मेरे एक परिचित ये बताते हुए बहुत खुश हो रहे थे कि उनके बेटे को ठीक से हिंदी नहीं आती। उनके बेटे ने दिल्ली में रह कर अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाई की है और वो अब ठीक से हिंदी नहीं बोल पाता। नहीं पढ़ पाता। एक अनिवार्य विषय के रूप में हिंदी की पढ़ाई भी उसने नहीं की। उसने उसकी जगह फ्रेंच की पढ़ाई की है।
मेरे परिचित मुझसे अपने बेटे की इस उपलब्धि की चर्चा करते हुए बहुत खुश थे कि आजकल के बच्चे तो हिंदी समझते ही नहीं।
मैं भी खुश था कि चलो उनका बेटा अमेरिका और इंग्लैंड में नौकरी के लिए पूरी तरह फिट है। बच्चे अमेरिका या इंग्लैंड चले जाते हैं तो मां-बाप भले अकेलेपन का दंश भले सहें, लेकिन उनकी आत्मा तृप्त रहती है। वो ये कहने के लायक तो होते हैं कि उनका बच्चा विलायत में है।
खैर, संजय सिन्हा को आज उन बच्चों की कहानी नहीं सुनानी, जो यहां रह कर हिंदी नहीं पढ़ते, नहीं समझते।
उन्हें कहानी सुनानी है अमेरिका के पेंसिलविनिया यूनिवर्सिटी के उन बच्चों की कहानी जो सात समंदर पार से चार दिन पहले हिंदुस्तान आए हैं, हिंदी का बाज़ार तलाशने। वो एक महीना हिंदुस्तान में रहेंगे और अलग-अलग क्षेत्र के लोगों से मिलेंगे। इसी कड़ी में वो दो दिन पहले हमारे ऑफिस पहुंचे थे। मुझे ऑफिस में बताया गया कि अमेरिका से चार विद्यार्थी आए हैं और मुझे उनसे मिलना है। वो भारत की टीवी पत्रकारिता को समझना चाहते हैं।
मैं बहुत हैरान था कि अमेरिका से कोई हिंदी चैनल के ऑफिस में क्या समझने आएगा।
दोपहर में खाने के बाद वो हमारे दफ्तर आए। चार विद्यार्थी थे और उनके साथ एक शिक्षक भी थे।
मैं कांफ्रेंस रूम में उनसे मिलने गया। चारों ने कुर्सी से खड़े होकर मुझे नमस्ते कहा और फिर अपना परिचय हिंदी में देना शुरू किया।
मैं हैरान था। अमेरिका से आए ये बच्चे हिंदी बोल रहे थे।
चारों ने बताया कि वो अमेरिका में मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहे हैं और उनकी पढ़ाई में एक विषय हिंदी भी है।
मैंने हैरानी से पूछा कि हिंदी क्यों? हिंदी से क्या लाभ है? हमारे बच्चे तो हिंदी बोलना, समझना और पढ़ना छोड़ रहे हैं। फिर आप लोग वहां हिंदी सीख रहे हैं? क्या फायदा?
वो चारों बच्चे हैरान हो कर मेरी ओर देख रहे थे। कैसा संपादक है, जो ये नहीं जानता कि हिंदी की क्या अहमियत है। वो आंखें फाड़ कर संजय सिन्हा की ओर देख रहे थे।
उनमें से एक ने कहना शुरू किया कि सर, हम मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रहे हैं। हम हिंदी इसलिए पढ़ रहे हैं क्योंकि दुनिया भर के व्यापार ियों के लिए भारत आज भी सोने की चिड़िया है। दुनिया में चाहे कोई कहीं भी कारोबार करे, भारत में उसके उत्पाद के सबसे अधिक उपभोक्ता हैं। अमेरिका में ‘एप्पल’ नामक फोन बनता है लेकिन उसकी सबसे अधिक खपत कहां होती है? भारत में। कोरिया की सैमसंग कंपनी टीवी, टैबलेट, फोन और दुनिया भर की चीजें बनाती है तो सबसे अधिक उसकी खपत कहां है? भारत में। जापान तो बहुत छोटा सा देश है। उसकी होंडा, टोयोटा कारें सबसे अधिक कहां बिकती हैं? भारत में।
सर, दुनिया के लिए भारत बहुत बड़ा बाज़ार है।
हम हिंदी इसीलिए पढ़ रहे हैं क्योंकि हमें खुद को भारत के बाज़ार से जोड़ना है। हम यहां के दौरे पर इसलिए आए हैं ताकि हम यहां के बाज़ार को समझ सकें। किसी को समझने के लिए उसकी भाषा से खुद को जोड़ना पड़ता है। हम यहां के राजनैतिक माहौल को समझना चाहते हैं। हम यहां की मीडिया को समझना चाहते हैं। हम यहां के सरकारी तंत्र को समझना चाहते हैं।
भारत में आज भी जन-जन की भाषा हिंदी ही है। हिंदी वाले ही यहां के उपभोक्ता हैं। इसलिए प्रबंधन के हमारे कोर्स में हिन्दी को एक भाषा के रूप में हमें पढ़ाया जा रहा है। वैसे चीन भी एक बड़ा बाजा़र है, लेकिन चीन की अपनी उत्पादन क्षमता बहुत बड़ी है, इसलिए वहां बाहरी माल की खपत कम है, जबकि भारत में कलम से लेकर कार तक विदेशी है। आज दुनिया के हर देश की निगाह भारत पर है।
वो चारों बच्चे कुछ-कुछ और बोल रहे थे।
मैं इतिहास के पन्नों में समा गया था। कई सौ साल पहले इंग्लैंड, पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस और न जाने कहां-कहां से विदेशी भारत आए थे और यहां आकर हमारी भाषा सीख कर हमीं पर शासन करने लगे थे। शुरू में ये कह कर आए थे कि यहां हम हल्दी, मिर्च का कारोबार करने आए हैं, पर वो हमसे ‘टुम्हारा नाम क्या है, टुम कहां का रहने वाला है, टुम क्या खाटा’ है जैसी हिंदी बोलते हुए हमारे मालिक बन गए थे।
और हम?
हम उनकी भाषा सीख कर उनके दास बन गए थे।
अंग्रेजों ने हमें अंग्रेजी सीखने पर मजबूर किया, अपने फायदे के लिए। हिंदी उन्होंने खुद सीखी, अपने फायदे के लिए।
आज भी विदेश में जो लोग हिंदी सीख रहे हैं, वो अपने फायदे के लिए ही सीख रहे हैं। हम जो अंग्रेजी अपने बच्चों को पढ़ा रहे है, वो मजबूरी में पढ़ा रहे हैं और उन्हीं के फायदे के लिए पढ़ा रहे हैं।
हमारे बच्चे विदेश जाकर कॉल सेंटर में नौकरी करते हैं, उनकी सेवा करते हैं।
वो हिंदुस्तान आकर कारोबार करते हैं और हम यहां उनकी सेवा करते हैं।
आप मन में खुश होते रहिएगा कि आज से सत्तर साल पहले भारत अंग्रेजों से आजाद हो गया था। पर संजय सिन्हा की मुलाकात जब से उन चार विदेशियों से हुई है, वो समझ गए हैं कि अपने बच्चों को ‘मेकॉले’ के स्कूल में पढ़ा कर हम एक बार फिर गुलाम बन गए हैं। फर्क इतना है कि अब वो वहां बैठ कर इंटरनेट से हमारे बच्चों पर शासन कर रहे हैं।
वो पहले हमारे लिए ज़रूरत पैदा करते हैं, फिर ज़रूरत का माल हमें टिकाते हैं। हमीं से बनवाते हैं, हमें ही बेचते हैं।
आप खुश होते रहिए कि आपका बच्चा तो गिटपिट-गिटपिट अंग्रेजी बोलता है। सुबह-सुबह गुड मॉर्निंग बोलता है। पर सात समंदर पार से आए मेहमान आपको नमस्टे कह कर आपके बाज़ार का अध्ययन करके अमेरिका लौट जाएंगे और फिर आपसे बेहतर हिंदी और अंग्रेजी बोल कर आप पर हु्क्म चलाएंगे।
तैयार हैं न आप? होना भी चाहिए। आख़िर आपने अपने बच्चे को साहबों के यहां काम करने लायक शिक्षा इसीलिए तो दी है।
*दुःखद* या *सुखद*
आप निर्णय कीजिए
संजय सिन्हा