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मैं मटमैला माटी सा

4 जून 2017

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मैं मटमैला माटी सा , माटी की मेरी काया,

माटी से माटी बना, माटी में ही समाया।

समय आया, आकाश समेटे घाटी-माटी पिघलाया,

अगन, पवन, पानी में घोलकर, तन यह मेरा बनाया।।


जनम हुआ माटी से मेरा, माटी पर ही लिटाया,

माटी चखी, माटी ही सखी, माटी में ही नहाया।

माटी-घर, माटी ही घाट, माटी के खेत का खाया,

माटी-चाक आजीविका, माटी का धन मैं लाया।।


माटी ही मात्, माटी ही तात, माटी की ऐसी माया।

माटी ही भ्रात, माटी बहन, माटी सा मेरा साया,

माटी से बंधन जोड़कर, माटी की दुल्हन लाया,

माटी तनय, माटी सुता, माटी परिवार बसाया।


माटी का मन, माटी भवन, माटी की अलख जगाया,

माटी गिरीश, माटी को पीस, माटी का तिलक लगाया।

माटी का लेप, माटी को थोप, माटी की भस्म रमाया,

माटी में मूरत गूढ़कर, माटी को ईश बनाया।


हे माटी! मेरी मति फिरी, जो माटी से उलझाया,

माटी मरी न, मैं मरा, माटी ने खेल रचाया,

माटी का घड़ा, माटी में पड़ा, माटी में गया दबाया,

मैं फिर मटमैला माटी सा, माटी में ही जा समाया।

एस. कमलवंशी की अन्य किताबें

गौतम'स कप्स

गौतम'स कप्स

आपकी लिखी गयी रचना काफी जयादा सहरनिये है हमें यह काफी अच्छी लगी. कृपया भविष्य में भी ऐसे ही पोस्ट्स लिखते रहिएगा।। मै गौतम पटेल owner ऑफ़ http://compc.in/

13 अक्टूबर 2020

रेणु

रेणु

पञ्च लिंकों को गूगल के जरिये जरूर देखें प्रिय कमलवंशी---------- सस्नेह ----

30 अगस्त 2017

रेणु

रेणु

प्रिय कमल ------ आज साहित्य समाज से आपका परिचय होते देख मन बाग - बाग है बहुत बधाई और शुभकामना आपको फिर से कन्हुगी --------------- शाबाश ----

28 अगस्त 2017

Sudha Devrani

Sudha Devrani

बहुत ही सुन्दर माटी की सौधी खुशबू जैसी

28 अगस्त 2017

ध्रुव सिंह  -एकलव्य-

ध्रुव सिंह -एकलव्य-

<i><B> आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार 28 अगस्त 2017 को लिंक की गई है..................<a href= http://halchalwith5links.blogspot.com> http://halchalwith5links.blogspot.com </a>आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य" </B></i>

27 अगस्त 2017

kalpana bhatt

kalpana bhatt

बहुत अच्छी रचना ।

3 जुलाई 2017

ध्रुव सिंह  -एकलव्य-

ध्रुव सिंह -एकलव्य-

हे माटी! मेरी मति फिरी, जो माटी से उलझाया, माटी मरी न, मैं मरा, माटी ने खेल रचाया, माटी का घड़ा, माटी में पड़ा, माटी में गया दबाया, मैं फिर मटमैला माटी सा, माटी में ही जा समाया। आदरणीय ,कमलवंशी साहब आपकी रचना हृदय के उन अनछुए पहलुओं को उजागर करती है जिसको मानव सदैव विस्मृत करता हैं सुन्दर ,सजीव जीवन का सत्य उजागर करती आपकी रचना आभार ," एकलव्य"

3 जुलाई 2017

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष"

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष"

बहुत ही अदभुत एवं सटीक शब्द चयनों से सु-सज्जित सम्पूर्ण अभिव्यक्ति,...बहुत ही बढ़िया सर

26 जून 2017

ऋषभ खंडेलवाल

ऋषभ खंडेलवाल

एक बार फिर से आपकी रचनात्मकता, शब्द चयन एवं शैली पर अवाक् हूँ| बहुत ही सार्थक रचना|

5 जून 2017

रेणु

रेणु

तन माटी ये मन भूल चला धन - जोबन में फंस - फूल चला जग रैन बसेरा बिता चला जब - माटी में होकर धूल मिला----------- प्रिय कमल --------- आपकी एक और ह्रदय को छू लेने वाली और सच के सामने ला खड़ा करने वाली रचना पढ़ी -------- मन भावुक हो उठा -- आपो इस सुन्दर रचना के लिए सस्नेह शुभकामना -------- और बधाई --

5 जून 2017

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रचनाएँ
मेरी कलम - मेरा कलाम
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"मेरी कलम - मेरा कलाम" एस. कमलवंशी द्वारा रचित कविताओं का संग्रह है।
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अम्मा! दादू बूढ़ा है - एस. कमलवंशी

11 सितम्बर 2016
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अम्मा! दादू बूढ़ा है,कचरा, करकट कूड़ा है,क्यों न इसे फेंक दें, तपती धूप में सेंक दें!तुम ही तो कहती हो ये खाँसता है,चलते चलते हाँफता है,कितना भी खिलाओ अच्छा इसको,फिर भी हमेशा माँगता है…न कहीं जाता है, न कुछ करता है,खटिया पर पड़े पड़े सड़ता है,अंधा है, बहरा है, चाल तो देखो लंगड़ा है,ज़ोर नहीं रत्ती भर फिर भ

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ऐ बसंती हवा - एस. कमलवंशी

8 अक्टूबर 2016
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ऐ बसंती हवा, मैं तुझे क्या नाम दूँ?पागल कहूँ या वन-ए-बावरी, तुझे क्या पयाम दूँ?ऐ बसंती हवा, मैं तुझे…बड़ी ही चंचल, बड़ी ही संदल, ऋतुराज सुकुमारी तू,शीतलहर जब थम के बैठी, चढ़ती रसिक खुमारी तू,जब देखे तू सूरज लाली, चले चाल मतवाली तू,पूरब के तू द्वार से होकर, शीतल लहर बहाती तू,कुसुमाकर के कुसुम सुहाने, भर

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काश, मेरी भी माँ होती!

14 मई 2017
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काश, मेरी भी माँ होती! मैं उसे अपनी माँ बुलाता।प्रेम जताता, प्यार लुटाता,चरण दबाता, हृदय लगाता,जब कहती मुझे बेटा अपना, जीवन शायद सफल हो जाता, काश, मेरी भी माँ होती! मैं उसे अपनी माँ बुलाता।मैं अनाथ बिन माँ के भटका, किसको अपनी मात् बताता,जब डर लगता इस दुनियाँ का, किस

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मैं मटमैला माटी सा

4 जून 2017
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मैं मटमैला माटी सा , माटी की मेरी काया,माटी से माटी बना, माटी में ही समाया।समय आया, आकाश समेटे घाटी-माटी पिघलाया,अगन, पवन, पानी में घोलकर, तन यह मेरा बनाया।।जनम हुआ माटी से मेरा, माटी पर ही लिटाया,माटी चखी, माटी ही सखी, माटी में ही नहा

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मोरे पिया बड़े हरजाई रे!

8 जुलाई 2017
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ओ री सखी तोहे कैसे बताऊँ, मोरे पिया बड़े हरजाई रे,रात लगी मोहे सर्दी, बेदर्दी सो गए ओढ़ रजाई रे।झटकी रजाई, चुटकी बजाई, सुध-बुध तक न आई रे!पकड़ी कलाई, हृदय लगाई, पर खड़ी-खड़ी तरसाई रे!अंगुली दबाई, अंगुली घुमाई, हलचल फिरहुँ न आई रे!टस से मस

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अब इतना दम कहाँ!

2 मई 2017
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दुख गए हैं कंधे मेरे, अपनों का बोझ उठाते, फिर सपनों का बोझ उठाऊं, अब इतना दम कहाँ ! कण कण जोड़कर घरोंदा ये बनाया मैंने, तन-मन मरोड़कर इसको सजाया मैंने। रुक गया, मैं झुक गया, बहनों का बोझ उठाते,

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दर्पण

26 मई 2017
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बोले टूटकर बिखरा दर्पण, कितना किया कितनों को अर्पण, बेरंगों में रंग बिखेरा, जीवन अपना किया समर्पण। देखा जैसा, उसको वैसा, उसका रूप दिखाया, रूप-कुरूप हैं छैल-छवीले, सबको मैंने सिखाया, घर आया, दीवा

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मोरे पिया की चिट्ठी आई है

11 अगस्त 2022
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हट री सखी, न कुछ बोल अभी, सुन तो सही वह टेर भली, कर जोड़ तोसे विनती करूँ, तोहे तनिक देर की मनाही है, तू ठहर यहीं, कहीं जा नहीं, झटपट मैं फिर आ रही यहीं, न चली जाए वह डाक कहीं, मोरे पिया की चिट्ठी आ

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पथिक - एस. कमलवंशी

18 दिसम्बर 2016
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पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे,टेढ़े-मेढ़े जग-जाल में, फिरता कहाँ है सांवरे,कहाँ रही सुबहा तेरी, कहाँ है तेरी साँझ रे!पथिक तेरा रास्ता कहाँ, मंजिल कहाँ तेरी बावरे।टिमटिम चादर ओढ़कर, सोया तू पैर पसार रे,जिस स्वप्न में रैना तेरी, क्या होगा वह साकार रे,साकार का आकार भर, तू उठ गया पौ फटने पर,

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सखी री मोरे पिया कौन विरमाये?- एस. कमलवंशी

20 अगस्त 2016
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सखी री मोरे पिया कौन विरमाये? कर कर सबहिं जतन मैं हारी, अँखियन दीप जलाये, सखी री मोरे पिया कौन विरमाये... अब की कह कें बीतीं अरसें, केहिं कों जे लागी बरसें, मो सों कहते संग न छुरियो, आप ही भये पराये, सखी री मोरे पिया कौन विरमाये... गाँव की

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यादों का पागलखाना

19 जनवरी 2019
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जब भी तेरी वफाओं का वह ज़माना याद आता है,सच कहूं तो तेरी यादों का पागलखाना याद आता है।कसमों की जंजीर जहां पर, वादों से बनी दीवारें हैंझूठ किया है खंज़र से तेरे नाम की उन पर दरारें है।टूट चुका सपनों का बिस्तर, अफ़सोसों की चादर हैतकियों को गीला करती अश्क़ों की जहां फुहारें हैं।जलती शमा में कैद वहां, परवान

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आज बहुत रोई पिया जी! - एस. कमलवंशी

13 सितम्बर 2016
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आज बहुत ही रोई पिया जी, आज बहुत ही रोई,जिस्म-फ़रोसी की दुनियाँ में, दूर तलक मैं खोयी।कोई भी हाल न मेरा पूँछे, कोई न पूँछे ठिकाना,जिधर भी जावे मोरी नजरिया, चाहवे सब अज़माना।घूँट घूँट कर ज़हर मैं निगली, देह पथरीली होई,आज बहुत ही रोई पिया मैं, आज बहुत ही रोई।लाख मुसाफ़िर, लाख प्यासे, लाख ठिखाने लाये,लाख त

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भिखारी - एस. कमलवंशी

17 सितम्बर 2016
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मेरी गली में इक भिखारी भीख मांगता है,नंगे पाँव, तपती धूप में,सर्दी-गर्मी, हर रूप में,चंद मुट्ठी पैसों से, घर का पेट पालता है,मेरी गली में इक भिखारी, रोज भीख मांगता है।।टूटे घर में बिखरा जीवन,खाली पेट, और गीला दामन,नींद खुले जब, देखें आखें,मरती त्रिया, भूखा बचपन।बेबसी में, बेकसी में हर बाधा वह लांघता

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दास्तान-ए-कलम (मेरी कलम आज रोई थी)

28 अप्रैल 2017
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मेरी कलम आज फिर रोई थी,तकदीर को कोसती हुई, मंजर-ए-मज़ार सोचती हुई,दफ़न किये दिल में राज़, ख़यालों को नोंचती हुई।जगा दिया उस रूह को जो एक अरसे से सोई थी,मेरे अल्फाज़ मेरी जुबां हैं, मेरी कलम आज रोई थी।।पलकों की इस दवात में अश्कों की स्याही लेकर,वीरान दिल में कैद मेरी यादों

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मित्र का चित्र

20 मई 2017
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सुरमई आँखों को सजाएँ, काज़ल की दो लकीरें,मैंने इनमें बनती देखी कितनी ही तसवीरें,तसवीरों के रंग अनेकों, भांति-भांति मुस्काएं,कुछ सजने लगी दीवारों पर, कुछ बनने लगी तक़दीरें।कुछ में फैला रंग केसरिया, कुछ में उढ़ती चटक चुनरिया,कुछ के रंग सफ़ेद सुहाने, कुछ में नागिन लचक कमरिया

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बचपन - बुढ़ापा (एस. कमलवंशी)

2 अक्टूबर 2016
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बचपन-कचपन, बुढ़ा-पकपन,सरल-सहज, व्यथाएं पचपन,नागर निडर, हियाय खनखनचापर चपल, पिराय तनमन।डग-भर डगर, थकाये आँगन,नटवर नज़र, दुखाए दामन,अल्लड़ मस्त, संभाले जरा-धन,काफिर-कहर, सहारे अनबन।रंग बिरंग, मन फीके सावन,अंग मलंग, लाठी के आवन,ढंग-बेढंग, विराने दरपन,संग-तरंग, विचारे पलछिन।कल-कल किलक, कराहे कण-कण,मादक मदन

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ऐ मेरे दिल की दीवारों

1 मई 2017
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ऐ मेरे दिल की दीवारों, रूप अनूप तुम्हारा करूँ!सजनी के हैं रूप अनेकों, कौन सा रूप तुम्हारा करूँ?क्या श्वेत करूँ, करे शीतल मनवा, उथल पुथल चितचोर बड़ा है,करूँ चाँदनी रजत लेपकर, पूनम का जैसे चाँद खड़ा है।करूँ

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