खनकते है घुँघरू,
रोती हैं आँखें,
तबले की थाप पे ,
फिर सिसकती हैं साँसें|
हर रूह प्यासी,
हर शह पे उदासी,
यहाँ रोज़ चौराहे पे,
बिकती हैं आँहें|
ना बाबा,ना चाचा ,
ना ताऊ,ना नाना,
ना भाई यहाँ है,
ना कोई अपना,...!?!...
बस एक रिश्ता ,
बस एक सौदा,
ग्राहक के पैसे से,
सजती हैं रातें,...!?!
ना मुझे लाज उसकी,
ना शर्म उसको,...!?!...
हर ज़िस्म गिरवी,
हर रूह बिकाऊ,
उसे अब्बा के ज़ानिब,
ना समझतीं हैं रातें!?!...
वो पण्डा,
वो काज़ी,
वो मन्दिर का लोभी,
वो पाँच वक़्त नमाज़ी,
सभी हैं यहाँ....
सुबहो- शाम चकलों के आदी,...!?!...
वो मन्दिर भी टूटा,
वो मस्ज़िद गिरादी |
यहाँ रोज़ बिस्तर पे बिछती हैं लाशें,...!?!
डराता सा बचपन,
भुलाया सा बचपन,
रुपए बीस चावल पे,
लुटाया सा बचपन |
देख सफ़ेदपोश दानव को कुम्हलाया सा बचपन,..!?!
कली तोड़ डाली से हँसती हैं शाखें,...!?!
वो सूरज भी डूबा,
वो चंदा भी टूटा,
मगर भूख हवस की
ये मिटती नहीं है,...!?!
मेरी कोख डर से
कली कोई जनती नहीं है,...!?!
कहीं नोंच ना लें,
मेरी तरह ही,
ये भूखे दरिन्दे,
ये बड़े ज़ोर वाले...!!!???!!!
...या उसे तोड़ ना दें,...???...
ये लू के थपेड़े,
वो भूख के तकाज़े,
वो रातों के फांके,...!!!???!!!
चहुँ ओर अँधेरा,
चहुँ ओर काला,
टके की ख़नक में,
बाज़ार की दमक में,
ना दिखतीं हैं आसें!!!???!!!
खनकते हैं घुँघरू,रोती हैं आँखें,...!?!...
(मनोज कुमार खँसली"अन्वेष")