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आदर्श स्वयंसेवक पंडित दीनदयाल उपाध्याय

27 अप्रैल 2017

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पं. दीनदयाल उपाध्याय की जन्मशती के अवसर पर एकात्म मानव दर्शन को लेकर अनेक गोष्टियों परिचर्चा ये और प्रकाशन हो रहे हैं। सामन्यतः इन सबमे दर्शन एवं सिद्धांतो की ही चर्चा अधिक होती है। थोडा अधिक चिंतन करने वाले व्यक्तियों ने एकात्म मानव दर्शन पर आधारित नीतियों का कैसे निर्माण किया जाए इस पर सुविचारित मंथन कर कुछ मार्गदर्शन नीतियों का आ लेख भी किया है। जैसे एकात्म मानव दर्शन पर आधारित अर्थनीति, शिक्षानीति, राजनीति आदि-आदि। इसके आगे भी और अधिक व्यवहारिक धरातल पर एकात्म मानव दर्शन का प्रयोग किया जा सकता है। वास्तव में एकात्म मानव दर्शन का सही उद्देश्य है। अपने परिवार को, व्यापार को, संस्थान को विद्यालय, महाविद्यालय आदि को कल कारखानों, बैक आदि से लेकर सरकार तक सभी स्तरों पर एकात्म मानव दर्शन का व्यवहारिक प्रयोग संभव है। इस दृष्टि में कुछ बिन्दु नीचे सूची बद्ध करने का प्रयत्न किया है। यह सूची ना तो पूर्ण है, न ही सटीक। परिवर्तन, रूपांतरण एवं सूची में और बिन्दु जोडने की पूर्ण संभवना है। 1. आत्मीयता से एकात्मता (Integrated approach through empathy) - akmहर सामूहिक इकाई फिर चाहे वह परिवार हो या कार्य चमू (Working Team) जैसे विद्यालय के सभी अध्यापक एक एकात्म ईकाई के रूप में कार्य करें यह उद्देश्य प्राप्ति हेतु अनिवार्य है। यह जैविक एकात्मता आत्मीयता से ही संभव है। एकात्म मानव दर्शन में सब अपने ही है कोई दूसरा है ही नही। आत्मीयता का वातावरण बनाने से कार्य स्थल पर भी एकात्म चमूत्व (Team Spirit) प्रकट होता है। 2. उदात्तध्येय (Noble Mission Statement) - प्रत्येक कार्य का अधिष्ठान कियी उदात्त विचार से प्रेरित होने पर ही सभी को उस आदर्श की ओर बढने की प्रेरना प्राप्त होती है। गुरूकुल रीती सदा चला आई प्राण जाई पर वचन न जाई - यह परिवार का ध्येय वाक्य बना। अतः व्यवहार उससे संचालित हुआ। व्यापारिक संस्थान हो या शि क्षा संस्थान या षासन सबको अपना ध्येय उदात्त विचारों के आधार पर सुस्पष्ट परिभाषीत करना होगा। सामान्यतः व्यापार का उद्देश्य लाभ कमाना माना जाता है किंतु यथार्थ में जिस वस्तु अथवा सेवा का व्यापार किया जा रहा है उसको सर्वोत्तम गुणवत्ता के स्तर पर न किया जाए तो, वह व्यापार स्थायी रूप से लाभकारी नही हो सकता अतः व्यापारिक संस्थान का उदात्त ध्येय अपने विनिमय में सर्वोच्च गुणवत्ता एवं पारदार्शीता हो सकता है। यह उदाहरण के लिए किया गया सामान्यीकरण है। वास्तव में प्रत्येक पेन्शन को अपनी विशिष्ट चिती के अनुरूप उदात्त ध्येय स्पष्ट रूप से शब्दबद्ध करना चाहिये। youth3. सहशासन से सुशासन (Participatory Governance) - परिवार हो या संस्था या सरकार सभी को सुव्यवस्थित ढंग से संचालित किया जाना अपेक्षित है। किसी भी सामूहिक ईकाई में स्वभावतः श्रेणी (Hirerarchy) का निर्माण होता है। ऐसे में प्रशासकीय व्यवस्थाओं का निर्माण भी होना स्वाभाविक ही है। किंतु निर्णय प्रक्रिया में सबका सहभाग सुनिश्चित करने से प्रशासन के स्थान पर सुशासन का निर्माण किया जा सकता है। केवल संस्था अथवा सरकार में कार्यरत अधिकारी, कर्मचारी ही नही अपितु लाभार्थी जैसे व्यापारिक संस्थान के ग्राहक, विद्यालय के छात्र और सरकार के मामले मे तो सभी नागरिक इन्हे भी शासन में सहभागिता का अवसर प्रदान करने से सर्वत्र अपनत्व का निर्माण होता है। इस हेतु हर स्तर पर सुसंवाद की सरल व्यवस्था का निर्माण किया जाना चाहिये। वर्तमान युग में अनेक प्रकार के संचार माध्यम इस कार्य में उपलब्ध है। 4. अंत्योदय (सबका विकास) Devlopment of all - जब अंतिम व्यक्ति के विकास की बात की जाती है तो उसका अर्थ केवल वंचित विकास की बात नही है हर स्तर पर पंक्ति के प्रत्येक व्यक्ति को सर्वांगीण विकास की आवश्यकता होती है। अतः अंत्योदय का अर्थ सबको विकास के समुचित अवसर प्रदान करने वाले वातावरण और व्यवस्था का निर्माण करना है। यह जिस प्रकार से अपने सभी बच्चों को उनकी आवश्यकता के अनुसार पोषण, रक्षण और ताडन (डाँटना) भी करती है। उसी प्रकार का वातावरण संस्थान, समाज और सरकार में भी निर्माण किया जा सकता है। साथ ही सभी घटक भी याने परिवार के उदाहरण में भाई भी ईकाईयों के विकास में सहयोग, प्रेरणा, मार्गदर्शन जहाँ जो आवश्यक हो प्रदान करते रहें। 5. सतत गुणवत्ता विकास (Continuous Excellence) - किbirdsसी भी व्यक्ति समूह या ईकाई में यदि सतत उन्नयन का प्रयत्न न हो तो स्थिरता और जडता आ जाती है। जीवन का क्रम फिसलन भरी फिसल रही पर उपर चढने का प्रयास है रूकने से ही पतन निश्चित है। अतः अपने संस्थान में, चमू में सतत स्वयं को और अधिक गुणवत्तापूर्ण विकसित सृजनशील एवं नवोन्मेषशाली (Innovative) बनाए रखने का भाव निर्माण करना होता है। एकात्म मानव दर्शन पर आधारित गुणवत्ता वृद्धि में बाह्य परीक्षण अथवा प्रतियोगिता का आश्रय नही लिया जाता। अंदर से ही अपने आपको सतत बेहतर बनाने की प्रेरणा जगानी होती है। इस हेतु हर स्तर पर नवनवीन एवं उच्चतर चुनौतीयों की प्रस्तुत करना यह इसका मार्ग है। 6. सर्वांगीण उन्नती (Over all progress) – एकात्म मानव दर्शन मनुष्य को केवल भौतिक रूप मे नही देखता अपितु शरीर, मन, बुद्धि एवं आत्मा इन चारों आयामों का विचार करता है। केवल व्यक्ति के स्तर पर ही नही प्रत्येक सामूहिक ईकाई में भी इन चारों के प्रगटन की बात एकात्म मानव दर्शन में की है। इसे व्यवहार में लाने के लिए उन्नती के पैमाने तय करते समय केवल भौतिक आधार पर मूल्यांकन करने के स्थान पर भावनात्मक वातावरण, चुनौतियों का सामना करने की संकल्प षक्ति एवं आत्मीय एकात्मता का मुल्यांकन भी किया जाए। किसी संस्था में अथवा शासन में जो विभाग है, उस विभाग की चमू का मुल्यांकन करते समय सर्वांगीण विकास पर बल देना प्रारंभ करेंगे तो अपने आप ही सारी बाते व्यवस्थित हो जायेगी। 7. योगदान का भाव (Sense of Contribution) - व्यष्टि और समष्टी संबंध एकात्म मानव दर्शन का एक प्रमुख सिद्धांत है। व्यष्टि अर्थात छोटी ईकाई और समष्टी अर्थात बड़ी इकाई जैसे परिवार समष्टी है तो व्यक्ति व्यष्टि है। किंतु समाज समाज समष्टी है तो परिवार व्यष्टि है। इसी प्रकार किसी भी संस्था में पुरी संस्था यही समष्टी है तो उसमें कार्यरत विभिन्न विभाग व्यष्टि है। उन विभागों में जो छोटी छोटी चमूएं है वो उस विभाग की भी व्यष्टि हुई। हर स्तर पर छोटी इकाई और बड़ी इकाई के मध्य संबंध होना पुरे संस्था के और अंन्ततोगत्वा पुरे राष्ट्र के ध्येय के लिए अत्यंत आवष्यक है। व्यक्ति से लेकर सरकार तक सभी एक ध्येय की ओर अग्रसर हो इस हेतु प्रत्येक स्तर पर हर इकाई में योगदान का भाव Sence of Contribution आना आवश्यक है। जैसे व्यक्ति की उन्नती परिवार में योगदान करने से होगी। किसी संस्था में प्रत्येक कार्यकर्ता का अपनी चमू में योगदान, फिर उस विभाग का पूरे संस्थान में योगदान और राष्ट्र का समुची मानवता के अर्थात राष्ट्रों के परिवार के उन्नयन में योगदान इस प्रकार क्रमशः प्रत्येक व्यष्टि का अपने से अगली समष्टी में योगदान का भाव जागृत रहे तो स्वतः ही पुरे समाज का एकात्म एवं समग्र विकास संभव होता है यही सर्वे भवन्तु सुखिना का आदर्श है। 8. मौलिकता का प्रोत्साहन Promoting Originality - चिति की संकल्पना इस एकात्म मानव दर्शन की एक विशिष्टता है। प्रत्येक व्यक्ती और प्रत्येक इकाई की अपनी विशिष्ट अनुभूति होती है। इसे उसकी चिति कहते है। इस चिति अनुरूप ही वह इकाई सर्वोत्तम कार्य करती है। नैसर्गिक इकाई में चिति अपने आप प्रकट होती है। मानव निर्मीत कृत्रिम इकाईयों में अर्थात चमू, सरकार के विभाग कोई, व्यापारिक अथवा शिक्षा संस्थान इनमे चिति का निर्माण ध्यानपूर्वक करना होता है। प्रत्येक व्यष्टि अपनी विशिष्ट चिति के अनुरूप ही समष्टी में योगदान देती है। अतः एक दूसरे को परिपूरक विशिष्टताओं का निर्माण करते हुए, उन्हे प्रोत्साहन देते हुए कार्य करने से एकात्म रूप से विकास संभव है। इस हेतु प्रत्येक को मौलिक रूप से कार्य करने का अवसर प्रदान करना होगा। पूर्व के अनुसार नकल करने से त्रुटी होने की संभावना कम होती है। अतः प्रशासन में कई बार नवीनता को और सृजन को हतोत्साहित किया जाता है। कोई पत्र भी लिखना है, तो ‘पुराना देख के लिख दो’ इस प्रकार का भाव होता है। मौलिकता समाप्त होने से यांत्रिकता आ जाती है। अतः चिती के विकास के लिए मौलिकता से पद्धतीयों का (Processes) का निर्माण किया जाना आवश्यक है। उदा. के लिए Indian Coffee House यह भी अपने आप में किसी और रेस्टरों के समान ही एक उपहार गृह है जहाँ भोजन और नास्ते की व्यवस्था है, किंतु उन्होने अपनी मौलिक विशेषता के आधार पर एक पद्धती का निर्माण किया है। पूरे देश में कही पर भी आप ICH में जायेंगे तो वह मौलिकता और विशेषता आपको स्पष्ट दिखाई देगी। उसी प्रकार सरस्वती विद्यामंदीरों में अपने आप एक मौलिक विषेषता की अभिव्यक्ती हम देखते है। ऐसा होते हुए भी किसी विशिष्ट विद्यामंदीरों में वहाँ के प्रधानाचार्य और अन्य आर्चायों की चिति का प्रगठन भी विशिष्टता से दिखाई देता है। अतः समष्टी के रूप में सरस्वती विद्यामंदिरों की चिति होते हुए भी उसके अंतर्गत प्रधानाचायों, विद्यामंदिरों और आचार्य को अपने चिति के अनुसार मौलिक कार्य करने का स्वातंत्र्य और प्रोत्साहन मिलता रहता है। bharatmata9. विराट राष्ट्र की कार्यशक्ती (Comprehensive National Strength) - राष्ट्र यह नैसर्गिक रूप से सबसे बडी व्यष्टि है। मानवता को राष्ट्रों के परिवार के रूप यदि हम देखें तो इस राष्ट्र परिवारों की समष्टी की राष्ट्र यह व्यष्टि है। प्रत्येक राष्ट्र अपनी चिती के अनुसार इस विश्व परिवार में अपना योगदान देता है। वही उस राष्ट्र की कार्यशक्ती है। एकात्म मानव दर्शन के प्रेरणा स्त्रोत दैशिक शास्त्र में इसे ‘विराट’ कहा है। राष्ट्र की समस्त इकाईया केन्द्र सरकार, राज्य सरकार, उसके विभिन्न विभाग यहाँ तक की निजि संस्थान फिर व शिक्षा के हो, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय हो व्यापारिक संस्थान हो, उद्योग हो, क्रीडा क्षेत्र के विभिन्न संघ हो, कला के क्षेत्र में काम करने वाले कलाकारों से लेकर विभिन्न उत्पादक संस्थाये हो, प्रोडक्षन हाऊस हो। ये सभी मिलकर राष्ट्र की विराट कार्यशक्ती निर्माण करते है, आधुनिक भाषा में इसे Comprehensive National Strength इसमें Soft Power और Hard Power मृदुशक्ती और स्थूलशक्ती दोनो का योगदान है। कला, संस्कृती, परंपराएँ यह सब मृदुशक्ती का अंग है। सैन्यशक्ती, उद्योग, आर्थिक, सामथ्र्य ये सारे स्थूलशक्ती है। (हार्ड पावर) में आते है। प्रत्येक संस्थान अपने-अपने क्षमता अद्वितीयता और कार्य के अनुसार इस विराट को योगदान देता है, सिचिंत करता है। जैसे शरीर के भिन्न-भिन्न अंग शरीर की शक्ति का हिस्सा होते है। उसी प्रकार राष्ट्र में चलने वाली प्रत्येक गतिविधी अंततोगत्वा उस राष्ट्र की शक्ती अथवा कमजोरी (दुर्बलता) का कारण बनती है। यदि इसका भान प्रत्येक इकाई को हो तो राष्ट्र हित में राष्ट्रीय ध्येय की पूर्ती में योगदान करते हुए प्रत्येक व्यक्ती और संस्थान का स्वयं का भी पूर्ण विकास संभव होता है।

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