16 फरवरी, 2017. पाकिस्तान की एक जगह सहवान में १३वीं सदी के महान मुस्लिम सूफ़ी संत लाल शहबाज़ क़लन्दर का मज़ार और उसमें भक्तों का जमावड़ा, अक़ीदत के फूल और चादरें, सूफ़ी क़व्वालियाँ, दिव्य आनंद की 'धमाल'....कि एक धमाका और 70 मरे, 100 से ज़्यादा घायल!!! यह उस दिन की सबसे बड़ी खबर थी और यह एक आतंकी हमला था.....
पाठक भूले न होंगे एक बंजारिन गायिका को जिसका नाम था रेशमा और जो अपने क़बीले के साथ घूमते-घूमते पाकिस्तान चली आयी थी और इसी मज़ार पर बैठ कर इस संत की स्तुति में एक गीत गाया करती थी, ' दमादम मस्त क़लन्दर, अली दम दम दे अंदर, सखी शहबाज़ क़लन्दर, लाल मेरी पत रखियो सदा, झूले लालण हो लाल मेरी. .' पाकिस्तान रेडियो के किन्हीं अधिकारी ने वहाँ रेशम को सुना और रेडियो पर ले आये. फिर तो जैसे जंगल में आग लग गई. है कोई ऐसा सारी दुनिया में जिसने ये भक्तिगीत न गाया-सूना हो या इसकी धुन पर मस्त होकर नाचा न हो !
सूफ़ी पंथ हमारी एक साझा परम्परा है, न जाने कितने सूफी संतों ने इसे परवान चढ़ाया !अजमेर शरीफ में चादरें यहां से भी चढ़ती हैं, वहाँ से भी चढ़ती हैं . हज़रत निज़ामुद्दीन की दरगाह पर, दिल्ली में, अपने पीर की बग़ल में उनके मुर्शिद भी सोये हुए हैं, हज़रत अमीर खुसरौ, जिनके लोकगीतों, क़व्वालियों और सगीत, साहित्य के ख़ज़ानों ने तो भारत-पाकिस्तान ही क्या पूरे विश्व में धूम मचा रक्खी है, वह भी इसी परम्परा में आते हैं, बहरहाल. ....
धमाका हो गया, 70 जानें चली गईं 100 घायलों में से भी कितने बचें, कौन जानें!यह कैसा विरोध, कैसा उन्माद, कैसा राष्ट्रवाद!!! राष्ट्रवाद का उन्माद आज कई देशों पर छाया हुआ है जिसकी आग में न जाने कितने देश झुलस रहे हैं, जल रहे हैं और साझा विरासतों की तो जैसे जान पर ही
बन आई है.
अमीर खुसरौ के पुरखे आए ईरान से, खुद जन्मे उत्तर भारत के एक छोटे से क़स्बे पटियाली में, ज़िन्दगी बीती, दिल्ली के हज़रत निजामद्दीन औलिया के सान्निध्य में और इस साझा विरासत सूफ़ी परम्परा के लिए बसंत ऋतु की छटाओं में रंग कर एक ऐसा गीत लिख गए और उसकी राग बहार में ऐसी धुन भी बनगए जो आज तक बदली ही नहीं गयी बल्कि आज भी इधर हों या उधर, शास्त्रीय संगीत के छात्र जब राग बहार सीखते हैं तो यही गीत उन्हें सिखाया जाता है. गीत है - फूल रही सरसों, सघन बन फूल रही सरसों , अम्बुवा मूले , केसू फूले, कोयल कूकत डार -डार और गोरी करात सिंगार, मलिनिया हरवा ले आयी घर सों , सघन बन फूल रही सरसों.
यही गीत जिस तरह बसंत ऋतु में यहाँ नाचा- गाया जाता है वैसे ही वहाँ भी नाचा-गाया जाता है . विश्वास न होता हो तो देखिए पाकिस्तानी टेलीविज़न की एक प्रस्तुति जो हमने अपने इस लेख के साथ संलग्न की है. गीत के बोलों में कुछ अंतर हो सकता है क्योंकि लोकगीत अपने जन्म
से सदियों तक सारा संसार घुमते हैं. शब्दों में थोड़ा-बहुत. अंतर हो जाता है. तो सुनिये इस रचना को और सोचिये कि कितने क्रूर होंगे वे हाथ और मन जो कट्टरता के नाम पर इस खूबसूरत साझा परंपरा, सूफ़ी परम्परा को मिटाने चले हैं!