जब से सृष्टी सृजित हुई है तबसे ही ताकतवर
और कमजोर के बीच में अंतर रहा है। भारतीय समाज में भी यह अंतर होना स्वाभाविक है।
राजा महाराजाओं के दौर से ही भारतीय समाज बंटने लगा था तथा विदेशिओं ने भारतीय
गरीबों की समस्याओं का समाधान करने के लिए सोने की चिड़िया कहे जाने वाले भारत पर
आक्रमण करके यहां की संपदा को लूटना आरंभ कर दिया। सबसे अंत में बारी आई अंग्रेजों
की। उन्होंने जमकर भारतीय संसाधनो का दोहन किया। इधर-उधऱ यहां-वहां कहीं से भी
मिले बस लूट ही लूट। विदेशी मंचों पर
फिरंगिओं के विरुद्ध जब आवाज उठती थी तो यह कहा जाता था कि भारत में अधिकतर तो
गरीब सपेरे और जादूगर रहते हैं, वे अपना राजकाज नहीं संभाल सकते इसलिए हम उन्हें
सूसंस्कृत कर रहे हैं। भारत अंग्रेजों के चंगुल से स्वतंत्र हुआ तो लगभग सभी
नीतियां गरीबी दूर करने के मकसद से ही बनाई गईं। मगर गरीबी हटाओ का चुनावी नारा
सर्वप्रथम भूतपूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने दिया। जनता को यह नारा
भाया भी। कांग्रेस को गरीब जनता का वोट भी जमकर मिला। जब उन्हीं के सुपुत्र श्री
राजीव गांधी ने देश की बागडोर संभाली तो देखकर दंग रह गए। जितना पैसा गरीबों के
विकास पर खर्च हुआ बताया गया था अगर उसका 15 प्रतिशत भी खर्च हो गया होता तो देश
की गरीबी समाप्त हो गई होती(यह कहना था उनका)। 90 के दशक से जारी आर्थिक सुधारों
और वैश्वीकरण के प्रभावों के कारन संगठित व असंगठित क्षेत्र के गरीब मजदूरों की
कठिनाइयों में वृद्धि होती जा रही है। इंस्पेक्टर राज को समाप्त करने के नाम पर
अमीरों को फायदा पहुंचाया जा रहा है तथा गरीबों का गला घोंटा जा रहा है। अमेरीका
के प्रभावाधीन चलने वाला विश्वबैंक भारत सरकार को मजबूर कर रहा है कि गरीब किसानो
को दिहाड़ीदार बनाकर शहरों की झोंपड़ीनुमा बस्तियों में बसाया जाए ताकि
बहुराष्ट्रीय कंपंनियां आसानी से उनकी जमीनो पर कब्जा जमा सकें। महंगाई बढ़ती है
तो यह दलील दी जाती है कि महंगाई तो पूरे विश्व में बढ़ रही है। सोची समझी रणनीति
के तहत लाभ कमाने के लिए विकासशील देशों को सहायता के नाम पर विकसित देशों की ओर
से थमाया जाने वाला सहायतानुमा झुनझुना विश्व में बढ़ रही महंगाई का प्रमुख कारन
है। इस रणनीति के आगे भारतीय नीतिनिर्धारक नतमस्तक हैं व निजी लाभ की खातिर
भारतीयों को भ्रमित कर रहें हैं। बहाना विकास के लिए तकनीक व निवेश का। नतीजतन
विदेशी कंपंनिओं को यहां तक छूट है कि अब उन्हें भारत में निवेश के एवज में देशी
कंपंनिओं से कलपुर्जे खरीदने की बंदिश नहीं हैं। कंपंनिओं की दलील है कि देशी
कंपंनिओं की ओर से बनाए गए कलपुर्जे उनके मानकों पर सही नहीं उतरते। इसी की आड़
में ई-कॉमर्स कंपनियां भी 30 प्रतिशत देशी खरीद की बंदिश से बाहर हैं। देशभक्ति का
ढिंढोरा पीटने वाले अनेक अंधभक्त सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं। मगर उनकी उंगलियां
देशवासियों तक यह संदेश नहीं पहुंचाना चाहतीं कि अगर भारतीय कलपुर्जे इतने घटिया
हैं तों मंगलयान और बड़े-बड़े सेटेलाईट कैसे तैयार हो रहे हैं व प्रगति के लिहाज
से भारत विश्व के लगभग सभी क्षेत्रों में तीसरे/चौथे/पांचवें से लेकर आठवें/नौवें
स्थान पर काबिज कैसे है। भारत के नीतिनिर्धारक यह दावा भी करते हैं कि भारत एक
युवा देश है तथा यहां श्रमिक भी सस्ते मिलते हैं। इसलिए विदेशी बहुराष्ट्रीय
कंपंनिओं के निवेश की खातिर मजदूर विरोधी नियम लाए जा रहे हैं। ऑक्सफोर्ड
यूनीवर्सिटी की शोध के मुताबिक 47 प्रतिशत नौकरियां ऑटोमेशन के कारन आने वाले 20 वर्षों
में समाप्त होने वाली हैं, कृत्रिम बुद्धिमता नई सीमा लांग सकती है, यूरोप-अमेरीका
की अनेक कंपंनियां रोबोट का सहारा ले रही हैं तथा एशिया में चल रहे अपने कारखाने
बंद करने की तैयारी में हैं, विश्वबैंक के पूर्वानुमान अनुसार मशीनीकरण के कारन
भारत में 69 प्रतिशत नौकरिओं पर खतरा है। उक्त आंकड़े एवं तथ्य ऐसे नीतिनिर्धारकों
की आंखें खोलने के लिए काफी हैं। अगर किसी को लगता है कि तकनीकी क्रांति के इस दौर
में हम अप्रभावित रहेंगे तो यह सरासर गलत है। हालही में लॉरसन एंड टर्बो ने अपने
14000 कामगारों की छंटनी की है और कारन मशीनीकरण ही बताया गया है। अब समय आ गया है
कि भारतीय रणनीतिकार सभी भारतीयों के लिए एक मूल न्यूनतम आय की योजना लेकर आएं।
वर्तमान में चल रही तमाम गरीब कल्याण योजनाएं बंद कर दी जाएं तथा अमीर हो या गरीब
सभी के लिए मूल न्यूनतम आय का निर्धारण हो। भारत डिजीटल मार्ग पर अग्रसर है इसलिए
जरुरतमंदों को तो उनके खातों के माध्यम से मूल न्यूनतम आय का भुगतान कर दिया जाए
और जो संभ्रांत वर्ग है उसकी जरुरत के अवसर पर इस सुविधा का लाभ उसे दिया जाए। मगर
हो इसके उल्ट रहा है। गरीबों के लिए चल रही योजनाओं का हाल निम्नानुसार है : राशन योजना में भ्रष्टाचार।
खाद्य सुरक्षा योजना उसमें भ्रष्टाचार, मनरेगा में भ्रष्टाचार, जनधन योजना नोटबंदी
भ्रष्टाचार का शिकार। गरीब कल्याण के नाम पर 5 रुपए में खाना, स्कूलों में
मध्याह्न भोजन, मुफ्त टीवी, लैपटॉप, कोई मोबाइल बांटता है तो कोई गरीब लड़कियों की
शादी और पढ़ाई का झुनझुना थमाकर अपना उल्लू सीधा कर रहा है। किसी को गरीब के स्वास्थ्य और स्वच्छता की
चिंता है। फलस्वरुप कुछ ऐसे गरीब कल्याण नेता भी हैं जो स्वयं भी गरीब थे, चुनाव
जीतने से पहले दिल्ली आने तक का किराया नहीं था, चुनावी जलसा करने के लिए 2 रुपए
की दरी किराए पर लेने के लिए पैसे नहीं होते थे उनके पास, माँ-बाप लोगों के घरों
में झाड़ूपोचा करने व चाकरी करने को मजबूर थे, घर चलाने के लिए चाय बेचनी पड़ती थी।
चुनाव जीतते ही दिन बहुरे और आगे-पीछे नौकर चाकर व गाड़ियों की कतार, गले में
करोड़ों की माला, गरीबों की गरीबी दूर करने की चिंता में मंच पर ही रोने लगते हैं,
अमीरों के पाँवों में इतना नतमस्तक होकर गरीब कल्याण स्टंट करना पड़ता है कि महंगे
सूट गंधे हो जाते हैं। फलस्वरुप दिन में चार-चार पांच-पांच बार सूट बदली करने
पड़ते है। दूसरी ओर परी लोक के सपनों से भ्रमित भारतीय गरीब इतना ढीठ है कि गरीब
कल्याण में लगे नेताओं के परी लोक जैसे हसीन गरीब कल्याण स्टंटों के बावजूद भी अमीर
होने का नाम नहीं ले रहा। हालत यह है कि पुराने गरीब कल्याण स्टंटबाज थक हारकर नए नए
गरीब कल्याण स्टंटबाजों को तैयार कर रहे हैं। वे भ्रष्टाचार रुपी मेहनत करते करते इतने
थक जाते हैं कि नए गरीब कल्याण स्टंटबाजों को मौका देने को मजबूर है। विभिन्न परी
लोक के गरीब कल्याण स्टंटबाज नेताओं की व्यथा नीचे दिए गए जोक से भी झलकती
है।
एक गरीब कल्याण स्टंटबाज – 12 गरीबों पर दूध के
छींटे मार रहा था।
पत्नी -- यह क्या कर रहे हो।
गरीब कल्याण स्टंटबाट -- इनकी सेहत बना रहा हूं।
पत्नी -- सेहत तो दूध पीने से बनेगी।
गरीब कल्याण स्टंटबाज --100 ग्राम से तो छींटे ही
पड़ेंगे न।