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संप्रेषण और संवाद

26 अगस्त 2017

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संप्रेषण और संवाद

संप्रेषण और संवाद


आपके कानों में किसी की आवाज सुनाई देती है. शायद कोई प्रचार हो रहा है. पर भाषा आपकी जानी पहचानी नहीं है. इससे आप उसे समझ नहीं पाते. संवाद तो प्रसारित हुआ, यानी संप्रेषण हुआ, प्राप्त भी हुआ, पर संपूर्ण नहीं हुआ क्योंकि वह प्रेषिती द्वारा समझा नहीं गया. यही है भैंस के आगे बीन बजाना.


संवाद की संपूर्णता तब ही मानी जाती है जब प्रेषक की बात प्रेषिति को पूरी तरह समझ में आ जाती है. मैंने कहा आपने सुना, तो इतने से संवाद पूरा नहीं हुआ, यदि बात आपके समझ में नहीं आई.


जब किचन से आवाज आती है तो आप भागते हो कि किसी पर तेल तो नहीं पड़ गया ? क्योंकि वह कढ़ाई गिरने की आवाज थी. यदि चम्मच गिरने की आवाज होती, तो शायद आप कोई हरकत नहीं करते. आवाज से आपको पता लग जाता है कि यह किस चीज की आवाज है या किसकी आवाज है. ऐसे ही किसी की चीख से आप जान जाते हो कि किसको किस हद की चोट लगी है. आवाज के जिस गुण से इस तरह की पहचान होती है उसे स्पंदन कहते हैं. स्पंदन की तीव्रता और अन्य गुणों पर ही सारा संगीत और संगीत यंत्र निर्भर हैं.


लिखित शब्दों में संप्रेषण और उसकी संवेदनाएँ कोई भी पढ़ा लिखा - पढ़ सकता है, समझ सकता है. बस उस भाषा में साक्षरता से यह बखूबी संभव है. हाँ, अनपढ़ों - निरक्षरों को परेशानी हो सकती है. मौखिक शब्दों संग, शब्दों से परे संप्रेषित संवेदनाओं को पढ़ने समझने के लिए, अति पढ़ा लिखा साक्षर होना कोई जरूरी नहीं है. इसे पढ़ना एक कला है. इन्हें समझने के लिए एक दूसरे को समझना भी कभी - कभी जरूरी हो जाता है. जब शब्द युग्म अपने में एक से अधिक भावनाओं या संवेदनाओं को समन्वयित कर लेता है, तब यह निश्चय करने के लिए कि कौन सी संवेदना / भावना शब्द युग्म के साथ प्रेषित है और कौन सी अवाँछित ही साथ चल पड़ी है, आपसी जानकारी बहुत ही उपयोगी होती है. अन्यथा अर्थ का अनर्थ होने की पूरी संभावनाएं उभर जाती हैं.


खासकर जब दो व्यक्ति कभी औपचारिक तौर पर मिले ही न हों और उनके संवाद की नींव लिखित शब्द ही हों तो शब्दों से परे संप्रेषित संवेदनाओं को सही तौर पर समझ पाना मुश्किल तो है ही.


साँकेतिक संवाद में कभी तो चेहरे की जरूरत नहीं होती, पर ज्यादातर वाकयों में चेहरे के भाव साँकेतिक संप्रेषणों को समझने में बहुत मदद करते हैं. शरीर के अन्याँग भी साँकेतिक संवाद में सहायक होते हैं. जैसे - जैसे परिचय पुराना होता जाता है, वैसे वैसे संवाद में शब्दों की अहमियत घटती जाती है. शब्द-संवाहित संवेदन जल्दी और सही समझ आने लगते हैं.


अंगों का चलन, कथनी करनी का लहजा, चेहरे के हाव भाव, चलने की अदा, यह सब बता देते हे कि मानसिकता क्या है और संवाद उसी रंग में रंग जाता है. पर इसमें की गई एक गलती, सारे संवाद को गलत अर्थ दे जाती है. इसकी संभावनाएँ भी कम नहीं होती. यह एक बहुत बड़ी कमजोरी है. जैसे कि विश्वासपात्र के साथ ही अविश्वसनीय विश्वासघात होता है, उसी प्रकार बहुत पुराना साथी, जिससे गलत समझने की आशा ही न हो, वही गलत समझे तो बात बुरी तरह बिगड़ जाती है. सँभालना बहुत मुश्किल हो जाता है.


चेहरे की चमक, या ढ़ीलापन, चढ़ी हुई त्यौरियाँ, मुस्कुराते या खिंचे होंठ, उठती गिरती निगाहें और पलकें, सुर्ख गुलाबी गाल और होंठ, लाल खड़े कान, नाक और तो और भाल पर पड़ी लकीरें - सिलवटें न जाने क्या क्या कह जाती हैं. आँखों में आँखे डालकर बात करने से बात की विश्वसनीयता और बढ़ जाती है. ऐसा कहा जाता है कि आँखों में आँखें डालकर झूठ बोला नहीं जा सकता.


कुछ लोग लिखावट को देखकर भी व्यक्तित्व का काफी बखान कर लेते हैं. पर यह वि ज्ञान अभी पूरी तरह परिपक्व हुआ सा नहीं लगता है. फिर भी 80-95 % तक सही बताने वाले दिख जाते हैं.


मौखिक संवाद में वक्तव्य का लहजा और लिखित में विराम चिह्नों की उपयोगिता पर सारा दारोमदार होता है. वह वक्तव्य मतलब ही बदल देता है. नीचे लिखे अंग्रेजी वाक्य में देखिए.


A woman without her man is incomplete.


अब पढ़िए.


A woman, without her man, is incomplete.

यहाँ नारी की अपूर्णता की बात हो रही है.


A woman without her, man is incomplete.

यहाँ पुरुष के अपूर्णता की बात हो रही है.


A woman without her man, is incomplete.

यहाँ फिर नारी की अपूर्णता की बात हो रही है.


अंतर दोनों - तीनों में मात्र अर्धविराम की जगह का है. मौखिक में भी अल्पविराम के काऱण उच्चारण में फर्क आ जाएगा. हिंदी में ऐसा ही एक वाकया बहुत चलन में है.


जाने दो मत पकड़ो.

अब पढ़िए -


जाने दो, मत पकड़ो.

जाने दो मत, पकड़ो.


ऐसे ही –


रुको मत, चलो.

रुको, मत चलो.


लिखने में अल्पविराम दिखता है और उच्चारण में विराम का पता चलता है. गलत उच्चारण मतलब में हेरफेर कर सकते है . इससे संवाद पूरी तरह भ्रष्ट हो जाता है. अल्पविराम से उच्चारण में भी बदलाव होता है और तो और मायने भी बदल जाते हैं. उच्चारण की गलतियों से फर्क पड़ने वाले अन्य कुछ -


तुम सलामत रहो.

तुम साला मत रहो.


भले ही अंजाने में हो, पर मतलब तो बदला और सुनने वाला क्या समझे कि सही तौर पर क्या कहा गया है.


एक और :


मेरे एक बंगभाषी दोस्त बस में चढ़ने की आशा करने वाले यात्रियों से अक्सर कहा करते थे – बस जायगा है पर जाएगा नहीं. (यात्री असमंजस में पड़ जाते थे)


आशय : बंगाली में जगह को जायगा कहते हैं वे कहना चाहते हैं कि बस में जगह तो है, पर जहाँ आप जाना चाह रहे हैं वहाँ यह बस नहीं जाएगी. यह उनके भाषायी जन्य उच्चारण की देन है पर संवाद तो भ्रष्ट हुआ और संप्रेषण अपूर्ण.


दो दोस्त आपसी हिसाब पूरा कर तय करते है कि अब तेरेको मेरेको सौ रुपए देने हैं. साथ बैठे तीसरे को समझ नहीं आया कि किसने किसको ₹१०० देना है. संवाद में संशय भरा हुआ है.


एक और मजेदार किस्सा संवाद पर...


संप्रेषण की एक कार्यशाला में प्रशिक्षक ने प्रशिक्षुओं को लाइन में खड़ाकर एक छोर पर खड़े प्रशिक्षु से एक वाक्य कहा –


उसने उसकी बीवी को मारा.


फिर पूरे प्रशिक्षणार्थियों के मुखातिब होकर कहा कि आप यही वाक्य अगले को बताएं. शर्त यह है कि आपसे पहले वाले या वालों के अनुसार वाक्य का जो अर्थ निकलता है, आप उससे अलग अर्थ निकालकर वाक्य कहेंगे. इसलिए आप जोर से कहिए ताकि सब सुन सकें.


सबने अलग अलग लहजे में वाक्य का उच्चारण किया. कुछ खास जो थे –


उसने, उसकी बीवी को मारा.

उसने उसकी बीवी, को मारा.

उसने उसकी बीवी को, मारा.

उसने? उसकी बीवी को मारा ?


ऐसे ही आश्चर्य चिह्न व प्रश्नार्थक चिह्नों के साथ अलग अलग विराम चिह्न अलग अलग स्थान पर लगाते हुए तरह तरह से वाक्य कहे. हाँ कुछ दोहराए भी गए. जब बात घूमकर प्रशिक्षक तक लौटी तब तक तो उसी वाक्य के कई मतलब निकल चुके थे जो संवाद में लहजे व विरामचिह्नों की उपयोगिता को विस्तार देते थे. अब प्रशिक्षु सारे यह सोच रहे थे कि प्रशिक्षक उन सब लहजों का विश्लेषण करेंगे और उन पर सभा में चर्चा होगी. पर हुआ कुछ और. सबका ध्यानाकर्षण करते प्रशिक्षक ने कहा आप सबने बहुत ही अच्छी तरह से वाक्य को अलग अलग अर्थों में दोहराया है. पर एक विधा फिर भी अछूती रह गई. फिर वे सर से इशारा करते हुए बोले –


(एक की तरफ इशारा) उसने, (दूसरे की तरफ इशारा) उसकी बीवी को मारा.


सारी कार्यशाला शाँतता पर आ गई. किसी ने इस सांकेतिकता की ओर ध्यान ही नहीं दिया था. तो ऐसा है संप्रेषण और संवाद. इसमें बहुत सी बारीकियाँ होती हैं. लोग इन्हें नजरंदाज करते हैं और बात को गलत समझ लिया जाता है. जैसे अलग अलग भाषा में संवाद की लिपि अलग अलग होती है वैसे ही अलग उम्र में भी अलग शब्द प्रयोग में आते हैं.


कुछ समूहों के संवाद तो दूसरों को समझ में भी न आएँ. आज के युवों के एस एम एस की भाषा देखिए, उनके लिए एक एक अक्षर लिखना दूभर होता है वे Gr8 लिखते है Great के लिए. For you के लिए 4U लिखते हैं. ये तो दो उदाहरण हुए ऐसे हजारों - लाखों मिलेंगे. छोटे बच्चे सही उच्चारण नहीं कर पाते सो अलग, पर वे शब्द भी अपने ही प्रयोग करते हैं. मुमु पानी के लिए और मंमं खाने के लिए... हर घर के अपने शब्द हैं. बच्चों की तोतली बोली की बात सभी जानते हैं. उस पर और चर्चा की जरूरत महसूस नहीं होती.


अब आते हैं शब्द रहित संप्रेषण की तरफ. दो दोस्त साथ पढ़ रहे हैं, एक ही टेबल पर. एक उठ जाता है और भीतर जाकर तैयार होकर आता है. दूसरे से कहता है -


मैं पिक्चर की टिकट लेने जा रहा हूँ – चलना है. दूसरा सुनता तो है पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देता मतलब मौन.


इसका अर्थ पहला क्या समझे ? संभावनाएं -


1. दूसरे ने सुना नहीं होगा.

2. सुना है पर उसे पिक्चर जाने का शौक नहीं है.


पर पहला अक्सर यही मतलब लेकर चलता है कि इतने पास से तो बताया, सुना तो होगा ही वह जाना नहीं चाहता. (पर हो सकता है कि पढ़ाई में तल्लीन उसने बात पर ध्यान ही न दिया हो.)


यहाँ मौन असहमति हुई.


दूसरे किस्से में मानिए पहला दोस्त कहता है कि मैं पिक्चर की टिकट लेने जा रहा हूँ, तुम्हारे लिए भी ला रहा हूँ.


फिर भी जवाब नहीं आता तो पहला यही समझेगा ना कि उसे कोई ऐतराज नहीं है.

यहाँ मौन सहमति हुई.


इस तरह मौन दोनों अर्थ दे सकता है. हालातों और वक्तव्यों पर यह निर्भर करता है.


शब्द रहित संप्रेषणों पर थोड़ा और –


कुछ महीनों का बच्चा माँ के साथ सो रहा है. माँ का हाथ बच्चे पर होता है. जैसे ही माँ का हाथ किसी भी कारण से बच्चे पर से हट जाता है, बच्चा जाग जाता है और रोने लगता है. माँ फिर अपना हाथ बच्चे पर रख देती है, बस बच्चा चुप, वापस नींद में. यह भी एक प्रकार का संप्रेषण ही है, जो स्पर्श से हो रहा है. हालाँकि इसमें मनुष्य का किया कराया कुछ नहीं है. सब परवरदिगार उस मालिक की मेहरबानियाँ हैं. पर है तो संप्रेषण ही न.


ऐसा ही कुछ होता है जिसका कारण मुझे तो पता नहीं, पर शायद किसी को पता हो, जब लगता है / महसूस होता है / आभास होता है कि फलाँ के साथ कुछ ठीक नहीं है या वह किसी मुसीबत में है. फोन लगाते हैं तो पता चलता है कि उसका एक्सीडेंट हो गया, बीमार है या कुछ - पर तकलीफ है. इसे टेलीपेथी कहते हैं. यह कैसे होता है पता नहीं, पर हाँ खबर तो है कि ऐसा होता है. अनुभव भी किया है.


मुझे ऐसे एक शख्स के बारे में पता है कि वह भोर सुबह उठकर पत्नी को जगाते और कहते मुझे स्वप्न आया है, पिताजी का तबीयत नासाज है मैं अभी स्टेशन जा रहा हूँ. जो भी साधन मिले गाँव जाकर मिल आऊँगा. एक नहीं कई बार ऐसा हुआ है और हर बार उनकी बात में सत्यता पाई गई. मैंने इस अनुभवी व्यक्ति के मुँह से ही इसे कई बार सुना है.


बहुत से ऐसे संप्रेषण होते हैं जिसमें शब्दों की आवश्यकता नहीं होती. चेहरे के हावभाव बहुत कुछ बता देते हैं. इसी लिए चेहरे को मन का आईना कहा गया है. स्वभाव में तनिक फर्क भी मन की बात कह देता है. रोज दफ्तर से लौटकर पत्नी बच्चों की खबर लेने वाला पति किसी दिन धम्म से सोफे पर बैठकर अपने से टाई - जूते खोलने लगे, तो पत्नी को शक तो होता है कि आज कुछ तो ठीक नहीं है. वह पूछने लगती है क्या हुआ ?


दफ्तर से एक महीने की छुट्टी के लिए आप दरख्वास्त देते हो. बॉस बुलाकर कारण पूछता है. आप कहते हो बहन की शादी है मैं भाईयों में सबसे बड़ा हूँ. पिताजी बूढ़े हो चुके हैं सारी जिम्मेदारी मुझ पर ही है इसलिए एक महीने की छुट्टी जरूरी है. उधर मेनेजमेंट की तरफ से बॉस चाहता है कि आप कम से कम छुट्टी लें या न ही लें. आपको समझाता है. ठीक है जी आप बड़े बेटे हो, इसका मतलब नहीं कि सारा बोझ आपके कंधों पर ही हो. छोटों से कहो कि पहले चले जाएं, जरूरत पर आपसे बात करते रहें. वैसे जरूरी हो तो एक बार दो दिन के लिए हो आओ. हाँ शादी में सप्ताह - दस दिन के लिए हो आना.


आपको लगा कि बॉस दस दिन की कह रहा है. महीने की छुट्टी तो मना ही कर देगा. चलो बीस दिन में मना लेते हैं. आप कहते हैं सर हफ्ते दस दिन में बात कैसे सँभलेगी ? कम से कम बीस दिन तो जरूरी हैं. बॉस कहता है देखो काम ज्यादा है, प्रोजेक्ट लाँच सर पर है पंद्रह दिनों से ज्यादा छुट्टी नहीं मिल सकती . अब जाओ अपना काम करो.


आप मन मसोस कर पंद्रह दिन की आह भरते हुए लौट जाते हो. शाम को घर पर खबर देते हो कि पापा पंद्रह दिन से ज्यादा छुट्टी नहीं मिल पाएगी काम बहुत है . प्रोजेक्ट सर पर है, वगैरह.


अब जरा सोचिए इसमें क्या हुआ. पहली बार यदि ऐसा हो रहा है इसका मतलब यह कि आपके बॉस को सूचना मिल गई कि इसकी छुट्टी सीधे 50% काटी जा सकती है. उसे समझ आ जाता है कि कितने दबाव में इसे डिगाया जा सकता है. ऐसे ही और बातें हैं जो आपके क्रियाकलापों से संप्रेषित हो जाती हैं. साराँशतः यह कहा जा रहा है कि आपके प्रत्येक क्रिया से कुछ न कुछ संवाद संप्रेषण होता है, जो आप जान नहीं पाते पर पढ़ने वाले पढ़कर उसका जायज - नाजायज उपयोग कर लेते हैं.


इस तरह इस लेख में संप्रेषण के विभिन्न विधियों की बात की गई. जाने अन्जाने होने वाले संप्रेषणों की बात की गई. मौन का अलग - अलग अर्थ समझा. विभिन्न क्रियाओं से होने वाले संप्रेषणों को जाना और विराम चिह्नों के प्रयोग से पड़ने वाले अंतर को समझा. साथ ही साथ भाषायी फर्क के कारण उच्चारण के फर्क से संप्रेषण में पड़ने वाली बाधाओं पर गौर किया. इस तरह अन्य कई कारण व संप्रेषण पर प्रभाव होंगे जिनका यहाँ जिक्र नहीं है.


इस लेख में गद्य रूपी संप्रेषण या संवाद पर ही ध्यान दिया गया है. काव्यालंकृत कविता , शायरी व गजल जैसी विधाओं की चर्चा नहीं हुई है.

………………

Laxmirangam: संप्रेषण और संवाद

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मन दर्पण

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मेरी नई पुस्तक मन दर्पण का कवर पेज प्रस्तुत है. पुस्तक अप्रेल 2017 तक प्रकाशित हो जाएगी.

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सँभलिए --------------- कभी कभी डर लगता है, वो प्यार न मुझसे कर बैठे, साथ मेरा ले भावुक होकर, घरवालों से ना लड़ बैठे। जो थोड़ा परिवार बचा है वह भी टूटा जाएगा, मैं हूँ अकेला, सदा अकेला, कोई मुझसे क्या कुछ पाएगा।। दोष न दे वो भले मुझे पर, खुद को माफ करूँ कैसे?

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एक पुस्तक की प्रूफ रीडिंग सबसे पहली बात - “प्रूफ रीडर का काम पुस्तक में परिवर्तन करना नहीं है, केवल सुझाव देने हैं कि पुस्तक में क्या कमियां है और उनका निराकरण कैसे किया जाए. अच्छे प्रूफ रीडर पुस्तक उत्कृष्टता बढ़ाने के लिए भी सुझाव दे सकते

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मेरी दूसरी पुस्तक मन दर्पण का आवरण

9 मई 2017
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ISBN 978-81-933482-3-1 गूगल सर्च कर, ऑर्डर कर सकेंगे. अभी प्री-सेल शुरु है. पुस्तक 20 मई से 1 जून के बीच प्रकाशित होने की उम्मीद है.

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पुस्तक प्रकाशन

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पुस्तक प्रकाशन पुस्तक प्रकाशन हर रचनाकार, चाहे वह कहानी कार हो, नाटककार हो या समसामयिक विषयों पर लेख लिखने वाला हो, कवि हो या कुछ और, चाहेगा कि मेरी लिखी रचनाएं पुस्तक का रूप धारण करें. हाँ शुरुआती दौर में लगता है कि यह किसी के लिए

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निर्णय ( भाग -1)बी एड में अलग अलग कॉलेजो से आए हुए अलग अलग विधाओंके विद्यार्थी थे । सबकी शैक्षणिक योग्यताएँ भी समान नहीं थीं । रजत इतिहास में एमए था । उसे लेखन का शौक था और वह बहुत अच्छा वक्ता भी था । उसके लेख व कविताएँअक्सर पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे । प्

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निर्णय ( भाग - 2)

2 जून 2017
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निर्णय ( भाग - 2 ) रजत भी समझ नहीं पा रहा था कि कैसे अपनी भावना संजनातक पहुँचाए। डर भी था कि संजना उसकी बात से नाराज हो गई तो वह उसे हमेशा के लिए हीखो देगा। वह अजब पशोपेश में पड़ा हुआ था।कॉलेज के वार्षिकोत्सव में रंजना ने कई कार्यक्रमोंमें भाग लिया था । एक नाटिका में

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मन दर्पण

2 जून 2017
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मेरी दूसरी पुस्तक मन दर्पण 25 मई 2017 को प्रकाशित हो चुकी है. पाठकगण गूगल पर - ISBN 978-81-933482-3-9खोज कर ई बुक या पेपरबैक आर्डर कर सकते हैं.ईबुक की कीमत रु.100 तथा पेपरबैक की कीमत रु.175 रखी गई है.पेपरबैक पर रु 60 प्रति पुस्तक का अतिरिक्त डाक खर्च लगेगा जो

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एक पौधा

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पर्यावनण दिवस 5 जून के अवसर पर...एक पौधा.मधुवन मनमोहक है,चितवन रमणीय है,उपवन अति सुंदर हैऔर जीवन से ही प्रदुर्भाव है इन सबका.फिर जब जीवन के उपवन से,मधुवन के चितवन तक,हर जगह‘वन ‘ ही की विशिष्टता है.तो क्यों न हम वन लगाएँ ?आईए शुरुआत करें,और लगाएँ....एक पौधा.......

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निर्णय

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बी एड में अलग अलग कॉलेजो से आए हुए अलग अलग विधाओं के विद्यार्थी थे । सबकी शैक्षणिक योग्यताएँ भी समान नहीं थीं । रजत इतिहास में एम ए था । उसे लेखन का शौक था और वह बहुत अच्छा वक्ता भी था । उसके लेख व कविताएँ अक्सर पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे । प्रिया ने बी

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डिजिटल इंडिया – मेरा अनुभव. उस दिन मेरे मोबाईल पर फ्लेश आया. यदि आप जिओ का सिम घर बैठे पाना चाहते हैं तो यहाँ क्लिक करें. मैंने क्लिक कर दिया. मुझे अपना नाम पता, आधार नंबर देने को कहा गया. मैंने दे दिया. फिर मुझसे पूछा गया कि आप जिओ सिम कब और कहाँ चाहते हैं. पता और समय

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टूटते बंधनपाश्चात्य सभ्यता के अनुसरण की होड़ में जो सबसे महत्वपूर्ण बातेंसीखी गई या सीखी जा रही है उनमें जो सर्वप्रथम स्थान पर आता है वह है बंधन मुक्तहोना. जीवन के हर विधा में बंधनों को तोड़कर बाहर मुक्त गगन में आने की प्रथा चलपड़ी है. यहाँ यह विचार का या विमर्श का विषय नहीं है कि यह उचित है या अनुच

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