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सनूबर : एक

15 नवम्बर 2016

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(धारावाहिक उपन्यास : पहली किश्त)

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लोग मुझसे अक्सर पूछते हैं कि फिर सनूबर का क्या हुआ... आपने उपन्यास लिखा और उसमें यूनुस को तो भरपूर जीवन दिया. यूनुस के अलावा सारे पात्रों के साथ भी कमोबेश न्याय किया. उनके जीवन संघर्ष को बखूबी दिखाया लेकिन उस खूबसूरत प्यारी सी किशोरी सनूबर के किस्से को अधबीच ही छोड़ दिया. क्या समाज में स्त्री पात्रों का बस इतना ही योगदान है कि कहानी को ट्विस्ट देने के लिए उन्हें प्रकाश में लाया गया फिर जब नायक को आधार मिल गया तो भाग गए नायक के किस्से के साथ. जैसा कि अक्सर फिल्मों में होता है कि अभिनेत्रियों को सजावटी रोल दिया जाता है. अन्य लोगों की जिज्ञासा का तो जवाब मैं दे ही देता लेकिन मेरे एक पचहत्तर वर्षीय प्रशंसक पाठक का जब मुझे एक पोस्ट कार्ड मिला कि बरखुरदार, उपन्यास में आपने जो परोसना चाहा बखूबी जतन से परोसा...लेकिन नायक की उस खिलंदड़ी सी किशोरी प्रेमिका 'सनूबर' को आपने आधे उपन्यास के बाद बिसरा ही दिया. क्या सनूबर फिर नायक के जीवन में नहीं आई और यदि नहीं आई तो फिर इस भरे-पूरे संसार में कहाँ गुम हो गई सनूबर.... मेरी कालेज की मित्र सुरेखा ने भी एक दिन फोन पर याद किया और बताया कि कालेज की लाइब्रेरी में तुम्हारा उपन्यास भी है. मैंने उसे पढ़ा है और क्या खूब लिखा है तुमने. लेकिन यार उस लडकी 'सनूबर' के बारे में और जानने की जिज्ञासा है. वह मासूम सी लडकी 'सनूबर'...तुम तो कथाकार हो, उसके बारे में भी क्यों नही लिखते. तुम्हारे अल्पसंख्यक-विमर्श वाले कथानक तो खूब नाम कमाते हैं, लेकिन क्या तुम उस लडकी के जीवन को सजावटी बनाकर रखे हुए थे या उसका इस ब्रम्हाण्ड में और भी कोई रोल था...क्या नायिकाएं नायकों की सहायक भूमिका ही निभाती रहेंगी..?? मैं इन तमाम सवालों से तंग आ गया हूँ और अब प्रण करता हूँ कि सनूबर की कथा को ज़रूर लिखूंगा...वाकई कथानक में सनूबर की इसके अतिरिक्त कोई भूमिका मैंने क्यों नहीं सोची थी कि वो हाड-मांस की संरचना है...मैंने उसे एक डमी पात्र ही तो बना छोड़ा था. क्या मैं भी हिंदी मसाला फिल्मों वाली पुरुष मानसिकता से ग्रसित नहीं हूँ जिसने बड़ी खूबसूरती से एक अल्हड पात्र को आकार दिया और फिर अचानक उसे छोड़ कर पुरुष पात्र को गढने, संवारने के श्रम लगा दिया. मुझे उस सनूबर को खोजना होगा...वो अब कहाँ है, किस हाल में है...क्या अब भी वो एक पूरक इकाई ही है या उसने कोई सवतंत्र इमेज बनाई है ?


तब पंद्रह वर्षीय सनूबर कहाँ जानती थी कि उसके माँ-बाप उसे जमाल साहब के सामने एक उत्पाद की तरह प्रस्तुत कर रहे हैं. हाँ, उत्पाद ही तो थी सनूबर...विवाह-बाज़ार की एक आवश्यक उत्पाद...एक ऐसा उत्पाद जिसका मूल्य कमसिनी में ही अधिकतम रहता है...जैसे-जैसे लडकी की उम्र बढती जाती है उसकी कीमत घटती जाती है. सनूबर की अम्मी के सामने अपने कई बच्चों की ज़िन्दगी का सवाल था. सनूबर उनकी बड़ी संतान है...गरीबी में पढाई-लिखाई कराना भी एक जोखिम का काम है. कौन रिस्क लेगा. जमाना ख़राब है कितना..ज्यादा पढ़ लेने के बाद बिरादरी में वैसे पढ़े-लिखे लडके भी तो नहीं मिलेंगे? चील-गिद्धों के संसार में नन्ही सी मासूम सनूबर को कहीं कुछ हो-हुआ गया तो कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे. फिर उसके बाद और भी तो बच्चे हैं. एक-एक करके पीछा छुडाना चाह रही थीं सनूबर की अम्मी. सनूबर की अम्मी अक्सर कहा करतीं---“ जैसे भिन्डी-तुरई..चरेर होने के बाद किसी काम की नहीं होती, दुकानदार के लिए या किसी ग्राहक के लिए..कोई मुफत में भी न ले..ऐसे ही लडकियों को चरेर होने से पहले बियाह देना चाहिए...कम उमिर में ही नमक रहता है उसके बाद कितना स्नो-पाउडर लगाओ, हकीकत नहीं छुपती...!” सनूबर की अम्मी जमाल साहब के सामने सनूबर को अकारण डांटती और जमाल साहब का चेहरा निहारती. इस डांटने-डपटने से जमाल साहब का चेहरा मुरझा जाता. जैसे ये डांट सनूबर को न पड़ी हो बल्कि जमाल साहब को पड़ी हो. यानी जमाल साहब उसे मन ही मन चाहने लगे हैं. जमाल साहब का चेहरा पढ़ अम्मी खुश होतीं और सनूबर से चाय बनाने को कहती या शरबत लाने का हुक्म देतीं. कुल मिलाकर जमाल साहब अम्मी की गिरफ्त में आ गये थे. बस एक ही अड़चन थी कि उन दोनों की उम्र में आठ-दस बरस का अंतर था. सनूबर की अम्मी तो आसपास के कई घरों का उदाहरण देतीं जहां पति-पत्नी की उम्र में काफी अंतर है. फिर भी जो राजी-ख़ुशी जीवन गुज़ार रहे हैं. ऐसा नहीं है कि सनूबर यूनुस की दीवानी है....या उसे शादी-बियाह नहीं करवाना है. यूनुस जब तक था, तब तक था....वो गया और फिर लौट के न आया... सुनने में आता कि कोरबा की खुली खदानों में वह काम करता है. बहुत पैसे कमाने लगा है और अपने घरवालों की मदद भी करने लगा है. यूनुस ने अपने खाला-खालू को जैसे भुला ही दिया था ये तो ठीक था लेकिन सनूबर को भूल जाना उसे कैसे गवारा हुआ होगा..वही जाने... सनूबर तो एक लडकी है...लडकी यानी पानी...जिस बर्तन में ढालो वैसा आकार ग्रहण कर लेगी... सनूबर तो एक लडकी है...लडकी यानी पराया धन..जिसे अमानत के तौर पर मायके में रखा जाता है...और एक दिन असली मालिक ढोल-बाजे-आतिशबाजी के साथ आकर उस अमानत को अपने साथ ले जाते हैं... सनूबर इसीलिए ज्यादा मूंड नही खपाती...जो हो रहा है ठीक हो रहा है, जो होगा ठीक ही होगा.... आखिर अपनी माँ की तरह उसका भी कोई घर होगा...कोई पति होगा..कोई नया जीवन होगा... हर लडकी के जीवन में दोराहे आते हैं...ऐसे ही किसी दोराहे पर ज्यादा दिन टिकना उसे भी पसंद नहीं था...क्या मतलब. पढाई-लिखाई का घर में माहौल नहीं है. स्कूल भी कोई ऐसा प्रतिस्पर्धा वाला नहीं कि जो बच्चों को बाहरी दुनिया से जोड़े और आगे की राह दिखलाए. सरकारी स्कूल से ज्यादा उम्मीद क्या रखना. अम्मी-अब्बू वैसे भी लडकी जात को ज्यादा पढाने के पक्षधर नहीं हैं. लोक-लाज का डर और पुराने खयालात...लडकियों को गुलाबी उम्र में सलटाने वाली नीति पर अमल करते हैं..बस जैसे ही कोई ठीक-ठाक रिश्ता जमा नहीं कि लडकी को विदा कर दो...काहे घर में टेंशन बना रहे...हाँ लडकों को अच्छे स्कूल में पढाओ और उनपर शिक्षा में जो भी खर्च करना हो करो... अब वो जमाल साहब के रूप में हो तो क्या कहने...साहब-सुह्बा ठहरे...अफसर कालोनी में मकान है उनका...कितने सारे कमरे हैं...दो लेट्रिन-बाथरूम हैं. बड़ा सा हाल और किचन कितना सुविधाजनक है. सनूबर का क्वार्टर तो दो कमरे का दडबा है. उसी में सात-आठ लोग ठुंसे पड़े रहते हैं. आँगन में बाथरूम के नाम पर एक चार बाई तीन का डब्बा, जिसमे कायदे से हाथ-पैर भी डुलाना मुश्किल. यदि ये शादी हो जाती है तो कम से कम उसे एक बड़ा सा घर मिल जाएगा. घूमने फिरने के लिए कार और इत्मीनान की ज़िन्दगी... इसलिए सनूबर भी अपनी अम्मी के इस षड्यंत्र में शामिल हो गई कि उसकी शादी जमाल साहब से हो ही जाये...

( अनवर सुहैल)

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