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मज़दूर की दास्ताँ ...

2 मई 2017

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दिल की कलम से...

----------------------- एक मई, 2017 ------------------- 'मजदूर' ---------

""यूँही लेटा देख रहा था, उजाले के रखवालों को.

रात की चादर पे उल्टा लटके, जागते तारों को.

फिर आँखें बोझिल हुई, कुछ तस्वीरे चमक उठी.

एक सुंदर स्वप्न की कली, पलक पीछे महक उठी.

स्वप्न नहीं, शायद कोई पुरानी, माँ की कहानी थी.

महल था, उसका मैं राजा, मेरी पत्नी रानी थी.

बड़े आँगन मे खेल रहे थे, मेरे जिगर के टुकड़े.

एक हान्थ मे खिलौने, तो दूसरे मे मेवों के टुकड़े.

आस पास नौकर थे, फलों की टोकरियाँ भरी थी.

स्वादिष्ट व्यंजन ों से भारी थालियाँ पास मे धरी थी.

हम चारों के ही चेहरे बहुत उजले लग रहे थे.

दुख, दर्द, ये शब्द तो बहुत धुंधले दिख रहे थे.

तभी एक बच्चे ने खेलने की जिद्द की, चाँद से.

मैं बस उठा, और उतार लिया चाँद एक हान्थ से.

फिर अचानक जाने क्या हुआ, दुनिया हिल रही थी.

आँख खुल गयी और देखा, पत्नी सामने खड़ी थी.

मैं अलसाया सा उठा फिर पत्नी को देख मुस्कुराया.

बगल की चारपाई पे अपने नन्हों को भी सोता पाया.

फिर कच्चे ईंटों से बनी झोपड़ी पे नज़र गयी. एक कोने से,

पंनी वाली छत थी कुछ उधड गयी. फिर देखा कुछ कंकड़ पड़े थे

बच्चों के बिछौने पे. सोचा यही तो उन बेचारों के खजाने थे, खिलौने थे.

फिर मेरी भूखी आँखों को वो सर्द चूल्‍हे खल गये.

उठे और भूखे पेट ही सब काम पर निकल गये.

चलते चलते मुन्ना ने चाँद नहीं, रोटी माँग ली.

नम आँखों से उसे गोद मे लिया, गहरी साँस ली. फिर आसमान देखा,

सोचा कितना मजबूर हूँ मैं. रोज़ कड़ी मेहनत करके भी भूखा,

'मजदूर' हूँ मैं रोज़ जाने दूसरों के कितने नये महल बनाता हूँ.

फिर लौट कर अपनी टूटी झोपड़ी में सो जाता हूँ.

मेरे हान्थ जाने कितने सपनो की नीव बनाते हैं.

और मेरे सपने तो उसी नीव मे कहीं दब जाते हैं.""

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