किसी ने कहा, ऐसा कोई दौर, ऐसा कोई वक्त नहीं हुआ, जब व्यक्ति या समुदायों ने बीते हुए वक्त को बहुत अच्छा व गर्व करने वाला ना कहा हो और भविष्य या आने वाला वक्त को लेकर बेहद आशंकित न रहे हों।
यानि, कहने का तात्पर्य यह कि ज्यादातर लोगों को बीता वक्त बेहतर दिखता है और आने वाला वक्त बेहद अनिश्चित। बीता पल अच्छा, आने वाला पल डराने वाला, तो क्या यह स्पष्ट माना जाये कि अमूमन, आम इंसान अपने वर्तमान के पलों को, कभी भी अपनी पूर्ण क्षमता के अनुरूप नहीं जी पाता। इसलिए ही तो उसे ऐसा लगता है कि गुजरे पलों में ही उसने बेहतर किया और आने वाले पलों में उसकी जिंदगी और भी जटिल और कठिन होने वाली है।
या, इसे इस नजरिये से देखें कि बीता हुआ वक्त एक ठोस हकीकत बन जाता है। इतिहास एक तरह से मूर्त व स्थायी यथार्थ व दर्ज दस्तावेज जैसा बन जाता है, जिसे साफ तौर पर परखा जा सकता है। भविष्य के बारे में हमेशा ही अनिश्चितता बनी रहती है, वह अमूर्त होता है।
तो क्या ऐसा है कि हम सब वर्तमान में भी जिये जा रहे पल को लेकर कभी भी पूर्णतः न आश्वस्त होते हैं न हीं पूर्ण नियंत्रण में। या तो बीते पल में जीते होते हैं या फिर आने वाले पल को लेकर चिंता या भय में...!
संभवतः, जो वर्तमान का अपना मूल चरित्र है, वह भी हमें कभी उसे नियंत्रित कर पाने की सुविधा नहीं दे पाता। कुल मिलाकर चंद सेकेण्ड ही तो हाथ में होते हैं। वर्तमान इतना ही तो होता है... अभी आया, हम संभल भी नहीं पाये कि गया...! कोई भला इस भागते पल को कैसे पकड़े... और जिसे पकड़ ना पायें, उसे नियंत्रित कैसे करें...!
देखें और समझें... वक्त ही नहीं, हमारी चेतना भी बिलकुल ऐसी ही है। किसी भी जिये जा रहे पल में हमारी चेतना भी बहाव में होती है... ये आई और वो गई... इसे उस खास पल या वक्त के चंद लम्हों में पकड़ पाना बिलकुल असंभव दिखता है। इसलिए ही शायद हमारी चेतना भूतकाल में बेहतर दिखती है और भविष्य को लेकर आशंकित...!
मगर, हजारों सालों से, हमारे बेहद सफल व महान पूर्वजों ने हमें कहा है कि इस भागते पल एवं बिखरी हुई चेतना को समेट कर बांध पाना बिलकुल मुमकिन है। और यही जीवन की सबसे प्रबल व लाभकारी उपलब्धि भी। जो बीते पल, वर्तमान का क्षण और भविष्य के पलों को एक तार में, एक सीधी रेखा में, टुकड़ों में नहीं बल्कि एक पूर्णता में देख पाता है, वही बुद्ध है... जिसकी चेतना भूत, वर्तमान व भविष्य के दायरों से उपर उठ कर समय व अनुभूति को एकरूपता व तारतम्यता में देख-समझ पाता है, वही ब्राह्मण है... वही ब्रंह्म है....!
यही बात तो वि ज्ञान भी कहता है... यथार्थ जब एक हो, तो इंसान का हर ज्ञान एक ही बात तो कहेगा... समझने वाले इसे अलग करके देखने की जिद लिए बैठे हैं। इसलिए, विज्ञान के नजरिये से वक्त, यानि टाईम को जानें-समझें। टाईम एंड स्पेस की अवधारणा को सायंस के नजरिये से देखने से हमारा आध्यात्म बुलंद होता है।
तो चलिए, हम सब जीवन को, अपनी चेतना को, उसकी निरंतरता को, उसके सतत् प्रवाह को, उसके एकत्व बोध को, उसकी एकतारता को, भूत-वर्तमान-भविष्य के टुकड़ों में ना बांटें, बल्कि उसे एक ही निरंतरता व प्रवाह में मंजूर करें और उसे न सिर्फ पूर्ण क्षमता से जियें बल्कि एक उत्सव-भाव से आह्लाद में जियें...
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# लेख क की नयी ई-बुक, ‘यूं ही बेसबब’ से...
https://www.smashwords.com/books/view/723852