भावार्थ : - भारत में आज भी बलि-प्रथा ब- दस्तूर जारी है एवं जारी है आज के शिक्षित वर्ग का उसमें अटूट विश्वास, ऐसे ही एक बलि संहार का मैंने अपनी रचना द्वारा वर्णन करने का प्रयास किया है| लोगों के विश्वास (अंध-विश्वास) का चर्मोत्कर्ष यहाँ तक है कि वह बलि के उपरांत अपने बच्चों की बिमारियों को ठीक करने के लिए किसी डॉक्टर से ज्यादा बलि के बकरे की जीभ काट बिना पकाए ही उसे बच्चे को खिला उसका इलाज करना अधिक उपयुक्त समझते हैं|बलि देने से पहले बकरे की पूजा होती है|उसे तिलक,धूप-अगर कर उस पर सभी लोगों द्वारा चावल छिड़के जाते हैं तदुपरांत पानी के छींटे उस पर मारे जाते हैं ऐसा करने पर यदि वह अपने शरीर को हिला कर उन चावलों को गिरा देता है| जैसाकि बहुत ही स्वाभाविक है तो ऐसा मान लिया जाता है कि वह बलि के लिए तैयार है| इसके पश्चात् कुल्हाड़ी के प्रहार से उसकी जीवन लीला का अंत कर दिया जाता है|ऐसा हम केवल धर्माधारित रीति-रिवाज़ों को निभाने हेतु करते हैं अथवा अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए भी धर्माडम्बरों का सहारा लिया जाता है ???...
बाद कटने के भी हिलती रही उस जिव्हा को क्या कहूँ ???
जो रात में बिस्तर पर बच्चे के पेशाब रोकने का टोटका था ज़िन्दगी का!?!
और खुश तो होना ही था इष्ट का अपनी तिमार-दारी में!
कुछ लपलपाती जीभ,
कुछ इंसान की हैवानियत का तरीका था ज़िन्दगी का !?!
बाद कटने के भी हिलती रही उस जिव्हा को क्या कहूँ ???...
काश !... वो देता जुबाँ,
उन बे-ज़ुबानों को ???
तो वो पूछते सवाल रूढ़ियों से,
ये कैसा धर्म ???
ये कैसे रीति-रिवाज ???
ये कैसा खुदा???
जो चाहता बलि निर्दोषों की,
ये कैसा सलीका था जिन्दंगी का!?!
बाद कटने के भी हिलती रही उस जिव्हा को क्या कहूँ ???...
हाथों में पूजा थाल,
मस्तक में टीका,
फिर धूप-अगर करके जो थामी है कुल्हाड़ी,
हे !!! सभ्य समाज,
देख!!! कर जोड़े खड़ा हूँ समक्ष तेरे,
गिड़गिड़ाता आँखों में अश्रुधार लिए,
कंप-कंपाकर,...थर्राकर,
सहमी सी हैं ,जो साँसे ,
चाहती तुझसे तोहफा था ज़िन्दगी का ???
बाद कटने के भी हिलती रही उस जिव्हा को क्या कहूँ ???...
कर्म-काण्ड पूरे करने को,
जो तू डालता चावल मुझ पर,
फिर देता पानी के छीटें उसपर,
घबराकर या ठण्ड से जो मैं झटकूं बदन अपना!!!
स्वीकार है कह के ना काट देना मस्तक मेरा,
जय बोल!!!
जो नाता था मुझसे ज़िन्दगी का!?!
बाद कटने के भी हिलती रही उस जिव्हा को क्या कहुँ???...
एक वार में जो न कट सकी,
कुल्हाड़ी की कुंद धार में,
बाहर आँखें, कंपित दंत भीची जिव्हा,
कटी धमनियों से रिसकर,...स्रवित लथपथ रक्त रंजित धरा,
उसपर लटककर नीचे को झूलती अर्ध-कटी सिरा,
वेदना से छटपटा पैरों को जमीं पे पटकते,
प्रसाद बन दैव का ,...
कराहकर मैं,...
मैं...मैं...मैं कर,.....तड़पकर लहू-लुहान धरती पे लोटता,
और वो केवल अपनी,..." मैं",...को बूझता???....विधाता था ज़िन्दगी का !?!
बाद कटने के भी हिलती रही जिव्हा को क्या कहूँ ???...
चौरासी लाख योनियों के सृजनहार बता!?!
ठूँसकर भूस को मेरे ज़िस्म में,
फिर आग में भुनकर झुलसी मेरी चमड़ी से,.. मेरे बालों को चाकू से खुरचना,
तदुपरांत कटकर मेरा,... टुकड़ों में तुझे भोग का लगना,
हे ईश!!! क्या कभी???...
इस आहुति से प्रसन्न हो मिलेगा अवसर मुझे भी!?!
कि मैं भी कभी थामूं हाथों में कुल्हाड़ी,...
और फिर बदल सकूँ इसे,...ये जो धर्मान्धता का ढ़कोसला था ज़िन्दगी का!?!
बाद कटने के भी हिलती रही उस जिव्हा को क्या कहूँ???...
या फिर,.......यहाँ भी सब कुछ पहले से सुनियोजित है तेरी नियति की तरह?????
बाद कटने के भी हिलती रही उस जिव्हा को क्या कहूँ ?????.....
(मनोज कुमार खँसली "अन्वेष ")