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गीत

10 जून 2017

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टँगे-टँगे खूँटी पर आख़िर,
कहाँ तलक़ हम
सत्य बाँचते ।

न्यायालय की चौखट
सच से दूर बड़ी थी।
कानूनों की सूची
धन के पास खड़ी थी।

सगे-सगे वादी थे
लचकर,
मुंसिफ़ कब तक
तथ्य जाँचते ।

आजीवन कठिनाई,
दो रोटी का रोना।
आदर्शों को रहे फाँकते
चाटा नोना।


भूखे-पेट पंक्ति से

हटकर,
कहाँ तलक़ हम
पथ्य माँगते।

तुला-दण्ड था गूँगा
मूरत अंधी-बहरी ।
अभिजातों के हाथों
बहुधा बिकी कचहरी।

ठगे-ठगे रीढ़ तक
झुककर,
कहाँ तलक हम
कथ्य हाँकते ।


kalpana bhatt

kalpana bhatt

सुन्दर रचना ।

3 जुलाई 2017

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष"

मनोज कुमार खँसली-" अन्वेष"

ला-दण्ड था गूँगामूरत अंधी-बहरी ।अभिजातों के हाथोंबहुधा बिकी कचहरी।ठगे-ठगे रीढ़ तकझुककर कहाँ तलक हमकथ्य हाँकते....अद्भुत, अद्वितीय,अवर्णीनीय,...बहुत खूब

23 जून 2017

सच्चिदानंद तिवारी

सच्चिदानंद तिवारी

उत्तम रचना है ।

23 जून 2017

रेणु

रेणु

सुघड़ काव्यात्मकता और सुंदर चिंतन से भरी रचना --

18 जून 2017

आलोक सिन्हा

आलोक सिन्हा

बहुत ही अच्छा गीत है यह आपका | इस तरह की सटीक भाषा व् नुकीली शैली बहुत पहले ग्वालियर के मुकुट बिहारी सरोज जी लिखा करते थे | बहुत दिन बाद एक सुगठित व् सरस रचना हिन्दी को प्रदान करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार |

15 जून 2017

  सुरेश

सुरेश

वैरी गुड

14 जून 2017

शालिनी कौशिक एडवोकेट

शालिनी कौशिक एडवोकेट

सत्य के एकदम करीब बेहतरीन

11 जून 2017

पंकज त्रिवेदी

पंकज त्रिवेदी

वर्त्तमान की स्थिति से व्यथित मन ने कह दी वो सारी बात जो हर कोई चाहता है मगर कह नहीं पाता. ऐसे विषय को गीत में ढालना कठिन मगर आपने बहुर सलीके से जान भर दी है... अभिनंदन

11 जून 2017

मंजरी सिन्हा

मंजरी सिन्हा

अच्छी रचना है |

10 जून 2017

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बूँद-बूँद गंगाजल

13 जनवरी 2016
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💐☺आप दिल्ली , विश्व पुस्तक मेला में घूम रहे हैं, तो आपको डॉ.भावना तिवारी का काव्य-संग्रह 💐#बूँद-बूँद गंगाजल#उपलब्ध रहेगा यहाँ...👇🏾अंजुमन प्रकाशनहॉल-12A स्टॉल-337 🙏🏼

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हॉल-12A- स्टॉल-337

17 जनवरी 2016
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विश्व पुस्तक मेला ,दिल्ली में जा रही हूँ आज, आप भी आ रहे हैं क्या

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नवगीत // बंद बैग में

23 अप्रैल 2016
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।। बंद बैग में ।।-------------------घर से दफ़्तर,दफ़्तर से घर,पल-पल बँटती रही ज़िन्दग़ी।जल्दी-जल्दी हाथ चलाती साथ घड़ी के मैं चलती हूँ।केवल सीमित होंठ दबाकर कहने भर को मैं हँसती हूँ।बस, रिक्शा,लोकल ट्रेनों में,पग-पग तपती रही ज़िन्दग़ी ।कागज़-पत

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गीत

10 जून 2017
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टँगे-टँगे खूँटी पर आख़िर,कहाँ तलक़ हम सत्य बाँचते । न्यायालय की चौखट सच से दूर बड़ी थी। कानूनों की सूची धन के पास खड़ी थी। सगे-सगे वादी थेलचकर, मुंसिफ़ कब तक तथ्य जाँचते । आजीवन कठिनाई,दो रोटी का रोना।आदर्शों को रहे फाँकते चाटा नोना।भूखे-पेट पंक्ति से हटकर,कहाँ तलक़ हमपथ्

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कवयित्री विशेषांक हेतु रचनाएँ आमंत्रित

11 जून 2017
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*कवयित्री विशेषांक* के लिए रचनाएँ आमंत्रित------

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गीत अँगड़ाई के दिन

7 मई 2018
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तृषा जगी धरती की प्यासे हैं कूप छज्जों पर नाच रही सोने सी धूप गर्मी के दिन थोड़ी नरमी के दिनआ गए सूर्य की,ढिठाई के दिनठिलियों परबैठ गये आम्रफल रसीले ढेर लगे जामुन के, महकते कलींदेचटपटे अचारों, गुल्कंदों के दिन जलजीरा शर्बतसतुआई के दिन छोड़ कर किताबें हँसी गाँव भागी तारों की गफलिया सुबह तलक जागी भरे मर

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