shabd-logo

ग़ज़ल

10 फरवरी 2017

88 बार देखा गया 88

इन बंज़र आँखों में समंदर कल भी था और आज भी है

प्यास से मरना मेरा मुक़द्दर कल भी था और आज भी है


कोई इलाज-ए-ज़ख्म-ए-दिल वो ढूँढ न पाया आज तलक

बेबस का बेबस चारागर कल भी था और आज भी है


उसी राह से कितने मुसाफ़िर मंज़िल तक जा पहुँचे, मगर

उसी जगह पर राह का पत्थर कल भी था और आज भी है


अजल से लेकर आज तलक जाने कितनों की नींदें ठगीं

बदनामी का दाग़ चाँद पर कल भी था और आज भी है


दैर-ओ-हरम, दश्त-ओ-सहरा में मिलता भी कैसे उनको

वो जो बशर के दिल के अंदर कल भी था और आज भी है


वक़्त का मरहम भी "जय" इसको भरने में नाक़ाम रहा

दिल पे निशान-ए-ज़ख्म-ए-नश्तर कल भी था और आज भी है


© जयनित

जयनित कुमार मेहता की अन्य किताबें

11 फरवरी 2017

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए