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वसंत

7 मार्च 2017

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जीवन घट में कुसुमाकर ने,

रस घोला है फिर चेतन का /

शरमायी सुरमायी कली में,

शोभे आभा नवयौवन का //


डाल डाल पर नवल राग में,

प्रत्यूष पवन का मृदु प्रकम्पन/

लतिका ललना की अठ खेल ी में,

तरु किशोर का नेह निमंत्रण //


पत्र दलों की नुपुर ध्वनि सुन,

वनिता खोले घन केश पाश /

उल्लसित पादप पुंज वसंत में,

नभ में तैरे उर उच्छवास //


मिलिन्द उन्मत्त मकरन्द मिलन मे,

मलयज बयार मदमस्त मदन में/

चतुर चितेरा चंचल चितवन में,

कसके हुक वक्ष-स्पन्दन में//


प्रणय पाग की घुली भंग,

रंजित पराग पुंकेसर रंग/

मुग्ध मदहोश सौन्दर्य सुधा,

रासे प्रकृति पुरुष संग //


पपीहे की प्यासी पुकार में,

चिर संचित अनुराग अनंत है/

सृष्टि का यह चेतन क्षण है,

अलि! झूमो आया वसंत है //


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आ री गोरी, चोरी चोरीमन मोर तेरे संग बसा है.राधा रंगी, श्याम की होरीब्रज में आज सतरंग नशा है.पहले मन रंग, तब तन को रंगऔर रंग ले वो झीनी चुनरिया.‘प्रेम-जोग’ से बीनी जो चुनरउसे ओढ़ फिर सजे सुंदरिया.रहे श्रृंगार चिरंतन चेतनलोचन सुख, सखी लखे चदरिया.अनहद, अनंत में पेंगे भर लेअब न लजा, आजा तु गुजरिया.लोक-ला

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वसंत

7 मार्च 2017
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जीवन घट में कुसुमाकर ने, रस घोला है फिर चेतन का /शरमायी सुरमायी कली में, शोभे आभा नवयौवन का //डाल डाल पर नवल राग में,प्रत्यूष पवन का मृदु प्रकम्पन/लतिका ललना की अठखेली में, तरु किशोर का नेह निमंत्रण //पत्र दलों की नुपुर ध्वनि सुन, वनिता खोले घन केश पाश /उल्लसित पादप पुंज वसंत मे

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प्रेम पीयूष

9 मार्च 2017
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पतित पावन पुण्य सलिला के प्रस्तर मेंचारू चंद्र की चंचल चांदनी की चादर मेंपूनम तेरी पावस स्म्रृति के सागर मेंप्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगता हूँ.अब विरह की घोर तपस मेंप्रेम पीर की शीत तमस मेंबिछुडन की इस कसमकश मेंप्रणय के एक एक तंतु कोबडे जतन से मै बुनता हूँप्रेम के पीयूष के मुक्तक को मैं चुगत

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जुलमी फागुन! पिया न आयो.

11 मार्च 2017
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जुलमी फागुन! पिया न आयो.बाउर बयार, बहक बौराकरतन मन मोर लपटायो.शिथिल शबद, भये भाव मवनसजन नयन घन छायो.मदन बदन में अगन लगायेसनन सनन सिहरायोकंचुकी सुखत नहीं सजनीउर, मकरंद बरसायो .बैरन सखियन, फगुआ गायेबिरहन मन झुलसायो.धधक धधक, जर जियरा धनकेअंग रंग सनकायो.जुलमी फागुन! पिया न आयो.टीस परेम-पीर, चिर चीर

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तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!

16 मार्च 2017
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मीत मिले न मन के मानिकसपने आंसू में बह जाते हैं।जीवन के विरानेपन में,महल ख्वाब के ढह जाते हैं।टीस टीस कर दिल तपता हैभाव बने घाव ,मन में गहरे।तुम क्या जानो, पुरुष जो ठहरे!अंतरिक्ष के सूनेपन मेंचाँद अकेले सो जाता है।विरल वेदना की बदरी मेंलुक लुक छिप छिप खो जाता है।अकुलाता पूनम का सागरउठती गिरती व्याकु

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गांधी और चंपारण ( चंपारण सत्याग्रह शताब्दी, १० अप्रैल २०१७, के अवसर पर )

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वचनामृत

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