मर्ज क्या मुझको इलाही कैसी है तबियत बता दे,
रूह तक बीमार हूँ तू कुछ ना कुछ मुझको दवा दे।
आजकल अहबाब भी रोते सिरहाने बैठकर के ,
कह रहे बीमार दिल से जाग थोड़ा मुस्कुरा दे।
एक सन्नाटा छुपा है यारों क़ाफ़िर शोर में भी,
घुट रहा है दम मेरा लौ इन चिरागों की बुझा दे।
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तेरा शुकराना मुझे हरगिज अदा करना नहीं है,
बददुआ दे चाहे तू दिल खोलकर दिल से दुआ दे।
मैं मुहब्बत की हंसी फ़ितरत को दिल से जानता हूँ ,
ये वही कमबख़्त आतिश है जो अपना घर जला दे।
ये मेरे एहसासों का क़ब्रिस्तान है आना कभी तुम,
तू आ के मेरी कब्र पर फिर नई चादर चढ़ा दे।
इस इमारत की बुलंदी आपकी पहचान थी कल,
हो गई है खंडहर या तो बना दे या गिरा दे।
ले गईं लहरें बहाकर कश्तियां साहिल हमारा,
नाख़ुदा आकर किनारे से मेरी कश्ती लगा दे।
सच बताता दूँ मैं मुक़द्दर का सिकन्दर तो नहीं हूँ,
वो हुनर आता नहीं जो इस ज़माने को झुका दे।
कल भी फिर से टकराऊंगा इन बहशी चट्टानों से,
तुम मुझे इस दौर में थोड़ा बहुत तो हौंसला दे।
ये परिंदे भी बड़े परबाज़ निकले उड़ गए फिर,
क्यों ना अपनी मंज़िलों को इनके पंखो पर बिठा दें।
आ रही आवाज़ मस्जिद से अज़ानों की बुलंदी,
खोल दे मन का शिवालय प्रेम गंगाजल चढ़ा दे।
मुफ्तखोरों की जमातें दिन-ब-दिन बढ़ती रहेंगी,
आज तू भी आज़माले भूख तू इनकी मिटा दे।
**अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया 'अनुराग'**