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शाकिर उर्फ....

11 नवम्बर 2016

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एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर ही वह जनरल-बोगी के अंदर घुस पाया। थोड़ी भी कमी रहती तो बोगी से निकलते यात्री उसे वापस प्लेटफार्म पर ठेल देते। पूरी ईमानदारी से दम लगाने में वह हांफने लगा, लेकिन अभी जंग अधूरी ही है, जब तक बैठने का ठीहा न मिल जाए। बोगी ठसाठस भरी थी। साईड वाली दो सीट पर एक पर बैग पड़ा था और दूसरे पर एक युवक बैठा था। उसने युवक से पूछा--‘खाली है...?’ युवक ने चुपचाप बैग उठाकर उसे बैठने को इशारा किया। उसने युवक को नज़रों से धन्यवाद दिया और पहले तो सीट पर लदा-फंदा बैठ गया। पीछे से भीड़ का हमला ज़ारी था। उसने पीठ पर टंगे बैग को उतारकर खिड़की के पास लगे हुक में टांग दिया। उसके बाद घुसे चंद यात्री ही भाग्यवान साबित हुए जिन्हें बोगी में जगह मिली बाकी बिचारे अपने सामान टांगे इधर-उधर आगे की सम्भावना तलाशने लगे। जैसे कोई बैठे यात्री से पूछ रहा था--‘आगे कहां तक जाना है?’ यानी यदि एक-दो स्टापेज की बात है तो फिर प्रतीक्षा कर ली जाए वरना दूसरे यात्रियों को टटोला जाए। अब तीन घण्टे की यात्रा है फिर जैसे ही अनूपपुर आएगा उसे आगे की यात्रा के लिए एक बार और मेहनत करना होगा। तब तक इस सुपरफास्ट ट्रेन का आनंद उठाया जाए। किसी भी ट्रेन में जनरल बोगी में यात्रा करना हर बार एक नए अनुभव से दो-चार कराता है। जनरल बोगी में जगह मिलना भाग्य से जुड़ा सत्य है। चमत्कार ही होता है जो कोई बीच सफर में बोगी में सीट पा जाए। ट्रेन अब खुलने वाली थी। उसने बैग से पानी की बोतल निकालकर प्यास से सूखे हलक को तर किया। खिड़की से बाहर प्लेटफार्म अब पीछे छूटने लगा, ट्रेन गति धीरे-धीरे बढ़ने लगी। उसने सामने बैठे युवक को गौर से देखा। युवक के चेहरे पर लम्बी यात्रा की थकन के निशान हैं। धूप से झुलसा चेहरे पर आर्थिक संघर्ष के चिन्ह देखे जा सकते हैं, लेकिन खुद्दारी की आंच से चेहरे पर एक चमक भी नज़र आती है। कुल मिलाकर उसे लगा कि सहयात्री कोई उठाईगीर नहीं बल्कि एक सजग नागरिक है। जनरल बोगी की यात्रा में अपने सहयात्रियों से परिचित होने के कई अवसर आते हैं। स्लीपर या एसी कोच में सहयात्रियों की अपनी एंेठन होती है। बड़े ठस से होते हैं यात्री...एकदम निर्विकार सा चेहरा लिए यात्रारत्। अपने में गुम होते हैं ये यात्री। किसी को किसी की परवाह नहीं और ठीक इसके विपरीत जनरल बोगी में यात्रीगण एक-दूजे से शुरू में दुश्मनागत् से होते हैं और जब एक-दो स्टेशन का सफ़र तय हो जाता है तब धीरे-धीरे ऐसा परिचित होते हैं कि यात्रा के अंत में देखो तो एक-दूजे का मोबाईल नंबर तक ले डालते हैं। उसने भी समय काटने के लिए युवक को छेड़ा--‘धन्यवाद भाई आपको, यदि आपने सीट न रोकी होती तो जाने कैसे कटता ये सफर?’ युवक मुस्कुराया--‘मेरा साथी था इस सीट पर जो बिलासपुर में उतर गया। मैंने सोचा कि कोई ढंग का आदमी होगा तो सीट उसे दूंगा और तब तक आप आ गए।’ ट्रेन समय से मात्र आधा घण्टा लेट है। यदि अब लेट न हुई तो उसे अनूपपुर से चिरमिरी जाने वाली ट्रेन आसानी से मिल जाएगी और वह रात ग्यारह बजे तक अपने घर पहुंच कर खाना खा रहा होगा। खाने से उसे याद आया कि आज दुपहर काम की व्यस्तता और ट्रेन पकड़ने की चिंता में लंच तो लिया ही नहीं था। बस प्लेटफार्म के बाहर सिंधी होटल में उसने समोसे खाए थे और चाय पी थी। चलते-चलते बिस्किट का एक पैकेट और पानी-बोतल खरीदी थी। अब उसे भूख लग रही थी। उसने बैग से बिस्किट का पैकेट निकाला। रैपर खोलकर एक बिस्किट निकालकर वह खाने लगा। देखा कि सामने बैैठा युवक भी सीट के नीचे से एक थैला निकाल रहा है। युवक ने थैले के कोने में हाथ डालकर एक पोलीथीन निकाला। उसमें बिस्किट और नमकीन था। वह भी बिस्किट निकालकर खाने लगा। दोनों एक दूसरे को देख मुस्कुराए। उससे चुप रहा न गया--‘ट्रेन में भूख बहुत लगती है न....और मुझे तो डायबिटीज़ भी है...सो कुछ न कुछ खाना पड़ता है वरना चक्कर आता है!’ युवक बोला--‘का करें, लम्बा सफर है, देखिए न वैसे भी चाय-पानी का समय तो होइए गया है...!’ उसने अपना बिस्किट का पैकेट युवक की तरफ बढ़ाया--‘इसका भी स्वाद लिया जाए।’ युवक ने दो बिस्किट निकाले और अपनी पोलीथीन से मिक्सचर का पैकेट निकालकर खोलने लगा--‘चलिए ये भी ठीक रहा, ई नमकिनवा का लुफ्त भी लें सर..!’ उसने जब उसे ‘सर’ का सम्बोधन दिया तो आभास हुआ कि बेशक उसके वस्त्र और अन्य पहचान उसे एलीट बना रहे हैं। नमकीन हथेली पर लेकर उसने युवक से पूछा--‘कहां तक जाना है...?’ --‘बीकानेर तक...!’ फिर कुछ सोचकर उसने बताया--‘बीकानेर से आगे अस्सी किलोमीटर जाना है जहां साईट में तीन महीने तक का काम है।’ अब जनरल कोच में दो यात्रियों के बीच अपरिचय की गिरह इस तरह खुलने लगी। --‘याने आप काम पर जा रहे हैं...कहां से आ रहे हैं?’ --‘साब, मैं एक वेल्डर हूं, मेरा ठीकेदार का काम बिहार और राजस्थान में चलता है। बड़ी गाडि़यों और मशीनों की टूट-फूट पर ठीकेदार बोलता है कि राजू, तेरे सिवा और कोई पक्का काम नहीं कर पाएगा!’ इस तरह उसे पता चल गया कि युवक का नाम राजू है जो किसी कंट्रेक्टर के अंडर में वेल्डर का काम करता है। युवक की उम्र क्या होगी? यही कोई पैंतीस-छत्तीस का होगा, लेकिन निर्धनता और आजीविका के संकट ने बहुत जल्दी उसके चेहरे पर झांईयां ला दी थीं। राजू कुछ बातूनी सा था--‘साब, आप वेल्डिंग के काम के बारे में ज्यादा न जानते होंगे।’ उसने बताया--‘अरे नहीं राजू भाई, मैं जिस उद्योग में काम करता हूं वहां एक वर्कशाप भी है जहां वेल्डिंग आदि होती रहती है। हमारे यहां एक केरेलियन जान बाबू वेल्डर है जो कैसा भी कठिन वेल्डिंग काम हो बड़ी बारीकी से करता है। गैस-कटर से जब जान बाबू कोई जीआई शीट काटता है तो ऐसा लगता है कि जैसे रेज़र-ब्लेड से काटा गया हो। दस-बारह एमएम की प्लेट हो या बीस एमएम की। हमारे यहां मशीनों की टूट-फूट पर बड़ी सफाई से जान बाबू ही काम करता है। अब उसने एक चेला भी तैयार कर लिया है मुश्ताक को। आपकी उमर का लड़का है मुश्ताक...वो भी जैसे जान बाबू की परछाईं है।’ राजू सीट पर दोनों पैर चढ़ाकर इत्मीनान से बैठ गया और बताने लगा--‘लेकिन जैसा काम हमने किया है साब, वैसे काम के लिए कलेजा चाहिए...जानते हैं पचास फुट की ऊंचाई पर हवा में खड़े ड्रेगलाईन मशीन का बूम क्रेक हुआ था। ये बात उड़ीसा की है। उतनी ऊंचाई पर मैं सुबह जुगाड़ लेकर चढ़ता तो सीधे चार बजेे उतरता था। बहुत कमाया उस काम में...हर दिन ठीकेदार एक एक्स्ट्रा हाजिरी देता था। पंद्रह दिन काम चला और पंद्रह दिन के बाद पंद्रह दिन की छुट्टी। तनखाह पूरे महीने भर का और ओभरटाईम अलग से। बड़े जीगर का काम था साब, रस्सी के सहारे पानी-नाश्ता ऊपर पहुंचाया जाता। एलक्ट्रोड खतम होता तो इशारा करता और रस्सी के सहारे सामान मिलता था। वहां का फोरमैन तो मेरे को भूत कहता था...बोलता राजू भाई, कित्ती दारू पिएगा बोल...तू तो भूत है भूत। अपन दारू को हाथ नहीं लगाता, बस खैनी खाता हूं वो भी बिहारी खैनी। इधर की खैनी में मजा नहीं आता।’ खैनी का नाम सुनकर उसने कहा--‘राजू भाई, पानी पिया जाए और फिर एक राउण्ड खैेनी हो जाए।’ राजू खुश हुआ--‘अरे, पहले काहे नहीं बताए...फटाक से खैनी बनाता हूं साब....आप भी चख लें बिहारी खैनी। एकदम कड़क होती है...इधर तो बीड़ी-पत्ती की खैनी खाते हैं लोग...एकदम्मे भूसा लगती है ससुरी। आप हमरी खैनी खाकर देखें।’ उसे भी राजू के साथ सफर में मज़ा आने लगा था। रास्ता आधा तय हो चुका था। एक-डेढ़ घण्टा और लगेगा अनूपपुर आने में। तब तक गपियाते-शपियाते राह कट जाएगी। राजू बड़ी तन्मयता से खैनी मलने लगा। एक चुटकी चिरपिरी खैनी होंठ और दांत के बीच जब फंसी तो मन हरिया गया। इसीलिए खैनी को भाई लोग ‘चैतन्य-चूर्ण’ भी कहते हैं। खिड़की के बाहर अब कुछ नहीं दीख रहा था। शाम कब ढली पता ही नहीं चला। उसने राजू से पूछा--‘ऐसे बाहर-बाहर नौकरी करते हो तब बाल-बच्चे तो साथ नहीं रह पाते होंगे।’ --‘साब, जब तक जांगर है खट लें...बाल-बच्चे बिहार में रहते हैं। मां-बाप के साथ और का बताएं, जब भी घर से लौटो तो छुटका खूब रोता है। कई दिन तक उसका रोना याद आता है। मोबाईल से बतियाते रहते हैं रोज...अभी बोल नहीं पाता बस्स ‘पप्पा...पप्पा’ की रट लगाता रहता है। एक बिटिया है जो स्कूल जाने लगी है। अब गांव में रहेंगे तो पइसा-रूपिया तो वहां है नहीं। पास में हुनर है सो भीख नहीं मांगना पड़ता न चोरी-चकारी करनी पड़ती है। चैदह बरस की उमिर से गांव-घर छोड़े हुए हैं। पहले तो पास के कस्बे में एक वेल्डिंग की दुकान पर काम किया। वहां एक से एक डिजाइन के ग्रिल के काम करने लगा था। उसका मालिक भी बहुत मानता था लेकिन पैसा बहुत कम देता था। न जीते बनता था न मरते। फिर एक ट्रक ड्राइवर बोला कि रांची मंे ट्रक की बाॅडी बनती है वहां अच्छे वेल्डर की बड़ी पूछ है।’ कितनी भी बंदिशें हों फिर भी इस इलाके से गुज़रने वाली ट्रेन में तम्बाखू-गुटका के पाऊच बेचने वाले आ ही जाते हैं। ऐसे ही एक छोकरे के आने से राजू की कहानी में बाधा आई। हुआ ये कि गुटका वाले छोकरे की कर्कश आवाज़ ने यात्रियों का ध्यान बंटाया। उसने सोचा कि एक गुटका-पाऊच खरीद लिया जाए जिसके साथ खैनी मिलाकर खाने से बाकी का रास्ता आसानी से कट जाएगा। वैसे वह पान खाने का शौकीन था लेकिन ट्रेन में कहां पान की शान देखनेे को मिलती? गुटका पाऊच को फाड़ते हुए उसने राजू से कहा--‘खैनी बनाइए तो फिर कुछ मिजाज़ ठीक हो!’ राजू ने भी गुटका फांका और फिर जेब से खैनी की डिबिया निकालकर एक राउण्ड खैनी की तैयारी करने लगा। खैनी से चूने के गर्द कोेे ताली से उड़ाकर उसकी तरफ बढ़ाया। राजू की हथेली से खैनी लेकर गुटका और खैनी का लबाब जब मुंह में बना तो उन दोनों को अच्छा लगा। राजू ने पूछा--‘आगे किस स्टेशन में खाना मिलेगा?’ उसने घड़ी देखी। अनूपपुर पहुंचते-पहुंचते रात के साढ़े आठ बज जाएंगे। वहां तो ट्रेन पांच मिनट ही रूकती है, फिर तो उसके बाद कटनी में ही खाना मिल सकता है लेकिन कटनी तो रात के ग्यारह बज चुके होंगे। सो उसने बताया--‘भाई, मैं जहां उतरूंगा वहां जैसे ही खाने वाला आए खिड़की से पैकेट खरीद लेना, वरना फिर आगे दिक्कत होगी।’ राजू चुपचाप उसका चेहरा ताकने लगा। तभी राजू की जेब से गाने की आवाज़ आई--‘तुम तो ठहरे परदेसी, साथ क्या निभाओगे...!’ अल्ताफ़ राजा की खनकती आवाज़...राजू ने झट जेब से मोबाईल निकाला और खिड़की का शीशा नीचे करते हुए बात करने लगा---‘वालेकुम सलाम अम्मी...!’ उसे अजीब लगा कि नाम राजू और फोन पर ये वालेकुम-सलाम कर रहा है? राजू के चेहरे तनाव के लक्षण आए--‘ठीक है अम्मी, आप मामू को भी साथ ले लेना और रांची ले जाकर सबीना को दिखला ही देना। काहे कि जादा दिन बीमारी को टालना ठीक नहीं होता। सबीना के पास भी पैसे हैं...वैसे तुम एक बार जाकर उसे चेक तो करवा ही दो न!’ उधर से जो भी कहा गया हो, इस बार राजू के चेहरे पर मुस्कान खिल गई--‘हां...हां...पप्पा नहीं बे अब्बू....अब्बू...!’ फिर थोड़ी देर बात सुनकर उसने कहा--‘अल्ला-हाफिज़ अम्मी।’ राजू के पास स्मार्ट फोन था, सस्ता वाला सेट था लेकिन टच-स्क्रीन...उसे खुद पर तरस आया कि इतना वेतन होते हुए भी आज तक उसने अपने लिए स्मार्ट-फोन नहीं खरीदा। राजू उसकी तरफ मुखातिब हुआ। --‘कित्ता सिखाओ उसे साब, वो हमको पप्पा ही बोलेगा...अब्बू नहीं।’ राजू के चेहरे को गौर से देखने लगा वह....कहीं से भी नहीं लगता कि ये राजू कोई मुसलमान युवक है। चेहरा-मोहरा, पहनावा, बोल-चाल कहीं से भी तय नहीं होता कि राजू मुसलमान है और फिर उसने राजू की तरफ हाथ बढ़ाते हुए कहा--‘अस्सलाम वालेकुम भाई...मेरा नाम सुल्तान अहमद है....!’ राजू ने सलाम का जवाब देते हुए कहा---‘अरे वाह....मेरा नाम शाकिर है, शाकिर अंसारी लेकिन जब से काम के चक्कर में घर से बाहर निकला मेरा पुकारू नाम ही मेरी पहचान बन गया।’ फिर उसने फुसफुसाते हुए कहा--‘इस राजू नाम के कारण परदेस में कहीं कोई परेशानी नहीं उठानी पड़ती। काम का हुनर ही हमारी पहचान बन गया है साब.....लोग मेरे काम के कारण पहचानते हैं और अल्लाह का करम है कि मेरे जैसे वेल्डर बहुत कम हैं...बहुत रिस्क लेता हूं साब....बचपन से ही। तभी तो आज इज्जतदार ढंग से रोजी-रोटी चल रही है। फिजूलखर्च एकदम नहीं हूं, पाई-पाई जोड़कर गांव भेजता हूं ताकि अम्मी, बीवी सबीना और दोनों बच्चों को कोई तकलीफ न हो साब...अल्लाह से दुआ करते रहता हूं कि हाथ-पैर और हुनर सलामत रहे...बस्स...!’ सुल्तान अहमद बड़े गौर से राजू उर्फ शाकिर को देखने लगा। राजू शायद उनके सवालों को भांप गया था--‘साब, अब अगर हम दाढ़ी रखने लगें तो हो सकता है कि जन्नत के हक़दारों में नाम हो जाए लेकिन इस दुनियावी ज़रूरत के मुताबिक अइसई रहना ठीक रहता है। इधर-उधर घूमकर काम की तलाश करनी पड़ती है...कभी गुजरात तो कभी हरियाणा, राजस्थान तक काम मिलता रहता है। हुनर ही ऐसा है और ऐसे में दाढ़ी रखकर काहे मुसीबत मोल लें। अरे...पांच वक्त की नमाज़ को पाबंदी से पढ़ नहीं पाते फिर ये दाढ़ी का दिखावा क्यों? हां, एक बात है साब, जिन बातों की धरम में मनाही है उसे कभी नहीं करता हूं...अल्ला कसम, मैंने कभी दारू नहीं पी, जि़ना नहीं किया और अपने काम में सौ पइसा ईमानदार हूं। अल्ला-ताला को छोड़ और किसी दर पे सिर नहीं झुकाता हूं। यही तो ईमान है...है कि नहीं साब...आप भी तो देखिए न किसी तरफ से मुसलमान नहीं दिखते हैं। आम लोगों की तरह तो दिखते हैं। दाढ़ी-टोपी के न रहने से और दुसरे सवालों से निजात मिलती है और इज्ज़त से दो जून की रोटी मिलती है साब!’ राजू ने सुल्तान अहमद को इस तरह कहा तो उसे लगा कि ठीक ही कह रहा है ये...भले से कम पढ़ा-लिखा है लेकिन ज़माने को जानता-समझता है। तभी तो जो लोग नहीं जानते वह उसे अपनी ही तरह का समझते हैं। इससे कई बार बहस-मुबाहसों में मुस्लिम-विरोधी चर्चा उसकी मौजूदगी में भी चलती रहती है। वह बड़ी तल्लीनता से उन बहसों को सुनता है। क्या हुआ कि सारी दुनिया ही मुस्लिम-विरोधी है। सुल्तान अहमद के बड़े भाई तब्लीगी-जमात में आते-जाते हैं, बड़े पुरातनपंथी विचार से लदे-फंदे रहते हैं. उनका गेट-अप भी तो एक परंपरावादी मुसलमान जैसा है, जिससे आए दिन उनका पंगा लोगों से होता रहता है...दफ्तर में पीठ पीछे उन्हें ‘लादेन’ कहा जाता है ये बात वह खुद बताया करते हैं. क्या इस्लाम धर्म का पालन बिना दाढ़ी-टोपी के करने की मनाही है? सुलतान अहमद अक्सर इन सवालों से दो-चार होते हैं. क्या किसी तरह के ड्रेस-कोड की वकालत सारी दुनिया के मुसलमानों के लिए किसी किताब में दर्ज है? सुल्तान अहमद को अपनी बीवी की भी याद हो आई कि जब वह अकेले अपने मायके लखनऊ जाती है तब ट्रेन में सफर के दौरान सिंदूर लगाती है और गले में मंगलसूत्र भी पहन लेती है। इससे उन्हें कोई कठिनाई नहीं होती। उनकी बीवी कहती हैं कि इस तरह सफ़र करने में दूसरी औरतें अच्छी तरह घुल-मिल जाती हैं, जबकि वे बातचीत के बाद जान जाती हैं कि वह मुसलमान है लेकिन पहनावे की एकरूपता के कारण दूरियां नहीं रहतीं. बहनापा कायम हो जाता है और लम्बी सफ़र में तो एक-दूसरे के समाज की कई बातों, रस्मो-रिवाजों पर भी जमकर चर्चा होती है. थोडा बहुत का अंतर होता है वर्ना लगभग एक सी सामाजिक संरचना होती है दोनों समाजों की. सुल्तान अहमद, राजू को समझाने के लिए जैसे खुद को समझा रहा था---“ये सब मुल्ला-मौलवियों का किया धरा है राजू भाई..इनकी मजबूरी है कि इन्हें मस्जिदें और मदरसे चालू रखने हैं..अब आप ही बताओ कि मदरसा में एक बच्चा तीन-चार साल में कुरआन को अरबी में पढना सीखता है...हिज्जे कर-करके वो अरबी पढ़ता है...एक मुस्लमान बच्चा स्कूलों में फिर हिंदी, अंग्रेजी और संस्कृत पढता है लेकिन कितने कम समय में वह हिंदी, अंग्रेजी या संस्कृत के वाक्य बनाना सीख जाता है, लेकिन कुरआन की आयतें रटने के अलावा क्या एक मदरसे से निकला लडका अरबी भाषा में एक भी वाक्य बनाना या शब्दों के अर्थ वगैरा सीख पाता है? इसका कारण ये है कि अधिकाँश मुल्ला-मौलवी खुद अरबी के ग्रामर से अनजान रहते हैं. जिसे वे खुद नहीं जानते उसे वे बच्चों को कैसे पढ़ा पाएंगे. बस, उनका ध्यान इस बात पर रहता है कि बच्चा कुरआन की तिलावत (पाठ) करे...और अपनी धार्मिक ज़रूरतों के लिए इन मुल्ला-मौलवियों के फतवे या समाधान पर निर्भर रहे...!” सुल्तान अहमद के साथ यही दिक्कत है. वह जब देखो तब दकियानूसी के खिलाफ बिगुल बजाने के लिए तैयार हो जाता है. इसी आदत के कारण देवबंदी और बरेलवी दोनों प्रजाति के मुसलमान उसका बायकाट करते हैं. वह अपने स्तर पर धर्म और धार्मिक मामलों के बारे में जानकारी हासिल करता है. किताबें हों या इन्टरनेट के ज़रिये अपनी धार्मिक जिज्ञासा शांत करता है. धार्मिक मसलों को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में तौलता है तब चीजों पर यकीन करता है....उसने इसीलिए राजू को बताया---“भाई, पैगम्बर ने भी कहा है कि दीन या इल्म सीखने के लिए चीन भी जाना हो तो जाओ..इसका मतलब क्या है कि हर मुसलमान खुद धर्म के बारे में जिज्ञासा करे और धार्मिक किताबों और बुजुर्गों से अपनी शंका का समाधान करे.” राजू बोला---“ऐसे लोगों को तो हमारे गाँव में ‘वहाबी’ कहते हैं साब...कहीं आप ‘वहाबी’ तो नहीं...?” सुल्तान अहमद हंस पड़े—“यही वजह है राजू भाई कि मुसलमान आज पिछड़े हुए हैं. वरना भारत देश में बिना कट्टरपंथी सोच के मिलजुलकर रहने की बात करना और धर्म के मर्म को खुद जानना क्या ‘वहाबियत’ की निशानी है...अब आप ही बताओ कि हम कितना चंदा करके मस्जिदें बनाते हैं लेकिन जुम्मा की नमाज़ के अलावा उन मस्जिदों में कितने नमाज़ी पहुँचते हैं? फिर इतनी मस्जिदें या मदरसे बनवाने की क्या ज़रूरत है....ठीक है बनवा लो मस्जिदें-मदरसे लेकिन ये जो अयोध्या में राम-मंदिर का मसला है तो बताओ उसके लिए इस तरह अड़े रहने की क्या ज़रूरत है? अरे भाई, मुसलामानों को तो खुद बड़ी अकीदत के साथ कोर्ट-कचहरी के भटकावे छोड़कर आगे बढ़कर भव्य-मंदिर निर्माण की पेशकश करनी चाहिए..आखिर हम सब इस मुल्क के वाशिंदे हैं और अगर अपना ही भाई जिद पर अड़ा है तो समझदारी यही कहती है कि बड़प्पन दिखलाकर अपने भाइयों का दिल जीता जाए...इसमें बड़ा सवाब है या फिर कठमुल्लई करने में...?” राजू अवाक सा सुल्तान अहमद का एकालाप सुन रहा था. राजू ने कहा—“हम खुद अपने गाँव में हर साल दुर्गा-पूजा में खुबसूरत ढंग से पंडाल सजाते हैं साब, भले से दाढ़ी-टोपी वाले गुस्सा करते हैं लेकिन कितना अच्छा लगता है कि वे लोग कितनी श्रद्धा से पूजा करते हैं और मुहर्रम के ताजिये में उनकी दर्जनों मन्नत-वाली ताजिया कर्बला में सिराई जाती हैं. मेरे कितने हिन्दू भाई हैं जो ख्वाजा गरीब नवाज़ के दर पर हाजिरी देने जाते हैं...आप ठीक कहते हैं साब..ये सब सियासत है जो हमें लड़ाती है वरना रोज़ी रोज़गार का संकट तो हिन्दू-मुसलमान सबके लिए बराबर है...हाँ, कठमुल्ला बनने से अच्छा है कि इंसान हुनरमंद बने और अपने मियां लोगों में तो गज़ब की हुनरमंदी है...!” सुल्तान अहमद ने समर्थन किया---“इल्म की बात हो, कला की बात हो, फिल्म की बात हो या फिर गवैया-बजैया की बात हो...मुसलमान अपने हुनर के कारण काफी इज्ज़त पा रहे हैं देश में...मुसलमानों की दशा को बिगाड़ रहे हैं भाई तो दहशतगर्द लोग और ये दकियानूस मुल्ला-मौलवी...!” अंधियारे को चीरती जा रही थी ट्रेन तभी उसे खिड़की से रौशनी की जगमग दिखी यानी अब अनूपपुर आने वाला है। सुल्तान अहमद ने राजू उर्फ शाकिर से कहा--‘अब हमारी मंजिल तो आने वाली है, शटल मिल गई तो घर ग्यारह बजे रात तक घर पहुंच जाऊंगा..!’ राजू मुस्कुराया--‘हमारी किस्मत में तो परदेस ही लिक्खा है साब...घर में हम कम ही रह पाए हैं। एक बार एक सेठ के वर्कशाप में गैस-कटर से काम कर रहा था कि पाईप लीक हो गई और जैसे अचानक आग लग गई। उस हादसे में कटर पकड़े मेरा दाहिना हाथ झुलस गया था। मैं गांव चला गया। उस कमीने सेठ दो महीने में एक बार भी मेरा हाल-चाल नहीं लिया न फोन ही किया। इस बीच सारा कमाया धन खतम हो गया। जैसे ही हाथ ठीक हुआ मैं इस कम्पनी में आ गया। इसका सेठ जात का कलार है लेकिन है हुनर का कदर करने वाला। देखिए न अभी मुझे बीकानेर भेजने से पहले अलग से पांच सौ रूपिया दिया कि रास्ते में अच्छे से खाते-पीते जाना। वहां पहुंचकर मुझे एक आदमी से बात करनी है साब...वो आदमी मुझे आगे साईट के बारे में बताएगा और वहां मेरे रहने-खाने का जुगाड़ वही आदमी करेगा।’ तब तक अनूपपुर स्टेशन आ गया। ट्रेन की गति कम हुई और उसने बैग पीठ के हवाले करते हुए राजू उर्फ शाकिर से हाथ मिलाया। राजू के हाथ में परिचित होने की आंच थी। ट्रेन रूकी तो वह भीड़ के साथ प्लेटफार्म पर उतरा। घोषणा हो रही थी कि शटल के आने का समय हो गया है जो प्लेटफार्म नम्बर एक पर आने वाली है। एक्सप्रेस से उतरे यात्रीगण फुर्ती से एक नम्बर प्लेटफार्म की तरफ शटल पकड़ने भागने लगे...सुल्तान अहमद भी तेज़ कदमों से आगे बढ़ा लेकिन एक वेंडर को पूड़ी-सब्जी का पैकेट बेचते देखा तो उससे एक पैकेट खरीदा और दौड़कर वापिस बोगी में जा चढ़ा। ट्रेन छूटने वाली थी। राजू उर्फ शाकिर अपनी सीट पर बैैठा था और अचानक उसे देख हकबका गया जब सुल्तान अहमद ने लंच-पैकेट उसकी तरफ बढ़ाया--‘खा लेना...अल्लाह ने चाहा तो फिर कभी मुलाकात होगी...!’ इतना कहकर सुल्तान ट्रेन से उतर गया...ट्रेन ने सीटी बजाई...उसने देखा कि खिड़की से राजू उर्फ शाकिर उसे बड़ी कृतज्ञता से देख रहा था.... संपर्क : अनवर सुहैल : टाइप IV-3 आफिसर कालोनी, पो बिजुरी जिला अनुपपुर मप्र ४८४४४० मोबा. ९९०७९७८१०८ sanketpatrika@gmail.com

जहाँगीर आलम

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इ-मेल एचएसजहांगीर 2 एट द जीमेल.कॉम , वाट्सअप 8348166700

12 नवम्बर 2016

जहाँगीर आलम

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लाज़वाब ...

12 नवम्बर 2016

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हिसाब

27 अप्रैल 2016
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होशियार हुआ जाये कि बढ़ रही है अब इनमें आँखें तरेरने की हिम्मत सर उठाने की जुर्रत छनछनाकर झुंझलाने की हिमाकत या पैर पटककर चल देने की प्रयास नहीं है ये कोई छोटा-मोटा अपराध समय रहते किया जाए इलाज कि इतनी ढील का तो है ये नतीजा वरना कहाँ थी मजाल इन नमक-हरामों कीहमारे टुकड़ो

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हज़रत बाबाजी

29 अप्रैल 2016
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कम्पनी के काम से मुझे बिलासपुर जाना था। मेरे फोरमेन खेलावन ने बताया कि यदि आप बाई-रोड जा रहे हैं तो कटघोरा के पास एक स्थान है वहां ज़रूर जाएं। स्थान माने हाइवे से एक किलोमीटर पहले बाई तरफ जो सड़क निकली है, उस पर बस मुश्किल से दो किलोमीटर पर एक मज़ार है। मज़ार से ताल्लुक मुसलमानों की जियारत-गाह होती ह

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ये कौन है...

24 मई 2016
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ये है कौन जो बोल रहा हमारी बात और हम हैं कि खुश हो रहे तोड़ते नहीं मौन जबकि हमें बोलना चाहिए अपनी बात कि हम अपने प्रवक्ता खुद हैं फिर भी रहकर खामोश जोह रहे बाट कि कोई तो बोले हमारी बात कोई तो रक्खे हमारा पक्षये है कौनजिसकी बात सुन रहे हम होकर मौनबिना पलकें झपकाए टकटकी बांधे ताक रहे उसेजैसे हो कोई मसी

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अभी तो मुझे

5 जून 2016
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अभी तो मुझे दौड कर पार करनी है दूरियां अभी तो मुझे कूद कर फलांगना है पहाड़ अभी तो मुझे लपक कर तोडना है आम अभी तो मुझे जाग-जाग कर लिखना है महाकाव्य अभी तो मुझे दुखती लाल हुई आँख से पढनी है सैकड़ों किताबें अभी तो मुझे सूखे पत्तों की तरह लरज़ते दिल से करना है खूब-खूब प्या....र तुम निश्चिन्त रहो मेरे दोस्त

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कोई कभी नहीं जगा सकता

11 नवम्बर 2016
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ये जो प्रदूषण की बात करके हम चिंतित होते हैं तो क्या वाकई हम बढ़ते प्रदूषण के कारण चिंतित होते हैं ये जो महँगाई की बात करके हम चिंतित होते हैं तो क्या वाकई हम कीमतों की मार से चिंतित होते हैं और ऐसी चिंताएं हम तभी क्यों करते हैं जब सबके साथ होते हैं तब ऐसी ही च

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शाकिर उर्फ....

11 नवम्बर 2016
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एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाकर ही वह जनरल-बोगी के अंदर घुस पाया। थोड़ी भी कमी रहती तो बोगी से निकलते यात्री उसे वापस प्लेटफार्म पर ठेल देते। पूरी ईमानदारी से दम लगाने में वह हांफने लगा, लेकिन अभी जंग अधूरी ही है, जब तक बैठने का ठीहा न मिल जाए। बोगी ठसाठस भरी थी। साईड वाली दो सी

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सनूबर : एक

15 नवम्बर 2016
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(धारावाहिक उपन्यास : पहली किश्त)लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ... आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुस के अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबी दिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छोड़ दि

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मेरे दुःख की दवा करे कोई : एक अंश

15 दिसम्बर 2016
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''लड़के बड़े-बड़े रिस्क लेने लग जाते हैं। अकेले कहीं भी, किसी भी समय आ-जा सकते हैं। लेकिन जाने कैसे सलीमा ने जान लिया था कि लड़कों की श्रेष्ठता के पीछे कोई आसमानी-वजह नहीं है, क्योंकि जन्म से ही लड़कों को लड़कियों की तुलना में ज़्यादा प्यार-दुलार, पोषण शिक्षा, उचित देख-भाल, सहू

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कुछ नहीं बदला : सूरजप्रकाश राठौर

6 जनवरी 2017
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हाल ही मेंबोधि प्रकाशन से अनवर सुहैल का कविता संग्रह "कुछ भी नहीं बदला"प्रकाशित हुआ. यह पुस्तक विश्वास के दो दशक श्रृंखला की पांचवी कृति है. इस संग्रह में 86 कविताएं है .सुहैल जी ने इस संग्रह को फेसबुक के कविता प्रेमी मित्रों को समर्पित किया है.इसका मूल्य 120 रूपये है. यह

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अंतिम आदमी की पीड़ा : गणेश गनी

6 जनवरी 2017
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पृथ्वी में छह सौ फुट भीतर बन रही कविता रोज ... कुछ भी नहीं बदला कविता संग्रह अनवर सुहैल का है और बोधि प्रकाशन ने इसे कुल्लू में मुझ तक पहुँचाया जिसके लिए मैं आभारी हूँ । यह किताब अनवर जी ने अपने फेसबुक मित्रों को समर्पित की है । कवितायेँ आमजन से जुड़ी होने के साथ साथ वर्तमान की विसंगतियों को भी बेबाक

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