आसनसोल (जहाँगीर आलम) :- जिस प्रधानमंत्री का मुद्दा शुरूआती दौर से ही गरीबी और विकास की रही हो, उस प्रधानमंत्री के ऐसे फैसले पर आश्चर्य कैसा? लेकिन सवाल तो उठते थे और उठते रहेंगे. ये बात और है की सरकारे अपने कार्यकाल के दौरान गरीबो और ग्रामीणों की वजाय कार्पोरेट जगत को प्रत्येक वर्ष कई तरह के टेक्स में पांच लाख करोड़ रूपए छुट देते रहे है, जो वर्तमान सरकार में भी लागु है. जबकि दूसरी तरफ रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ,
कृषि जैसे बुनियादी सुविधाओ पर ग्रामीण इलाकों के लिए चार लाख करोड़ रूपए देना सरकार के लिए मुश्किल हो रहा है. तो क्या गरीब सिर्फ वोट बैंक तक ही सिमित है. बात हो रही है देश को कैशलेश बनाने की. यहाँ की जनता को भ्रष्टाचार, काली अर्थव्यवस्था जैसे कुंए से निकालने की. तो बातो का क्या वो तो होते ही रहेगे. बताते चले कि वर्ष 1969 में अमिरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्शन ने ऐसी ही फार्मूला को आजमाया था. निक्शन ने 500, 1000, 10,000 और एक लाख के डालर बंद कर दिए थे. तर्क दिया था की इससे देश में छुपे कालेधन और नकली करेंसी रद्दी में तब्दील हो जाएगी. इस कदम से अमेरिका में बैंकिंग सिस्टम तो काफी मजबूत हुआ लेकिन कालीअर्थव्यवस्था जस की तस रही. यही नहीं आज अमेरिका कालाधन के मामले में दुनिया में शीर्ष स्थान रखता है. जिस तरह से आज प्रधानमंत्री मोदी ने पांच सौ व हजार के नोट बंद करके यह तर्क दिया कि देश को कालाधन से मुक्ति मिलेगी, कैशलेश समाज बनेगा. जिसकी कल्पना भी निराधार है. असली भारत तो गाँवो में बस्ता है जो देश की कुल अवादी का 60 फिसद है. उल्
लेख नीय है कि 20 प्रतिशत इंडिया, 20 हिंदुस्तान और 60 प्रतिशत भारत को मिलकर अपना देश सम्पूर्ण होता है और दिल्ली की सत्ता जो फैसले करती है वो सभी इण्डिया को ध्यान में रखकर करती है. जबकि अभी भी पांच लाख गाँवो में से चार लाख पच्चास हजार गाँवो में बैंकिंग सुविधा है ही नहीं. वही 80 फीसदी अमरीकी कैशलेश पेमेंट का व्यव्हार करते है यानी नगदी लेनदेन न के बराकर है, फिर भी कालीअर्थव्यवस्था बा-दस्तूर जारी है. वही कैशलेश पेमेंट के मामले में जर्मनी 76, ब्रिटेन 89, एवं फ़्रांस 92 प्रतिशत स्थान रखता था. फिर भी ये सभी देश कालेधन या भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हुए. तो कैसे मोदी जी ने यह तर्क दे डाला की इस फैसले से देश में कालेधन पर रोक लगेगा या कालाधन बनना ही बंद हो जायेगा. क्योकि बाकी सभी देश इस फार्मूले को अजमा चुके है और परिणाम भी सभी के सामने है. सवा अरब जनसंख्या वाले भारत जैसे देश में सिर्फ ढाई करोड़ लोग ही क्रेडिट कार्ड का इस्तेमाल करते है. जबकि बाकियों के लिए सुविधा भी मुहैया नहीं करायी गयी है. यदि सभी व्यवस्था दुरुस्त भी किये जाये तो दो वर्ष का समय लग जायेगा. लेकिन सवाल यह भी कि इसके लिए इन्फ्राटकचर कहाँ से आएगा. जिस देश के ग्रामीण मनारेगा जैसे स्कीमो पर पल रहे है. यानी ये कल्पना के परे है कि गरीब और ग्रामीण भारत के सामानान्तर शहरी गरीब और आधुनिक शहरो पर जो खर्च तमाम सत्ता ने किये अगर उतना पैसा गांव के इन्फ्रस्ट्कचर पर होता तो करोडो ग्रामीण काम के लिए शहरों की ओर पलायन करने को मजबूर नहीं होते. करोडो शहरी गरीब रोज के 35 रुपये पर जिन्दगी नहीं गुजरता. कैसे हर दौर में गाव और गरीबो के नाम पर दिल्ली की सत्ता ने देश को बेवकूफ बनाया है. इसे मौजूदा बजट से भी समझा जा सकता है. जहाँ 1.51 करोड रुपये शिक्षा-स्वास्थ जैसे तमाम सोशल सेक्टर के लिये आवंटित किये गए तो वही 5,72,923 करोड रुपये कारपोरेट को टैक्स में छूट दे दी गई. यानी इक्नामी का रास्ता गांव से नहीं बल्कि शहरो से निकला है. यानी जिस
राजनीति क व्यवस्था से जनता का मोह भंग हो रहा था. समाधान के लिये उसी राजनीतिक व्यवस्था की तरफ जाने को मजबूर है. जबकि जनता के पैसे पर सबसे ज्यादा रईसी राजनेता ही करते हैं. देश में कुल 4582 विधायक, जिन्हे औसत प्रतिमाह दो लाख वेतन और भत्ता मिलता है. यानी सालाना करीब ग्यारह सौ करोड. लोकसभा और राज्यसभा मिलाकार कुल 776 सांसदों को हर महीने औसतन पांच लाख रुपये वेतन और भत्ते के तौर पर मिलता है. जो साल के 465 करोड, 360 लाख रुपये होंगे. विधायकों और सांसदों के वेतन भत्ते को मिला दे तो करीब पंद्रह अरब 65 करोड 60 लाख रुपये और इसमें आवास ,
यात्रा भत्ता, इलाज, विदेशी सैर सपाटा शामिल नहीं है. सुरक्षा के लिहाज से हर विधायक को दो सुरक्षाकर्मी और एक सेक्शन हाउस गार्ड यानी 5 पुलिस कर्मी तो कुल 7 सुरक्षाकर्मी एक विधायक के पीछे रहते हैं. हर पुलिस कर्मी को औसतन 25 हजार रुपये मिलते है. यानी कुल 4582 विधायकों पर एक लाख 75 हजार के हिसाब से हर महीने 80 करोड 18 लाख रुपये होते हैं और सालाना 9 अरब 62 करोड 22 लाख रुपये होता है. अगर सांसदों की सुरक्षा में लगे सुरक्षाकर्मियों के खर्च को जोड़ लें तो सांसदों की सुरक्षा में हर वर्ष 164 करोड रुपये खर्च होते हैं. इसके अलवा प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, अन्य मंत्री और कुछ राजनेताओं को जेड प्लस की सुरक्षा मिली होती है, उसके लिये 16 हजार सुरक्षाकर्मियों की तैनाती होती है. जिनपर सालाना खर्चा 776 करोड़ के करीब होता है. यानी कुल 20 अरब का खर्चा चुने हुये नुमाइन्दो की सुरक्षा पर होता है. हर साल चुने हुये नेताओ पर 50 अरब खर्च हो जाता है और इस फेहरिस्त में राज्यपाल, पूर्व नेताओं की पेंशन, पार्टी अध्यक्ष या पार्टी नेता या फिर जिन नेताओं को सरकारें मंत्रियो का दर्जा दे देती है, अगर उन पर खर्च होने वाला देश या कहे जनता का पैसा जोड़ दिया जाये तो करीब 100 अरब रुपया खर्च हो जाता है. यानि पैसे हमारे ही खर्च होते और हमपर ही इनका रौब रहता है. सरकार इसमे कटौती नहीं करेगी बल्कि हमारे ही पैसो को लेने के लिए घंटो य दिनों तक कतार में खड़ा रहना पड़ रहा है, हमारे पैसे से खरीदी गयी लाठियां हमपर ही बरस रही है. तो यह देश की सरकार को तय करना चाहिए की इस परेशानी के हक़दार कौन है? जब जनता सड़को व कतारों में मारी-मारी फिर रही है, जाने जा रही है तो हमारे ही पैसो से संसद भवन की कैंटिंग में मस्त भोजन करके संसद की कुर्सियों में आराम फार्म रहे है. यानी वर्तमान सरकार से जनता ने जो सपने संजोये थे उसपर पानी फिरता दिख रहा है.