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काश, मेरी भी माँ होती!

14 मई 2017

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काश, मेरी भी माँ होती! मैं उसे अपनी माँ बुलाता।

प्रेम जताता, प्यार लुटाता,

चरण दबाता, हृदय लगाता,

जब कहती मुझे बेटा अपना, जीवन शायद सफल हो जाता,

काश, मेरी भी माँ होती! मैं उसे अपनी माँ बुलाता।


मैं अनाथ बिन माँ के भटका, किसको अपनी मात् बताता,

जब डर लगता इस दुनियाँ का, किसका दामन मुझे छुपाता।

नींद कभी जो मुझे न आती, लोरी फिर मुझे कौन सुनाता,

मैं भी समझूँ माँ की ममता, गर कोई आँचल मुझे सुलाता।।


पीड़ा या जर ज्वर जब जकड़े, किसको समीप मैं अपने पाता,

बरबस फेरे, माथे मेरे, अब वह हाथ मैं कहाँ से लाता।

माँ के जैसी वह कोमलता, मरहम ज़ख्मों की अग्नि पर,

गर स्पर्श जो माँ का मिलता, दुःख-दरिद्र सबहिं मिट जाता।।


रिश्तों के सब रंग भी देखे, कोई रंग न मुझे है भाता,

तू है भ्रात, तू ही भगिनी माते, तू ही तात, तू भाग्य-विधाता।।

चरण-धूलि जो तेरी पाता, तो मंदिर मैं कभी न जाता,

छू लेता जो पैर तेरे मैं, सकल देवता तुझमें पाता।।


हे ईश्वर! क्या पाप किए थे? जो न मुझे मिली मेरी माता,

मेरी भी गर दुनियाँ होती, तो रब तेरा क्या था जाता,

हूँ देखता जब दुनियाँ में, कितनी ही मैया दिखती हैं,

सब हैं बेबस, सब हैं चाकर, कितनी ही पीड़ा सहती हैं।

दुनियाँ में जितनी जननी हैं, उनको तू ख़ुशहाल बना दे,

पर माँगता तुझसे आखिर, अगले जन्म मुझे माँ से मिला दे।


मिलती जो मुझे माँ एक पल, गीत मेरा अमर हो जाता,

काश, मेरी भी माँ होती! मैं उसे अपनी माँ बुलाता।

एस. कमलवंशी की अन्य किताबें

मिलन ठाकुर

मिलन ठाकुर

काश मेरी भी माँ होती तो आज आपकी इस रचना पर दिन भर मैं रोया न होता। माफ कीजिए मैं अपने आप को कुछ कहने से रोक न पाया। धन्य हैं आप। धन्य है आपकी लेखनी।

15 मई 2017

ध्रुव सिंह  -एकलव्य-

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बहुत ही उम्दा लेखन ! सुन्दर ,आभार

15 मई 2017

ओमप्रकाश क्षत्रिय '' प्रकाश -

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बहुत सुंदर भावयुक्त कविता. बधाई आदरणीय कमलवंशी जी

15 मई 2017

रेणु

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० प्रिय कमल वंशी आपको इस अद्भुत भावों और मातृहीनता की टीस को शब्द देती रचना के लिए बहुत बधाई -- आपकी लेखनी का परवाह अमर हो -- वैरी गुड -- और फिर से सस्नेह शाबाश ! ! !

15 मई 2017

नृपेंद्र कुमार शर्मा

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रचनाकार को नमन। बहुत सुंदर प्रस्तुती

14 मई 2017

प्रवेश मौर्य

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आपकी रचनाएँ इतनी हृदयस्पर्शी होती हैं कि मैं अपने विचार व्यक्त करने से खुद को रोक ही नही पाता हूँ। आपकी रचना की पहली पंक्ति ही "काश, मेरी भी माँ होती! मैं उसे अपनी माँ बुलाता।" नायक के दिल का हाल उजागर कर रही है। यह पंक्ति देखने में साधारण किंतु सैकड़ों वेदनाओं को समेटे हुए है। आज मुझे सच में शब्दनगरी का आभार व्यक्त करते हुए हर्ष हो रहा है कि इस मंच पर आप जैसे संवेदनशील रचनाकार मौजूद हैं। आपका यह गीत अमर रहे। धन्यवाद।

14 मई 2017

सपना अवस्थी

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कितने ही लोगों की माँ नहीं होती। उन सभी का हाल बयां करती है यह कविता भावुक है। भगवान से प्रार्थना करती हूं कि सभी को अपनी मां का प्यार मिले।

14 मई 2017

ऋषभ खंडेलवाल

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हृदय पीड़ा को वर्णित करती अद्भुत रचना। कमल जी आपका यह गीत अमर रहेगा। आदर सहित ऋषभ।

14 मई 2017

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रचनाएँ
मेरी कलम - मेरा कलाम
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"मेरी कलम - मेरा कलाम" एस. कमलवंशी द्वारा रचित कविताओं का संग्रह है।
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अम्मा! दादू बूढ़ा है - एस. कमलवंशी

11 सितम्बर 2016
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ऐ बसंती हवा - एस. कमलवंशी

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ऐ बसंती हवा, मैं तुझे क्या नाम दूँ?पागल कहूँ या वन-ए-बावरी, तुझे क्या पयाम दूँ?ऐ बसंती हवा, मैं तुझे…बड़ी ही चंचल, बड़ी ही संदल, ऋतुराज सुकुमारी तू,शीतलहर जब थम के बैठी, चढ़ती रसिक खुमारी तू,जब देखे तू सूरज लाली, चले चाल मतवाली तू,पूरब के तू द्वार से होकर, शीतल लहर बहाती तू,कुसुमाकर के कुसुम सुहाने, भर

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काश, मेरी भी माँ होती!

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मैं मटमैला माटी सा

4 जून 2017
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मैं मटमैला माटी सा , माटी की मेरी काया,माटी से माटी बना, माटी में ही समाया।समय आया, आकाश समेटे घाटी-माटी पिघलाया,अगन, पवन, पानी में घोलकर, तन यह मेरा बनाया।।जनम हुआ माटी से मेरा, माटी पर ही लिटाया,माटी चखी, माटी ही सखी, माटी में ही नहा

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मोरे पिया बड़े हरजाई रे!

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ओ री सखी तोहे कैसे बताऊँ, मोरे पिया बड़े हरजाई रे,रात लगी मोहे सर्दी, बेदर्दी सो गए ओढ़ रजाई रे।झटकी रजाई, चुटकी बजाई, सुध-बुध तक न आई रे!पकड़ी कलाई, हृदय लगाई, पर खड़ी-खड़ी तरसाई रे!अंगुली दबाई, अंगुली घुमाई, हलचल फिरहुँ न आई रे!टस से मस

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अब इतना दम कहाँ!

2 मई 2017
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दुख गए हैं कंधे मेरे, अपनों का बोझ उठाते, फिर सपनों का बोझ उठाऊं, अब इतना दम कहाँ ! कण कण जोड़कर घरोंदा ये बनाया मैंने, तन-मन मरोड़कर इसको सजाया मैंने। रुक गया, मैं झुक गया, बहनों का बोझ उठाते,

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दर्पण

26 मई 2017
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बोले टूटकर बिखरा दर्पण, कितना किया कितनों को अर्पण, बेरंगों में रंग बिखेरा, जीवन अपना किया समर्पण। देखा जैसा, उसको वैसा, उसका रूप दिखाया, रूप-कुरूप हैं छैल-छवीले, सबको मैंने सिखाया, घर आया, दीवा

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मोरे पिया की चिट्ठी आई है

11 अगस्त 2022
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हट री सखी, न कुछ बोल अभी, सुन तो सही वह टेर भली, कर जोड़ तोसे विनती करूँ, तोहे तनिक देर की मनाही है, तू ठहर यहीं, कहीं जा नहीं, झटपट मैं फिर आ रही यहीं, न चली जाए वह डाक कहीं, मोरे पिया की चिट्ठी आ

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पथिक - एस. कमलवंशी

18 दिसम्बर 2016
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पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे,टेढ़े-मेढ़े जग-जाल में, फिरता कहाँ है सांवरे,कहाँ रही सुबहा तेरी, कहाँ है तेरी साँझ रे!पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे।टिमटिम चादर ओढ़कर, सोया तू पैर पसार रे,जिस स्वप्न में रैना तेरी, क्या होगा वह साकार रे,साकार का आकार भर, तू उठ गया पौ फटने पर,

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सखी री मोरे पिया कौन विरमाये?- एस. कमलवंशी

20 अगस्त 2016
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सखी री मोरे पिया कौन विरमाये? कर कर सबहिं जतन मैं हारी, अँखियन दीप जलाये, सखी री मोरे पिया कौन विरमाये... अब की कह कें बीतीं अरसें, केहिं कों जे लागी बरसें, मो सों कहते संग न छुरियो, आप ही भये पराये, सखी री मोरे पिया कौन विरमाये... गाँव की

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यादों का पागलखाना

19 जनवरी 2019
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जब भी तेरी वफाओं का वह ज़माना याद आता है,सच कहूं तो तेरी यादों का पागलखाना याद आता है।कसमों की जंजीर जहां पर, वादों से बनी दीवारें हैंझूठ किया है खंज़र से तेरे नाम की उन पर दरारें है।टूट चुका सपनों का बिस्तर, अफ़सोसों की चादर हैतकियों को गीला करती अश्क़ों की जहां फुहारें हैं।जलती शमा में कैद वहां, परवान

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आज बहुत रोई पिया जी! - एस. कमलवंशी

13 सितम्बर 2016
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आज बहुत ही रोई पिया जी, आज बहुत ही रोई,जिस्म-फ़रोसी की दुनियाँ में, दूर तलक मैं खोयी।कोई भी हाल न मेरा पूँछे, कोई न पूँछे ठिकाना,जिधर भी जावे मोरी नजरिया, चाहवे सब अज़माना।घूँट घूँट कर ज़हर मैं निगली, देह पथरीली होई,आज बहुत ही रोई पिया मैं, आज बहुत ही रोई।लाख मुसाफ़िर, लाख प्यासे, लाख ठिखाने लाये,लाख त

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भिखारी - एस. कमलवंशी

17 सितम्बर 2016
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मेरी गली में इक भिखारी भीख मांगता है,नंगे पाँव, तपती धूप में,सर्दी-गर्मी, हर रूप में,चंद मुट्ठी पैसों से, घर का पेट पालता है,मेरी गली में इक भिखारी, रोज भीख मांगता है।।टूटे घर में बिखरा जीवन,खाली पेट, और गीला दामन,नींद खुले जब, देखें आखें,मरती त्रिया, भूखा बचपन।बेबसी में, बेकसी में हर बाधा वह लांघता

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दास्तान-ए-कलम (मेरी कलम आज रोई थी)

28 अप्रैल 2017
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मेरी कलम आज फिर रोई थी,तकदीर को कोसती हुई, मंजर-ए-मज़ार सोचती हुई,दफ़न किये दिल में राज़, ख़यालों को नोंचती हुई।जगा दिया उस रूह को जो एक अरसे से सोई थी,मेरे अल्फाज़ मेरी जुबां हैं, मेरी कलम आज रोई थी।।पलकों की इस दवात में अश्कों की स्याही लेकर,वीरान दिल में कैद मेरी यादों

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मित्र का चित्र

20 मई 2017
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सुरमई आँखों को सजाएँ, काज़ल की दो लकीरें,मैंने इनमें बनती देखी कितनी ही तसवीरें,तसवीरों के रंग अनेकों, भांति-भांति मुस्काएं,कुछ सजने लगी दीवारों पर, कुछ बनने लगी तक़दीरें।कुछ में फैला रंग केसरिया, कुछ में उढ़ती चटक चुनरिया,कुछ के रंग सफ़ेद सुहाने, कुछ में नागिन लचक कमरिया

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बचपन - बुढ़ापा (एस. कमलवंशी)

2 अक्टूबर 2016
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बचपन-कचपन, बुढ़ा-पकपन,सरल-सहज, व्यथाएं पचपन,नागर निडर, हियाय खनखनचापर चपल, पिराय तनमन।डग-भर डगर, थकाये आँगन,नटवर नज़र, दुखाए दामन,अल्लड़ मस्त, संभाले जरा-धन,काफिर-कहर, सहारे अनबन।रंग बिरंग, मन फीके सावन,अंग मलंग, लाठी के आवन,ढंग-बेढंग, विराने दरपन,संग-तरंग, विचारे पलछिन।कल-कल किलक, कराहे कण-कण,मादक मदन

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ऐ मेरे दिल की दीवारों

1 मई 2017
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ऐ मेरे दिल की दीवारों, रूप अनूप तुम्हारा करूँ!सजनी के हैं रूप अनेकों, कौन सा रूप तुम्हारा करूँ?क्या श्वेत करूँ, करे शीतल मनवा, उथल पुथल चितचोर बड़ा है,करूँ चाँदनी रजत लेपकर, पूनम का जैसे चाँद खड़ा है।करूँ

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