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वो आखिरी लोकल ट्रेन

23 अगस्त 2017

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शुक्रवार की वो सुनसान रात जहाँ लोग रात के ९ बजे से ही घर में दुबक जाते हैं, वहाँ रात ९ बजे से ही कब्रिस्तान जैसा सन्नाटा छा जाता है। कड़ाके की इस ठंड में हड्डियाँ तक काँपने लगती हैं, बाहर इंसान तो क्या कुत्ते का बच्चा भी नजर नहीं आता फिर भी कुत्तों के रोने की आवाज़ कानों के पर्दे फाड़ रही थी। सड़क पर लगा स्ट्रीट लैम्प भी बार-बार जल बुझकर माहौल को और डरावना बना रहा था मानो किसी एलियन शिप (UFO) को देख लिया हो। ठंड से ठिठुरती उस सुनसान रात में एक साया बेतहाशा भागा जा रहा था, दौड़ते-दौड़ते उसकी साँस बुरी तरह फ़ूल रही थी पर वो रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। बेचारा दौड़ते हुए़ अपनी घड़ी बार-बार देखकर बेचैन था, शायद कहीं जाने की जल्दी थी उसे और कमीनी किस्मत भी देखो! ……… वो बेचारा मैं ही था।


२९ दिसम्बर सुबह के ८ बजे - दिन रोज की तरह ही था। सुबह उठना, अलार्म बंद कर फिर सो जाना फिर ७ बजे घड़ी देखकर एैसे चौकना जैसे गर्लफ्रेंड के बिस्तर पर बीवी को देख लिया हो। दौड़ते-दौड़ते बस पकड़ना फिर गाय-बकरियों की तरह ठूँस-ठूँस कर भरी ट्रेन में घुसने पर एैसे जशन मनाना जैसे ओलम्पिक से मेडल जीत लिया हो।


सचिन भाईसाहब, ऑफ़िस में मार्केटिंग एक्ज़िक्यूटिव हैं, हर काम में नंबर एक, हिस्ट्री, राजनीति से लेकर खेल तक कुछ भी पूछ लो, मजाल है कि जवाब ना हो इनके पास?


मुंबई एेसी नहीं थी पहले पर पिछले कुछ सालों से यहाँ का मौसम काफ़ी बदल गया है। ठंड से मेरे दाँत बज रहे थे और दौड़ते-दौड़ते अब मेरी हड्डियाँ भी ठुमरी गा रही थी। मैंने घड़ी देखी, रात के १ बजकर १५ मिनट हो रहे थे, दिनभर व्यस्त रहने वाली सड़क पर आज सन्नाटा पसरा था। दादर स्टेशन अब कुछ ही दूर था पर मुझे जल्दी करनी होगी अन्यथा मेरी आखिरी लोकल भी छूट जाएगी। साल का आखिरी सप्ताह है ये और अगले तीन दिनों तक लोग छुट्टियों में मौज मनाएँगे, सचिन ने बहुत कहा कि मैं उसके साथ नये साल की पार्टी में चलुँ पर मुझे घर पर आराम करना था, पिछला हफ़्ता बहुत ही व्यस्त था और कम्बख्त बॉस ने काम करवा-करवा कर मेरा तो तेल ही निकाल दिया। क्रिएटिव डिज़ाईन जॉब ही एैसा है। यही सोचते-सोचते दादर स्टेशन सामने दिखा तो जान में जान आई, मैं दौड़कर प्लेटफ़ार्म नंबर ५ पर पहुँच गया और ट्रेन का इंतज़ार करने लगा।


दादर यूँ तो कभी खाली नहीं रहता पर शायद न्यू ईयर की वजह से आज पूरा सुनसान था। मुझे जोर से भूख लग रही थी लेकिन प्लेटफ़ार्म की सारी दुकानें बंद हो चुकी थी। पास ही में एक कुर्सी पर एक बूढ़ा कंबल ओढ़े बैठा था, दुबली-पतली कद-काठी, साँवला रंग, चेहरे पर पड़ी झुर्रियाँ उसकी जिन्दगी के संघर्षों की दास्तान बयाँ कर रही थी। पहले-पहल मुझे लगा कि वो बूढ़ा सो रहा था पर थोड़ा ध्यान से देखने पर लगा जैसे वो कुछ बुदबुदा रहा हो।


“बाबाजी! क्या १:३० की पनवेल लोकल लेट है?” मैंने बूढ़े से पूछा। उसका बुदबुदाना बंद हुआ और उसने आँखें खोलकर मेरी तरफ़ गुस्से से देखा, शायद मैंने उसे डिस्टर्ब कर दिया। मैंने माफ़ी माँगते हुए कहा “माँफ़ कीज़िए बाबाजी, मुझे लगा कि आप जाग रहे हैं इसलिए पूछ बैठा”, मैं वापस जाने के लिये मुड़ा तो बूढ़ा बोला “आज तू घर नहीं जा पाएगा……”।


मैंने अचरज से उसे देखा, वो आगे बोला “तुम्हारी गाड़ी निकल गई है ……”, “क्या??.......” मेरा दिमाग खराब हो गया, …….. ऑफ़िस से यहाँ तक दौड़ना बेकार गया। मैं धम्म से पैर पटकते हुए पास वाली बैंच में बैठ गया। बूढ़ा अभी भी मेरी तरफ़ ही देख रहा था, मैंने झल्लाते हुए कहा “अब क्या हुआ बाबा? मैंने माफ़ी माँग ली है आपसे! अब मैं आपको परेशान नहीं करूूँगा”।


बूढ़ा चुपचाप पूड़ी-सब्जी खाने लगा, उसको खाते देख मेरी भूख और भड़क उठी पर स्टेशन के अंदर सारी दुकानें बंद थी, मैंने सोचा स्टेशन के बाहर जाकर देखता हुँ, शायद कोई दुकान खुली हो तो खाने का जुगाड़ हो। मैं उठा और जाने के लिये मुड़ा तो बूढ़ा फिर बोला “कोई फ़ायदा नहीं है!...... बाहर सारी दुकानें बंद हैं, तुम्हें कुछ भी नहीं मिलेगा”। मैंने पलटकर आश्चर्य से पूछा “तुम्हें कैसे पता बाबा कि मुझे भूख लगी है और मैं खाना लेने जा रहा हुँ?” बाबा के चेहरे पर रहस्यमयी मुस्कान थी।


बाबा ने बिस्किट का पैकेट मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा “भूखे रहना अच्छा नहीं होता, ये खा लो!” …… मैं बाहर किसी के हाथ का दिया कुछ नहीं खाता हुँ इसलिए मैंने मना कर दिया। बाबा हँसते हुए बोले “तुम बिल्कुल भी नहीं बदले गदाधर सिंह!”


मैंने सतर्क होते हुए कहा “मैं आपकी उम्र देखकर आपका सम्मान कर रहा हुँ लेकिन मैं बेवकूफ़ नहीं हुँ, ……. ना तो मेरा नाम गदाधर सिंह है और ना ही आप मुझे जानते हैं”।


“मैं तुम्हारे लिये ही यहाँ आया हुँ, ….” बाबा की बातों से मुझे अब चिढ़ होने लगी थी मैंने उन्हें बीच में ही टोकते हुए कहा “आप फ़ालतू बातें करके मेरा वक्त बर्बाद कर रहे हैं, आप मेरे बारे में कुछ भी नहीं जानते हैं!”।


बाबा थोड़ा उदास होते हुए बोले “सही कहा मैं तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानता, …….. वैसे तुम्हें पूज़ा से अपने दिल की बात कह देनी चाहिये!”। मुझे लगा जैसे किसी ने मुझे ४४० वोल्ट का करंट मार दिया हो, बूढ़े को ये कैसे पता चला कि मैं पूज़ा को मन ही मन पसंद करता हुँ? ये बात सिर्फ़ मेरे अलावा कोई नहीं जानता, यहाँ तक की मेरे कम्प्यूटर के पासवर्ड में भी उसका नाम नहीं है।


मैं बाबा को कुछ पल देखता रहा फिर बोला “ये तुम्हें कैसे पता चला?” बूढ़ा मेरी तरफ़ घूरते हुए बोला “और भी बहुत कुछ पता है तुम्हारे बारे में”। मेरी हैरानी बढ़ती जा रही थी, बूढ़े को कैसे पता चला पूज़ा के बारे में? …. क्या बाबा ने सिर्फ़ अंधेरे में तीर छोड़ा जो इत्तेफाक से निशाने पर जा लगा? मैं इसी उधेड़-बुन में था कि अचानक ट्रेन की आवाज़ आई, तो बूढ़ा झूठ बोल रहा था और मेरा वक्त बर्बाद कर रहा था।


मैं दौड़कर ट्रेन में चढ़ गया, ट्रेन पूरी खाली थी, कम्पार्टमेंट में सिर्फ़ एक आदमी गहरी नींद में पड़ा हुआ था। मैं सामने वाली सीट पर बैठ गया, मेरी आँखें नींद से बोझिल हो रही थी। महज ३० सेकंड्स में ट्रेन चल दी, जैसे ही ट्रेन चली किसी ने जोर से आवाज़ दी “गदाधर सिंह! …..” नाम सुनते ही मैं अनायास ही पलटा, बूढ़ा मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुरा रहा था, वो फिर बोला “सज्जन सिंह मिले तो उन्हें ये दे देना”, यह कहकर उसने कुछ मेरी तरफ़ फेंका जो मैंने अनायास ही लपक लिया। गाड़ी अब गति पकड़ चुकी थी और साथ ही मेरे विचार भी। वो कपड़े कि एक छोटी सी थैली थी जिसमें एक पान-सुपारी, सरौती और नमक था, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। बूढ़े ने ये मामूली सी चीज़ मुझे क्यों दी? और कौन सज्जन सिंह?....... ये नाम तो मैंने पहले कभी नहीं सुना”।


बूढ़ा सच में पागल था, पर जब बूढ़े ने मुझे गदाधर सिंह कहकर पुकारा तो मैं पलटा क्यों? अगर यह मेरा नाम नहीं है तो मुझे क्यों लग रहा है कि जैसे इस नाम और सज्जन सिंह का मुझसे गहरा नाता है?

एक बार इन सवालों के चक्रव्यूह में फँसा तो उलझता ही चला गया और इस उधेड़-बुन में निंदिया ने कब मेरी आँखों में नींद की स्याही उड़ेल दी पता ही नहीं चला।


शायद एेसी गहरी नींद मुझे बरसों बाद आई थी, न कोई चिंता, न कोई दुःख और ना किसी बात की सुध। चारो तरफ़ एक अजीब सी शांती थी, ना तो पूरा अंधेरा था और ना ही पूरा उजाला, पास ही कहीं से ढोल-मंझ़ीरे की मधुर आवाज़ आ रही थी। मुझे ठंड लग रही थी, बेतहाशा ठंड …… अचानक हल्की सुखद गर्माहट ने मुझे चारों तरफ़ से घेर लिया और मैंने करवट बदली। भजन की दूर से आती आवाज़ के साथ घंटे की कर्णप्रिय ध्वनी मेरे मन को बड़ा सुकून पहुँचा रही थी। घंटे के अलावा कुछ और आवाज़ें भी मुझे आ रही थी जो धीरे-धीरे साफ़ और तेज होती जा रही थी। कुछ लोगों के फुसफुसाने की आवाज़ें आ रही थी “कौन है ये? …… शायद कोई अंग्रेजी बाबू है, …….. अरे नहीं हो! कहीं ये कोई डाकू तो नहीं? ……..सुर के नाती! ये किसी बड़े घर का लगता है, कपड़े देखे इसके? सीधा इंग्लैंड से मँगवाए लगते हैं ……… तुम लोगन का दिमाग ना चली! एे चुनुआँ! …. जा जाकर दारोगा को बुला ला! ……… अरे रुको जरा, पहले देख तो लेंते हैं कि ये बागी तो नहीं है, वरना ये बेकार में मारा जाएगा”।


अचानक दो साये मेरे पास आए “एे भैय्या! उठो हो, तुम ठीक हो जईहो! वैद्य अभी अाते ही होंगे”। एक धुंधला सा साया मेरे करीब आया और मुझे जोर से हिलाने लगा “उठो भैय्या! कब तक सोईहो? ………. उठो!! …….. उठो!!!!!!”। अचानक जोरदार आवाज़ गूँजी 'धाँ!!.....य……”, मेरी आँखें खुल गई थी।


मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है, मैंने उठने की कोशिश की लेकिन एक जनाना आवाज़ ने मुझे रोक दिया “नीचे झुको! नहीं तो गोली लग जाएगी”। मैं अभी भी खुद को संभालने की कोशिश कर रहा था, क्या हो रहा है यहाँ? ……. मैं पूरे होश में आ रहा था और मेरी इंद्रियाँ भी अब काम कर रही थी। मैं सुन पा रहा था, मैं देख पा रहा था पर समझ नहीं पा रहा था कि मैं कहाँ हुँ। ये लोग भाग क्यों रहे हैं? …….. और ये गोलियाँ क्यों चल रही है? क्या कोई आतंकी हमला हुआ है? पता नहीं, पर ये लोग पुराने जमाने के कपड़े क्यों पहने हुए हैं? मैं बाजार की किसी दुकान में था जो बहुत ही पुराने लग रही थी। मिट्टी से बनी दीवार पर एक तस्वीर टंगी हुई थी जिसमें महात्मा गाँधी सूत कात रहे थे। लकड़ियों के बड़े-बड़े खम्बो से पूरी छत बनी हुई थी जिसमें ना जाने कितनी चिड़ियाओं ने घोंसला बनाया हुआ था। छत से टँगी एक जूट की पोटली थी जिसमें शायद खाना रखा जाता था। बाहर अभी भी गोलियों की आवाज़ आ रही थी। मैंने दीवार की आड़ लेकर बाहर देखा, ये किसी गाँव का बाज़ार था, लकड़ी की गुमटियों पर पूज़ा का सामान रखा हुआ था जिसमें रखा सिंदूर पूरा गिरकर गली को लाल कर चुका था। बगल में ही परचून की दुकान में पूरा सामान अस्त-व्यस्त था।


सड़क के किनारे फ़ुटपाथ पर ढेर सारे मटकों की दुकानें थी जिनमें एक भी मटका साबुत नहीं बचा था। बाँयी तरफ़ सूती कपड़ों की दुकानें थी, लाल रंग में सूती कपड़े मेरी आँखों को थोड़ा चटख लग रहे थे। मैंने पास जाकर देखा तो वहाँ का नज़ारा देखकर मुझे उबकाई आ गई, वो सूती कपड़े पहले सफेद थे जो लोगों के खून से रंगे हुए थे। यहाँ-वहाँ कितने लोग मरे पड़े थे इसका अंदाजा लगाना मुश्किल था।


मेरी आँखें हैरत से फ़टी रह गई, इतना वीभत्स हमला? क्या बिगाड़ा था इन गाँववालो ने? और इस गाँव में आतंकी हमले का मकसद मेरी समझ से परे था। मैं कपड़ों की दुकान से बाहर आया, पूरी गली में लाशे बिछी हुई थी। तभी गोली चलने की आवाज़ गूँजी और मेरे कदम अनायास ही उस तरफ़ बढ़ चले। जैसे-जैसे मैं आगे बढ़ता गया, गोलियों की आवाज़ के होती गई। गली के आखिरी छोर पर पहुँचा तो चारों तरफ़ चीख-पुकार मची हुई थी। इधर-उधर नज़र घुमाने पर मुझे एक रायफ़ल दिखी और मेरे अंदर के सैनिक ने उसे उठाकर लोड कर लिया। भले ही मैं मरूँगा पर कम से कम एक को तो मार कर दम लूँगा।


मैं आगे बढ़ा तो देखा चार लोग खाकी वर्दी में भीड़ के ऊपर लगातार गोलियाँ चला रहे थे। वो चारों बड़े आराम से अपनी रायफ़ल लोड़ करते और गोलियाँ दागते जैसे उन्हें पता था कि यहाँ कोई नहीं आएगा। मेरे सामने निहत्थे लोग मर रहे थे और मेरा रोम-रोम गोली चलाने को बेताब था पर एैसे में मैं चारों को नहीं मार पाता और ये खूनखराबा ना जाने कब तक चलता। मुझे तरकीब से काम लेना था।


मैं बगल वाले मकान से घूमकर उनके पीछे गया तो उनकी बख्तरबंद गाड़ी थी जिसमें ड्रायवर बैठा हुआ था। मैंने अपने सेलफ़ोन में ठीक तीन मिनट का अलार्म लगाया और फोन को मैंने ड्रायवर की तरफ़ नीचे फेंक कर गाड़ी के आगे घिसटता हुआ जा छुपा। ठीक तीन मिनट बाद मेरे फोन का अलार्म बजा जिसे सुनकर ड्रायवर बाहर आया और फ़ोन को देखने लगा। मैंने उसके पीछे जाकर हँसिए (गनासा जिससे धान काटा जाता है) का जोरदार प्रहार उसकी गर्दन पर किया और वो नीचे गिरकर मर गया।


मैंने गाड़ी चाबी निकाली और गाड़ी स्टार्ट कर पूरी गति से उन चारों की तरफ़ दौड़ा दी। वो चारों इस बात से बेखबर भीड़ पर दनादन गोलियाँ चला रहे थे, उन्होंने पीछे से हमले की उम्मीद भी नहीं की थी। जब गाड़ी उनसे सिर्फ़ दस मीटर की दूरी पर थी तब उन्हें आने वाली मौत का अहसास हुआ पर तब तक देर हो चुकी थी। दो तो सीधे मेरी गाड़ी के नीचे आकर कुचल गए, तीसरा गाड़ी से टकराकर भीड़ में जा गिरा जहाँ लोगों ने उसे मार डाला। तीसरा शायद पहले ही कूद कर बच गया था। गाड़ी मेरे नियंत्रण से बाहर होकर पलट गई और मैं घायल हो गया। थोड़ी देर में मुझे होश आया और मैंने बाहर निकलने की कोशिश की पर दरवाजा टक्कर से जाम हो गया था। मैंने दूसरी तरफ़ को लात मारना शुरू किया, पहले वार में कुछ नहीं हुआ, दूसरे वार में दरवाजा जरा सा हिला। मैं तीसरा वार करता इससे पहले ही दरवाजा खुल गया और एक सख्त हाथ ने मुझे बाहर खींचकर पटक दिया। मेरे बाँए पैर में चोट आई थी और मैं ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था।


“यू ब्लेक इंडियन! तेरा इतना हिम्मत!”, मैंने पलटकर देखा तो वही चौथा जिंदा बचा आतंकी था। मैं घिसटकर आगे बढ़ रहा था, वो मुझ पर चढ़ बैठा और दनादन मुझ पर मुक्कों की बरसात करने लगा। मेरी आँखें धुँधली हो रही थी, वो थोड़ी देर में उठा, रायफ़ल लोड़ की और मेरे सिर पर रख दी। मेरी मौत सामने थी लेकिन मेरे मन को तसल्ली थी कि मैंने कुछ लोगों की जान तो बचा ली।


“धाँय!.......” गोली चली लेकिन वो चौथा आतंकी गिर पड़ा। मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा रहा था, सब धुँधला नज़र आ रहा था, मैं इससे पहले कुछ समझ पाता दो नकाबपोश मेरे पास आए और अँधेरे ने मुझे ढँक लिया।


----- कहानी जारी है अगले भाग में ------

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