shabd-logo

वो आखरी साँझ

22 मई 2017

251 बार देखा गया 251
featured image एक मनुष्य के जीवन अंतराल में ऐसा वक्त आ सकता है जब उसे किसी रिश्ते को ना चाहते हुए भी बीच में ही तोड़ना पड़ता है. और फिर वो व्यक्ति उस सफर के कुछ पलों को याद करता है. इस कविता में मैंने वो दृश्य को आपके समक्ष लाने की कोशिश की है. यकीन मानिये हर मिश्रे पर एक दृश्य आपके आँखों के समक्ष होगा.


आज आखरी साँझ है तो, चुप्पियाँ साधे हुए थे

नेकी कम की थी जो अब, बिछड़न को यूँ भोग रहे थे

हाथों में वो हाथ लिए हम, लकीरों से पूछ रहे थे

जब नहीं मिलना था तुमको, फिर क्यूँ ये व्याकरण गढ़ रहे थे...


जो आँखें सदा हँसती थी, आज हँसने से मुकर रहीं है

जिन होंठों ने गीत सुनाये, उन पर चुप्पियों का शाशन है

जिस हृदय को अपना समझे थे, उसका भी सौदा हो चुका है

जिन हाथों को अपना कहते थे, वो भी हमसे छूट चुका है

जिन बाँहों में जन्नत बसती थी, वो भी यूँ तो सिसक रहे थे

नभ के बादल गरज रहे थे, मानो रो कर बरस रहे थे

हाथों में वो हाथ लिए हम, लकीरों से पूछ रहे थे

जब नहीं मिलना था तुमको, फिर क्यूँ ये व्याकरण गढ़ रहे थे...


स्वप्न जो सारे देखे थे हमने, अब वो बिल्कुल बिखर गए हैं

पेड़ पे खिले सारे मंजर तो, फल बनने से पहले टूट गए हैं

अगर इस झील ने प्रश्‍न किया तो, क्या मैं इसको बतलाऊँगा

पत्थर क्यूँ नहीं फेंक रहे तुम, तो क्या उत्तर फिर दे पाऊँगा

अंतर्मन ने विवश किया तो, किसकी आगोश में खुद को सौंपूँगा

स्मरण हुआ कोई श्रृँगार तो फिर, किसके मुखड़े को देखूंगा

हाथों में वो हाथ लिए हम, लकीरों से पूछ रहे थे

जब नहीं मिलना था तुमको, फिर क्यूँ ये व्याकरण गढ़ रहे थे...


चौसर में बिदाई रातों को, तुम सदा ही याद रखना

शोहरतों का तुम सौदा पर, मेरे महक से ना करना

बाकी सब तो ठीक है बस, इस संध्या को मेहफूज़ रखना

हर दिवस को ना कहता हूँ, पर त्योहारों में याद रखना

लिपट कर मेरे सीने से वो, अब सिसकियाँ जो भर रही थी

प्रतीत हुआ मानो अब तो,चुप्पियाँ खुद बोल रही थी

आज आखरी बार सुने वो, आवाज़ जो रोज़ सुना करते थे

थरथराते होंठों से मगर, आज भगवद से लग रहे थे

हाथों में वो हाथ लिए हम, लकीरों से पूछ रहे थे

जब नहीं मिलना था तुमको, फिर क्यूँ ये व्याकरण गढ़ रहे थे..!!!

आलोक अग्रवाल की अन्य किताबें

रेणु

रेणु

आलोक जी बहुत सार्थक बन पड़ी है आपकी ये रचना -- सचमुच किसी रिश्ते की अंतिम शाम ऐसी ही विरहपूर्ण होती होगी -- आप सफल रहे है वह चित्र दिखाने में -- जो बरबस आँखों में सजीव हो कौंध रहा है -- हार्दिक शुभकामना

23 मई 2017

नृपेंद्र कुमार शर्मा

नृपेंद्र कुमार शर्मा

अच्छा लिखा है।

22 मई 2017

1

माँ की याद

19 मई 2017
0
6
2

इस अंजान से शहर में माँ तेरी याद आती तो है...लड़ने के लिए लोग कम नहीं मगर बेहना तेरी याद आती तो है...कितनी भी कर लूँ कोशिश मैं भूलने कि मगर...माँ, मुझे घर की याद आती तो है..... सात समंदर पार भेजकर क्यूँ मुझे निराश किया...ना जाने मैंने ऐसा भी है क्या अपराध किया...गुसत

2

बेटी - कुल का दीपक

20 मई 2017
0
3
2

लगाकर मेहेंदी हाँथों में, वो पंछी उड़ गईइस द्वार से उस द्वार तक, वो रोती चली गई बाप सिसकता रहा, गले से लगाता रहा माँ को अकेला छोड़, वो पिया के घर चली गई भाई आज हार सा गया, आँसू बहाने लगा वो मुसाफ़िर, अपनी मंजिल की ओर चली गई घर सूना हुआ,आँगन शांत हो गया उसके पायल

3

वो आखरी साँझ

22 मई 2017
0
2
2

एक मनुष्य के जीवन अंतराल में ऐसा वक्त आ सकता है जब उसे किसी रिश्ते को ना चाहते हुए भी बीच में ही तोड़ना पड़ता है. और फिर वो व्यक्ति उस सफर के कुछ पलों को याद करता है. इस कविता में मैंने वो दृश्य को आपके समक्ष लाने की कोशिश क

4

एक दृश्य

3 जून 2017
0
0
0

ये हमारे साथ कई बार होता है की कोई चेहरा आँखों में यूँ समा जाता है की फिर उसे हम भूल नहीं पाते हैं. ये कविता शायद उसी बात को दर्शा रही है. गांव में शायद ये दृश्य ज्यादा सही प्रमाणित होता है. आशा करता हूँ आपको, मेरी ये रचना, पसंद आएगी.

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए