोटी जगह का माहौल सीधे कॉलेज जाना और वापस आना। हाँ उस समय तक मैंने लिखना और स्तरीय पत्रिकाओं में प्रकाशित होना शुरू कर दिया था। फिर भी किसी विशेष शिक्षक के बारे में इस स्तर पर उल्लिखित नहीं कर सकती।

शादी के बाद मैंने बी एड किया और वहां की शिक्षिकाएं सभी अच्छी थी लेकिन सिर्फ एक मुझे प्रिय थी और उन्हें मैं , डॉ प्रीती श्रीवास्तव ( दुर्भाग्य से वो अब नहीं रहीं। ) और वहां की प्रिंसिपल डॉ अमर कुमार हमेशा याद रहेंगी क्योंकि मैंने एम एड भी उसी कॉलेज से किया था। वहां भी मेरी अपनी एक पहचान बनी हुई थी। कॉलेज छोड़ने के बाद जब मैंने पी एच डी के लिए रजिस्ट्रेशन फॉर्म भरा तो आखिरी शिक्षण संस्थान के प्रमुख के साइन होना चाहिए। मैं नहीं गयी मेरे पतिदेव अपने प्रो. मित्र के साथ गए तो उन्होंने साइन करने से मना कर दिया। बोली रेखा को भेजो। जब मैं गयी तो बोली - 'मैं अपनी स्टूडेंट को देखना चाहती थी , नहीं तो साइन की कोई बात नहीं थी। ' बस वो कड़क छवि वाली मेरी शिक्षिका फिर कुछ ही वर्ष बाद कैंसर से चल बसी।

इसके बाद मैंने कानपूर विश्वविद्यालय से 'डिप्लोमा इन कंप्यूटर साइंस ' का कोर्स किया। बस मौज मौज में नहीं तो आई आई टी में जॉब कर रही थी और सब कुछ जो पढ़ाया जाना था मुझे पहले से आता था। फिर पढ़ाने वाली सारी फैकल्टी आई आई टी की ही थी। क्लास में बैठ कर उनसे पढ़ती और आई आई टी में उनके साथ गप्पें भी मारा करती थी। फिर भी मेरे शिक्षकों में वाई डी एस आर्य , निर्मल रोबर्ट , रजत मूना , बी एम शुक्ला और सुषमा तिवारी बहुत अच्छे थे। इनमें से कुछ तो सेवानिवृत्त हो कर चले गए और कुछ अभी भी हैं लेकिन वे उम्र में हमसे छोटे हैं और तारीफ की बात उन्होंने मुझे क्लास हो या आई आई टी हमेशा रेखाजी से ही सम्बोधित किया।

सबसे अंत में और श्रद्धा से जिन्हें मैं याद करती हूँ वे हैं मेरे कार्य स्थल और मेरे कंप्यूटर साइंस के प्रोजेक्ट मशीन ट्रांसलेशन के मुख्य दिग्दर्शक डॉ विनीत चैतन्य - जिन्होंने हमें कंप्यूटर पर हाथ रखने से लेकर उसकी सारी प्रक्रिया बहुत धैर्य के साथ सिखाई , कभी गुस्सा नहीं किया क्योंकि हम तो कला क्षेत्र के लोग थे लेकिन हमारी अच्छी हिंदी और लेख न क्षमता के कारण ही हमें चुना गया था। सो डेस्कटॉप से लेकर नेट के साथ काम करने की शिक्षा उनसे ही ग्रहण की। मैं उनकी चिर ऋणी रहूंगी और ऐसे गुरु को हमेशा और सभी नमन करते हैं।

आज मेरे सभी शिक्षको को मेरा शत शत नमन।

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