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पुलिस की लाठी को ताकत कौन दे रहा है ?

13 दिसम्बर 2016

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पुलिस की लाठी की ताकत गरीब के शरीर पर ही दिखती है. उतनी अगर चोर-बदमाशों को ताकत दिखाते तो फिर लोग यह नहीं कहते है कि दरोगा साहेब, गांव में दरोगा और शहर में मोर बने फिरते है. आप सोंच रहे हो कि मैं भागलपुर वाले बर्बरता को देखकर बोल रहा हूं, तो फिर आप ही बताओ क्या इससे पहले गरीब लोगों की पुलिस वाले धुनाई नहीं किए हैं. क्या हुआ, सोंच में पड़ गए ना. खैर मैं कोई पुलिस-प्रशासन का विरोध नहीं कर रहा हूं. क्या पता कल को मेरे ऊपर भी धबा-धब गिरने लगे क्योंकि मैं भी कोई ऊपर वाले घराने का नहीं हूं. मेरा घर भी किसी गली-गांव में है. पर इसका मतलब यह भी नहीं की लाठी के डर से हक की बात करना छोड़ दूंगा. लाठी आज से नहीं हम गरीब तो आजादी के पहले से खाते आ रहे हैं क्योकि हमें जमीर और जमीन बेंचना नहीं आता है. इसलिए यह तपता शरीर ठूठ बन गया है, पर ऐसा नहीं है कि हमें दर्द नहीं होता है. दर्द होता है ना इस कठोर मन को जब हम अपने आंखों के सामने अपने पड़ोसी को शोषित होते देखते है. जब हद हो जाती है तो आवाज उठाते हैं और लाठी खाते है क्योंकि सरकार के घर में तो हमारे लिए अकाल पड़ा हुआ है. जब सुनते है कि सरकार के घर में अकाल पड़ा है तो दर्द होता है पर जब सुनते है कि बड़े-बड़े नेताजी के घर में तो अनाज सड़ रहा है तो फिर आवाज उठाते है और खा कर लाठी चुप हो जाते है. जब सुनते है की सरकार घाटे में जा रही है तो अपने दर्द को दबा लेते है, पर जब देखते है कि नेता जी और माल्या जैसे करोड़ो लेकर भाग गए तो आवाज उठाते है और पुलिस की लाठी खा कर चुप हो जाते है. चोर-बदमाश खुलेआम क्राइम कर रहे है. खुलेआम आम जनता किसी क्रिमीनल के गोली की शिकार हो जाती है. अरे, पुलिस वालो को भी भाई लोग ठोक कर चले जाते है. उस वक्त तो पुलिस वाले गोली मारने और एक्शन लेने का आर्डर लेते हैं. क्या उस वक्त पुलिस की मर्दानगी को जपानी तेल का एक्सट्रा पावर नहीं मिलता है. लेकिन जैसे ही गरीब-भूखे अपने हक-अधिकार की बात करते है. देश पर आंतरिक खतरा बढ़ जाता है और पुलिस वाले दे दनादन लाठी ठोकते है. औरत को तो मुर्गी की तरह खुलेआम नोचते है. पर उस वक्त तो न महिला सशक्तिकरण दिखता है और न ही गरीबी बचाओ का नारा कोई नेता लगाता है. लेकिन एक बात बताइए लोकतंत्र के कुर्सी पर बैठे साहेब, इ पुलिस वालों को इतनी ताकत कौन दे देता है ?

रवि कुमार गुप्ता की अन्य किताबें

रवि कुमार

रवि कुमार

इस लेख के लिए मैं आपको कोई पुरस्कार तो नहीं दे सकता लेकिन आपको शाबाशी ज़रूर देता हूँ की आपने इतना खुल के लिखा और बोला है . रवि जी, सब मिली भगत है और ये नारेबाजी और गरीबो की आवाज़ बस नेता तब बनते है जब इनका अपना मतलब होता है , वो सुना होगा आपने हिंदुस्तान - भेडियामसान ... बस यही हाल है आज कल , और पुलिस के ऊपर से तो भरोसा ही उठता जा रहा है

14 दिसम्बर 2016

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बाल-प्रेम बिना आँचल-आँगन का

29 नवम्बर 2016
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14 नवंबर यानि बाल दिवस, माने की बच्चों को प्यार करने का विशेष दिन. बच्चे प्यारे होते हैं इसीलिए तो वह सबसे प्यार भी करते हैं क्योंकि वे किसी से किसी तरह का भेदभाव नहीं करते. बच्चे अजनबी के गोद में जाने से भले ही कतराते हैं लेकिन दूर से देखने पर एक प्यारी सी मुस्कान लिए टूकूर - टूकूर मासूम निगाहों से

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बदलो खुद को ताकि देश बढ़े

29 नवम्बर 2016
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जब गहराई में डूब कर देखा तो खुद को किसी कोने में हतोत्साहित पाया क्योंकि शब्द बाण राष्ट्रीय हित को बस कुरेद रहे हैं. हाँ! यह सच है जिसके मुख पर देखा देशहित की बात और विकास की बात. कोई कह रहा है कि विकास ऐसे होगा तो कोई कहा कि वैसे होगा! फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप पर बस देश को बदलने की बङी - बङी डाय

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संविधान से परे की 'राष्ट्रभक्ति'

30 नवम्बर 2016
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जेल में जाने से कोई अपराधी नहीं हो जाता जबतक न्यायालय उसे दोषी न ठहराए. अपराध सिध्द होने तक हम कथित तौर पर गिरफ्तार अभियुक्तों को चोर, हत्यारा, आतंकवादी या देशद्रोही कहते हैं. विशेष रूप से इन शब्दों का इस्तेमाल कोर्ट और पत्रकारिता में किया जाता है. लेकिन हमारे देश में तो न्यायालय के फैसले से पहले ह

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आम आदमी की किडनी (व्यंग्य)

30 नवम्बर 2016
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वैसे तो सभी अंग शरीर के लिए महत्वपूर्ण होते हैं. लेकिन किडनी को इतना तवज्जो क्यूँ देते हैं हम? शायद इसीलिए कि वह हमें आसानी से मिलती नहीं और मिलती भी है तो इतनी महंगी की सुनकर हार्ट फेल हो जाये! किडनी और कीमती के शब्दों में कोई ज्यादा फर्क नहीं है. किडनी तो इतनी कीमती है कि बङे पैमाने पर इसकी तस्करी

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बङे कमाल का है 'जी' (व्यंग्य)

2 दिसम्बर 2016
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'जी करता है कि जान से मार दूं उस रमुआ को. दो टके का दुकान क्या कर लिया मुझे रे कह कर बुलाता है. अरे! मैं बेरोजगार ही सही पर जात में बङा हूँ उससे. बैठने के लिए न पूछो, चाय के लिए न पूछो लेकिन बोली तो तहज़ीब से बोलनी चाहिए. साला, जात ही उसकी ऐसी है कि बोली कभी नहीं बदलेगी'. स्वदेश सिंह की यह झल्लाहट व

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तिरंगे के आड़ में (कविता)

2 दिसम्बर 2016
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तिरंगे के आड़ में तिरंगे के आगे सर उठाते होऔर भ्र्ष्टाचार में गिर जाते हो जन - गण का गान भी गाते हो और मिथ्या लबों पे लाते हो वीर - शहीदों पर श्रद्धा - सुमन लुटाते हो और दिल में कुस्वार्थ बसाते होलोकतंत्र में सेवा दिखाते हो और जनता से कर चुकवाते हो पर एक तिरंगा और राष्

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'उजाला' के उजाले से गांव और सरकारी दफ्तर दूर

3 दिसम्बर 2016
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'उजाला' एलईडी बल्बों ने गांव से लेकर शहर तक धूम मचा रखा है भले ही उजाला फैलना अभी तक बाकी है. इसके दो मुख्य कारण है. पहला तो यह कि हमारे देश के गांवों में कितने मिनट बिजली रहती है और आती भी है तो सोने के बाद तो भला उस वक्त प्रकाश की क्या जरूरत है. यदि कुछ घंटे बिजली रहती है तो फिर विद्युत ऊर्जा तो ऐ

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पुलिस की लाठी को ताकत कौन दे रहा है ?

13 दिसम्बर 2016
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कैशलेश होने में नुकसान क्या है!

18 दिसम्बर 2016
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भले ही किसी टीवी डीबेट का मुद्दा ‘नेशन वांट्स नोट’ हो पर खबर तो यह है कि अब जेब में पैसा ढ़ोने की कोई जरूरत नहीं है, पॉकेटमारों की छुट्टी. भारत अब कैशलेश हो कर भी धनी बनेगा, सोने की चिड़िया बनने की तैयारी. अब ऑनलाइन पेमेंट करना है, घपलाबाज

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ओड़िशा के चंद्रमणी बने दाना मांझी, नहीं मिली आग, मजबूरी में दफनाया पत्नी का शव | India View

20 दिसम्बर 2016
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इंडिया व्यू के लिए ओड़िशा से रवि कुमार गुप्ता की रिपोर्ट।गांव हो या शहर कहीं भी यह कहने और सुनने को मिल जाता है कि जीवन की आखिरी यात्रा में दुश्मन भी साथ देता है। लेकिन, जब मानवता मर जाए, मानवीय संवेदना शून्य हो जाए। तो यह कहने और सुनने व

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कलमवार से :: एक और दानामांझी: सिंदूर तो दिया,अर्थी न दे पाया चंद्रमणी-

21 दिसम्बर 2016
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एक और दानामांझी: सिंदूर तो दिया,अर्थी न दे पाया चंद्रमणी-एक और दानामांझी: सिंदूर तो दिया,अर्थीन दे पाया चंद्रमणी-‘गरीब को नहीं मिलता/डोली को कंधा/अर्थी कौन उठाता है/जहां मिलता नहीं फायदा/वहां पर मुंह भी नहीं खुलता है/सिंदूर की किमत कम ना हो

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कलमवार से :: जानवरों के प्रति जागरूक हैं, तो फिर इंसानों से इतनी बेरुखी क्यों है, साहेब?-

22 दिसम्बर 2016
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जानवरों के प्रति जागरूक हैं, तो फिर इंसानों से इतनी बेरुखी क्यों है, साहेब?-किसी के दुख में शामिल होने से उसका दर्द दूर नहीं होता है. किसी केअर्थी को कंधा देने से उसके परिवार की कमी दूर नहीं होता है पर हां, विकट घड़ी मेंकिसी को भी सहारा देन

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जवां - ज़ुबाँ के शब्द [कविता सँग्रह ]------: सुंकी घाटी का टूटा दिल-

23 दिसम्बर 2016
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बिन आँखों के भी अश्क निकलते हैंपत्थरों से पुछा तो जवाब आयाहम बिना दिल के भी धङकते हैबिन आँखों के भी अश्क निकलते हैं,समझते हैं चलने वाले समझ करऔर करे भी क्या बुझ करचकाचौंध लाइट मेंभागती भगाती जिन्दगी मेंइंसान

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वाकई गधा गधा है!

25 दिसम्बर 2016
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वाकई गधा, गधा हैं! ( व्यंग्य )-गधे का बोल देना यात्रा के दौरान मंगलमय माना जाता है और यदि कछुआ अंगुलि को पकड़ ले तो गधे की आवाज सुनकर छोङ देता है. ऐसा माना जाता है पता नहीं वास्तविकता क्या है लेकिन गधे की मेहनत की वास्तविकता को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं परंतु कर

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बातें रात की : वो झींगुरों की बातें -

27 दिसम्बर 2016
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रात की कचकच काली अंधेरी और झींगुरो की बिरह गीत, तो ऐसे पल मे तन्हा मन अपनी विरानीयों को दूर करने के लिए कोई ना कोई रास्ता निकाल ही लेता है । तन्हाईयों का रात मे आने का राज तो ना राज ही है, ना ही आवाज ही है । कुछ भी हो परन्तु मेरे लिए तो हमर

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कलमवार से :: लंगोट का ढीलापन बीवी जानकर छुपा लेती हैं पर अपने अंडरमन की नपुंसकता बाजार में काहे बेच रहे हो!

29 दिसम्बर 2016
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हाँ, मेरी नज़र ब्रा के स्ट्रैप पर जा के अटक जाती है, जब ब्रा और पैंटी को टंगा हुआ देखता हूँ तो मेरे आँखों में भी नशा सा छा जाता हैं. जो बची-खुची फीलिंग्स रहती हैं उनको मेरे दोस्त बोल- बोल कर के जगा देते हैं. और कौन नहीं देखता है, जब सामने कोई भी चीज आ जाये तो हम देखते हैं.

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इस साल नोटबंदी बना मज़ाक, आप भी जानिए पर जूता मत मारीयेगा प्लीज

30 दिसम्बर 2016
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साहब, नोटबंदी को लेकर के सब परेशान हैं, मैं भी परेशान क्योंकि मैं ना मोदी, ना राहुल, ना रविश और ना ही खान हूँ. लेकिन पूरी नोटबंदी के मसले में कुछ लोगों ने मजाकिया मशाल भर दिया

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कलमवार से :: डॉक्टर के इंतजार में मरीज का अंतकाल (व्यंग्य )

3 जनवरी 2017
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डॉक्टर के इंतजार में मरीज का अंतकाल (व्यंग्य )प्राथमिक विद्यालय का वो टेंश का वाक्य मुझे आज भी याद है कि 'डाॅक्टर के आने से पहले मरीज मर चुका था ' और मैं भला भूल भी कैसे सकता हूँ ? क्योंकि आज तक डॉक्टरी के चक्कर मे मैने अपना आधा जीवन जो गुजार दिया है और दवाई के लिए तो क

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महिलाओं को ' हिलाओं ' बनाने में भी पुरुषों का हाथ

4 जनवरी 2017
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जी हाँ, यह अब तक का सबसे बड़ा खुलासा है. खुलासा करने वाली कोई महिला नही बल्कि एक लड़का कर रहा है. यह कोई गलत बात नहीं हैं आपने भी तो देखा ही होगा, ये 'हिलाओं' वाला कारनामा और यह

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कलमवार से :: बैंककर्मियों के लिए नोटबंदी बना 'पाइल्स', दर्द किसे बताएं-

6 जनवरी 2017
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भाई नोटबंदी के 50 दिन बीत गए हैं, हाँ भाई उससे भी ज्यादा दिन हो गए हैं पर अभी तक पिछऊटा का घाव बन गया है. यह बात बड़े बिजसनेस को नहीं समझ आएगी काहे की उनके काम तो ऊपर से ही हो जाता है, चाहे वेस्टर्न कमोड की तरह. लाइन में लगाने की और कुछ जर

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इस ठण्ड के लिए आग कब जलाओगी?

8 जनवरी 2017
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हर ठंड के लिए गर्मी जरुरी है. बिना गर्मी के ठण्ड थोड़े ही भागती है, और अगर गर्मी लानी है तो आग लगानी पड़ेगी. ठण्ड का मौसम है तो हर कोई तो आग पर खुद को सेंक रहा होगा, तो कोई आग जलाने की तैयारी कर रहा होगा. भैया, आप यही सोंच रहे हो ना की, ठंड

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कलमवार से: अमेरिकन स्टार का दिल हिंदुस्तानी, 2017 का भारतीय विवेक-

11 जनवरी 2017
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(A Hindu monk,Swami vivekananda has done a great service not only in bringing forward the pure doctrines of Hindu philosophy,but has succeeded in convincing the intelligent and enlightened portion of the American public.Similarly a young ac

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कलमवार से: लोकतांत्रिक लॉलीपॉप,'हम बने तुम बने वोट देने के लिए'-

26 जनवरी 2017
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लेकिन समाज व्याप्त अराजकता, दंगे-फसाद, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार आदि को देखकर तो लगता है कि कोई सही नहीं है, सब के सब गरीबों के टैक्स पर ऐश कर रहे हैं. इतना तो हम जान रहे हैं पर हम जैसे लोग हैं कितने. हर चुनाव में बस वादा और इरादा का नाटक देख रहे हैं. लेकिन फर्क बस इतना दिखता

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