उत्तराखंड की लगभग हर विधानसभा सीट पर कांग्रेस और भाजपा में कांटे की टक्कर है. साथ ही बागियों ने छक कर पार्टी की जड़ों को मठ्ठे से तर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. तब ऐसे में भाजपा और कांग्रेस कैसे दावा कर सकती है उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार बनेगी. सबके अपने-अपने तर्क है. जहां भाजपाई मान रहे हैं कि लगभग 40 सीटों के साथ सरकार बनाएगे, वहीं कांग्रेसी सत्ता में वापसी के प्रति आश्वस्त है. तीसरी ओर निर्दलीय के तौर बागी मूंछों पर ताव दे रहे है कि हमारे समर्थन के बिना राष्ट्रीय दल को सत्ता सुख कैसे मिलेगा. गठबंधन की सरकारों का खामियाजा उत्तराखंड की जनता भुगत रही है. 17 वर्ष के उत्तराखंड का राजनीति क इतिहास यही बयां करता है कि कांग्रेस हो या भाजपा दोनों ने राज्य के विकास से ज्यादा ध्यान और पैसा सत्ता में बने रहने के लिए निर्दलियों को ही साधने में लगाया है. इतिहास से सबक न लेते हुए दोनों पार्टियों ने प्रत्याशी चयन में ही गठबंधन सरकार की रूपरेखा बना ली थी. सिटिंग एमएलए के टिकट न कटने के ऐलान के बाद भी टिकट न दिया जाना, जनता के बीच पैठ बनाने वाले प्रत्याशी की जगह पैराशूट प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारना या फिर दूसरी विधानसभा में जबरन भेज देने की बात हो. जब चुनाव जीतने की कवायद से ज्यादा जमीनी नेताओं के पर काटने पर काम किया गया हो तब ऐसे में पूर्ण बहुमत मिलने की बात करना बेमानी ही साबित होता है. एक बार फिर उत्तराखंड के कदम त्रिशंकु विधानसभा की ओर बढ़ते दिख रहे है.