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प्रेम और साहित्य का फेसबुक काल

17 जुलाई 2017

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featured image हिंदी साहित्य में नायिका का बड़ा महत्व है .श्रंगार को रस राज कहा गया है . श्रंगार का उद्दीपन और आलम्बन सभी कुछ तो नायिका है .रीतिकालीन साहित्य से निकल कर ,छायावाद और आधुनिक काल से होती हुयी नायिका अब साहित्य के फेसबुक काल में प्रवेश कर चुकी है .पुराने ज़माने में यदि साहित्य साधक नायिका के नख शिख वर्णन में लगे रहते थे तो साहित्य के इस फेसबुक काल में भी नायिका के रूप सौन्दर्य का गुणगान करने में ,उसके चापल्य और बौद्धिकता को महिमामंडित करने में फेसबुक साधक किसी भी तरह से पीछे नहीं हैं .रीति काल की नायिका का मन माखन सा होता था तो फेसबुक की नायिकाएं भी प्रेमालाप और प्रेमदान के मुआमले में अत्यंत सॉफ्ट हैं .थोड़ी अदा और थोड़ी नजाकत तो नायिकाओं को प्रकृति प्रद्दत्त होती है, पर फेसबुक की नायिका किसी भी प्रेमाकांक्षी को बहुत देर तक निराश नहीं करती . अभी दो दिन पहले ही मैं फेसबुक पर इजहारे मुहब्बत कर रहे एक नायक का स्टेट्स पढ़ रहा था ---“इस फेसबुक पर है एक लड़की जो बौद्धिकता से लबालब और उद्दाम सौन्दर्य से आप्लावित वह प्रेम की देवी मेरे प्रणय निवेदन को निरंतर अस्वीकार कर रही है ----“-मैं उसका जन्म जन्मान्तर का साथी आज उससे प्रेम का प्रतिदान पाए बिना इस फेसबुक के पटल से न हटने का प्रण लेता हूँ .----“ इस स्टेट्स के नीचे नजर दौडाई तो १०० से ऊपर कमेंट्स और हज़ार से ज्यादा लाइक्स थे, दो घंटे के भीतर .और कमेंट्स भी कैसे कैसे मानों आज इस लडके ने पुरुरवा की तरह घोषणा कर दी हो इंद्र से उर्वशी छीन लाने की .फेसबुक के सह्रदय और प्रेमिल सज्जनों की आत्मीयता और सहानुभूति का तो मानों ज्वार ही उमड़ पड़ा था उस नौजवान पर .कुछ नायिकाएं उस नवोढ़ा नायिका के प्रति ईर्ष्या भाव से व्यंग्य कर रही थी तो कुछ नायक को गोल गप्पे की तरह तुरत गपक लेने की अनुभवजन्य सलाह दे रही थीं .कुछ तो उस नायक को उन पर भी द्रष्टिपात करने के लिए उकसा रही थी और कुछ उस कठोर ह्रदय नादाँ लडकी को बुरा भला भी कह रही थी जो इतने साहसी और प्रेम से लबालब नायक के प्रेम निवेदन को स्वीकारने में इतनी देर लगा रही थी .पुरुष वर्ग की प्रतिक्रिया थोड़ी अलग थी .अधिकांश इसे नायक का छिछोरापन ,बेहया और गैरजिम्मेदार व्यवहार कह रहे थे तो कुछ इसे लड़की के आगे पुरुषों की नाक कटा देने वाला व्यवहार बता रहे थे .हाँ कुछ सह्रदय ऐसे भी थे जो इमोज़ी और स्टीकर मार्का ‘आई लव यु ‘ और ‘भाभी जी मान जाओ ‘के जुमले उछलकर नायक का उत्साहवर्धन भी कर रहे थे .इन्ही कमेंट्स के बीच जब किसी टीचर छाप फेसबुकिये ने लड़के को सब कुछ भूलकर लिखने पढने की सलाह दी तो उस फिदायीन जज्बे से लबरेज़ लड़के ने –“अमृतदान ” ‘मिल जाने की घोषणा कर दी और कुछ देर तक बधाइयों के इमोजी और स्टीकर लुटने के बाद फेसबुक पर एक प्रेम सम्बन्ध शुरू होने को मान्यता मिल गयी .देखते ही देखते एक नायिका का स्टेट्स सिंगल से कोम्प्लिकेटेड रिलेशनशिप में बदल गया .और एक दिन बाद तो लडके का प्रथम नाम लडकी का द्वितीय नाम हो गया . इसी तरह पिछले वर्ष हमारे एक मित्र जो दूर देश के निवासी हैं मेरा मतलब अनिवासी भारतीय हैं पुस्तक मेले में मिले .वही उनसे मिलने एक फेसबुकिया कवयित्री भी आई और मित्र को अपने साथ ले गयी .फिर एक दिन मित्र ने इनबॉक्स में सम्पर्क किया और भर्राए गले(इन बाक्स की वार्ता के दर्द को समुचित अभिव्यक्ति देने के लिए भर्राया गला ही ठीक लगा बाकी पाठक जो ठीक समझे लगा ले ) से बताया कि उनका अब उस ‘नीच औरत’ से कोई सम्बन्ध नहीं .मैं एक बारगी तो घबरा ही गया कौन औरत ?कैसा सम्बन्ध ?मैंने कहा बन्धुवर कुछ खुल के बताइए .मित्र मानो मेरे इस निवेदन के इंतजार में ही थे .फिर तो वे ऐसे खुले कि अंतत: मुझे कहना ही पड गया अब बंद भी हो जाइये .अपनी एक समय प्राण प्यारी रही के चरित्र की परते उधेड़ते वे खुद को बज्ररंगवली का भक्त बता रहे थे और हम उस कवयित्री –गजलकार की उन्नति प्रगति को सुन सुनकर सुन्न हुए जा रहे थे . इन्टरनेट आने के बाद यदि किन्ही दो चीज़ों ने सर्वाधिक प्रगति की है तो वे हैं प्रेम और साहित्य .पुराने जमाने में जिस तरह बड़ी बड़ी प्रेम कथाएं सीने में दफन होकर रह जाती थीं वैसे ही हजारों लाखों पृष्ठों की कविता एँ ,उपन्यास ,कहानियाँ भी किसी पत्रिका के पृष्ठ पर छपने की आस में डायरी और रजिस्टर के पन्ने पर ही धुंधली पड़ जाती थीं. प्रेम पर हजारों ग्रन्थ लिखे गये .कबूतर की चोंच के मार्फत खतो किताबत करने से लेकर किताबों की अदला बदली तक प्रेमपत्रों के आदान प्रदान की समृद्ध परम्परा हर देश काल में मिलती है पर जब से इन्टरनेट आया है प्रेम का समूचा व्याकरण ही बदल गया है भला हो जुकरबर्ग का जिसने फेसबुक ईजाद कर सच में संचार क्रांति का लाभ सहज सुलभ कर दिया .इतना सुलभ कि सुलभ शौचालय वाले तक घबरा जाएँ .एक दिन किसी टैगासुर ने इस नाचीज़ को एक ऐसे चित्र में टैग कर दिया तो हमारी गति सांप –छछुन्दर के माफिक हो गयी .हुआ यूँ कि हमारे उन फेसबुकिया मित्र ने जिस चित्र में हमे टैग कर रखा था उसमे वे हरे भरे खेत में अपने मित्रों के साथ प्रात काल में पंक्तिबद्ध होकर नित्यकर्म में संलग्न थे .अपनी उस अनुपम मुद्रा का उन्होंने ‘डयुरिंग लेट्रिंग’ कैप्शन के साथ चित्र (सम्भवत: अपने स्मार्ट फोन से सेल्फी लेकर )पोस्ट किया था .उस चित्र में दो दर्जन से अधिक जिन विशिष्ट जनों को टैग होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ उनमें से एक मैं भी था. फेसबुक पर बिना कुछ किये पुण्य का भागी बनने के अनंत संभावनाएं हैं . अब साहित्य की बात करते हुए प्रेम की बात करते हैं .दरअसल ‘प्रेम’ और ‘साहित्य’ दोनों एक दुसरे से जुड़े या यों कहें अन्योन्याश्रित हैं ...साहित्य में नब्बे फीसदी प्रेमकथाएं और बाकि दस फीसदी में भूख ,बेरोज़गारी ,कुंठा –अदि आदि है .यही हाल फेसबुक का भी है .फेसबुक का साहित्य भी प्रेम से लबालब है .फेसबुक प्रेम के लिए इस कदर फर्टाइल है कि पूछिए मत ऐसे ऐसे ताऊ जिनके मुंह के दांत और पेट की आंत तक का रिप्लेसमेंट और ट्रांसप्लेंटेशन हो चुका होता है सिने तारिकाओं की प्रोफाइल पिक वाली हसीनाओं से प्रेमालाप करने का सुयोग प्राप्त करते सहज सुलभ हैं .ये सुविधा इकतरफा नहीं है .बड़ी पर्दानशीं और बुर्के –लबादे में सिमटी रहने वाली खातूने भी सलमान खान और जान अब्राहम के चित्रों से सज्जित फेसबुकी प्रेम के महारथियों से इनबॉक्स चेट से शुरू कर सारी सीमाओं वर्जनाओं को एकबारगी तोड़ मरोड़ डालने को आमादा दिखती हैं .अब इनमे कितनी कहानियाँ कहानियों से निकलकर जिंदगी संवारती हैं और कितनी जिंदगी के तारों को तार तार कर देती हैं ये अलग शोध का विषय हो सकता है पर फेसबुक ने जो स्वछंदता और चयन की स्वतन्त्रता उपलब्ध करायी है वह कुछ बरस पहले तक कल्पनातीत थी . इस सारे संक्रमण काल में साहित्य की बात करने के लिए साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय सहज ,सरल विधा कविता पर विहंगम दृष्टि डालने पर हम पाते हैं कि .जबसे कविता को छंद के बंध से मुक्त किया गया तबसे कविता कर्म के क्षेत्र में तो मानों क्रांति ही आ गयी .यह क्रांति फेसबुक पर आकर जनांदोलन की शक्ल अख्तियार कर चुकी है .फेसबुक पर जहाँ हर पोस्ट की कीमत उसको मिले लाइक्स ,कमेंट्स और शेयरिंग से तय होती है किसी कविता को अच्छी बनाने के लिए खूबसूरत कन्या के चित्र के साथ पोस्ट करना पर्याप्त है .इतना भर करने से आपको ‘निराला’ या ‘प्रसाद’ की कविता से ज्यादा लाइक्स मिलने तय हैं .लाइक्स की इम्पोर्टेंस को समझते हुए फेसबुक के संचालन कर्ताओं ने अत्यंत धार्मिक तरीका अपनाते हुए लाइक्स खरीदने का रास्ता भी फेसबुकिया साहित्यकारों को सुलभ कराया है .जिस तरह श्रद्धा में अधूरे और गांठ के पूरे भक्तों को तिरुपति बालाजी या वैष्णो देवी के दर्शनों में बाजिव दान दक्षिणा लेकर अलग से दर्शन की व्यवस्था की जाती है ठीक वैसे ही अपनी कमजोर कविता कहानी को जोरदार लाइक्स से नवाजे जाने की चाहत पूरी करने के लिए तुच्छ धन को अर्पित कर खुद को दमदार साहित्यकार सिद्ध करने का पूरा पूरा मौका फेसबुक पर सुलभ है . फेसबुक पर कवि-साहित्यकार बनने के लिए यह कतई जरूरी नहीं कि आपको खुद कुछ लिखना आता हो .कापी पेस्ट की सर्वसुलभ तकनीक के होते किसी भी नामचीन या गैर नामचीन की कविता कहानी ‘कट –पेस्ट’ करने में कुछ सेकेण्ड ही तो लगने हैं .वैसे भी हर कवि दूसरे कवि को नकली चोर और स्तरहीन मानता है .साहित्य की चौर्य परम्परा को विकसित और पल्लवित करने के कर्म में है मोटे लिफाफे लेने वाले ‘अविश्वास कुमारों’ से लेकर मंच के ‘थके हारों’ तक का नाम शुमार किया जाता है फिर बेचारे फेसबुकिया कवियों-साहित्यकारों को ही क्यों आँख दिखाई जाये ,या अंगुली ही उठाई जाये ? .पहले तो जो कहीं नहीं छपते थे उन्होंने फेसबुक पर लिखना शुरू किया और फिर बदलते दौर की नब्ज़ पकड़कर समझदार प्रकाशकों ने फेसबुकिया कविता संग्रह छापने शुरू कर दिए .फेसबुक पर माल और ग्राहक दोनों ही उपलब्ध यानि हर्र लगे न फिटकरी रंग पूरी तरह से चोखा .हिंदी का प्रकाशक तो ऐसी अपार्चुनिटी कभी मिस नहीं करता .वह बखूबी जानता है कि फेसबुक के साहित्यकार साहित्यिक दृष्टि से भले ही सपरेटा हों और उनमे साहित्यिक प्रतिभा की मलाई चाहे रंच मात्र भी ना हो पर इन अधकचरी रचनाओं का प्रकाशन सपरेटा का दही जमाना है .जिसे सरकारी खरीद की तहरी और खिचड़ी में मिलाकर मज़े से खाया जा सकता है और प्रकाशन का खर्चा तो इन लक्ष्मीवाहनों से नकद नारायण लेकर निकल ही आना है . फेसबुक के साहित्य और प्रेम पर पूरा ग्रन्थ भी लिख दिया जाए तो भी कम है .नायिका भेद से लेकर इनबाक्स में जताए जाने वाले खेदों तक मानवीय चरित्र के छेंदों को बहुत मनमोहक अंदाज़ में फेसबुक ने खोल कर रख दिया है. फेसबुकिया प्रेम कहानियों से प्रत्यक्ष मुठभेड़ का सौभाग्य ना मिलने का किंचित मलाल तो मुझे भी है .क्योंकि जब भी किसी मोहतरमा से इनबाक्स में मुखतिब होने की कोशिश की उसने अध्यापक , ,साहित्यकार और समझदार होने के इतने आभूषण हमें पहना दिए कि हमारा नाज़ुक ह्रदय उनके बोझ में ही दबकर रह गया . प्रतिष्ठा और गरिमा की बेड़ियों के साथ साथ अपने चौखटे में भी कुछ ना कुछ खराबी तो ज़रूर है कि हम फेसबुक के अनंत प्रेमाकाश में भी परकटे कबूतर की तरह अपने स्टेट्स की खिडकियों से झांकते ही रह गये .हमारे इनबाक्स के रोशनदान में प्रेम की दीपमाला न जल सकी पर हम साहित्यकार है .स्वभाव से ही आशावादी –आज नहीं तो कल हमारे इनबॉक्स में भी प्रेम की ट्यूब लाइट जलेगी ही . –बस डर एक ही बात का है कि कहीं आचार्य केशवदास की तरह न कहना पड जाये – केशव केशन असि करी वैरिऊ न कीन्ही जाय ,चन्द्र बदन मृग लोचनी बाबा कहि कहि जाय 1048, सेक्टर -4बी वसुन्धरा ,गाज़ियाबाद उ०प्र०-201012 Mo b -9910416496

अरविंद पथिक की अन्य किताबें

प्रियंका शर्मा

प्रियंका शर्मा

बहुत ही बढ़िया अरविन्द भाई , कायदे से फेसबुक की ऐसी तैसी की है आपने . शुरू से आखरी तक लेख पढ़ने में आनंद आया .

17 जुलाई 2017

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नेरी समझ मे व्यंग़्य

15 जून 2017
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मेरी समझ में व्यंग्य –जब मैं कहता हूँ ‘मेरी समझ में व्यंग्य’ तो इसे दो भागों में बांटा जा सकता है-पहला –‘मेरी समझ’ और दूसरा –‘व्यंग्य’ .जब मैं अपनी समझ के बारे में सोचता हूँ तो हंसी आती है .मुझे समझदार कोई और तो खैर क्या मानेगा मैं खुद ही नहीं मानता .अपने अब तक के किये पर नजर दौड़ता हूँ तो समझदारी

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लोकप्रियता और शास्त्रीयता के बीच दोलन करता साहित्य

17 जून 2017
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लोकप्रियता और शास्त्रीयता के बीच दोलन करता साहित्य जबसे साहित्य की थोड़ी सी समझ हुयी है एक प्रश्न निरंतर परेशान करता रहा है कि क्या लोकप्रिय साहित्य साहित्य नही है ?क्या कोई भी लेखन जिससे आम जन जुड़ाव महसूस न करता हो वही साहित्य है ?आखिर अच्छी रचना की कसौटी क्या है ?भाषा के स्तर पर सम्प्रेषणीयता महत्

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प्रेम और साहित्य का फेसबुक काल

17 जुलाई 2017
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रायता प्रसाद

23 जुलाई 2017
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रायता प्रसाद का असली नाम तो मंच के हास्य-व्यंग्य कवियों के असली नाम की तरह ही विस्मृत हो चुका था ,पर रायता फ़ैलाने की अपनी अकूत क्षमता के कारण वे साहित्य जगत में रायता प्रसाद के नाम से ख्याति प्राप्त कर चुके थे . रायता प्रसाद को गोस्वामी तुलसीदास जी तरह ही लोक मानस की गहरी समझ थी .वे जानते थे कि

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आयशा को डर नहीं लगता -----? अरविंद पथिक

12 अगस्त 2017
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हम जहाँ रहते हैं वह 288 फ्लैट वाली छोटी सी कालोनी है जिसके सेक्रेटरी रहने का फख्र हमे भी हासिल है .हमारी कालोनी यही कोई 17-18 पहले बसी थी .यहाँ रहने वाले ज्यादातर लोग नौकरी पेशा और छोटे मोटे बिजनेस करने वाले अपनी दुनिया में व्यस्त और

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सत्य का समय सापेक्ष अन्वेषण है ‘बोलो गंगापुत्र ‘

5 मार्च 2018
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महाभारत की पृष्ठभूमि पर कई उपन्यास और कथाएं लिखी गयी .मानवीय चरित्र की सर्वोच्चता और निम्नता का ऐसा कोई आयाम शायद ही हो जिसे महाभारत कार ने किसी न किसी चरित्र के माध्यम से अंकित न किया हो .इसीलिए कहा गया ‘..जो महाभारत में नहीं वह कहीं नहीं ‘ पाश्चात्य प्रभाव से महाभारत को महाकाव्य की श्रेणी में रखा

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