कितना कुछ बदल जाता है , आधी रात को
कवि: शिवदत्त श्रोत्रिय
जितना भी कुछ भुलाने का
दिन में प्रयास किया जाता है
अनायास ही सब एक-एक कर
मेरे सम्मुख चला आता है
कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को....
असंख्य तारे जब साथ होते है
उस आसमान की छत पर
मैं खुद को ढूढ़ने लगता हूँ तब
किसी कागज़ के ख़त पर
धीरे धीरे यादों का एक फिर
घेरा सा बनता है
कोई किरदार जी उठता
कोई किरदार मरता है
मुकम्मल नहीं होता है यादों का बसेरा
रेत सा बिखरता है
कुछ समेटकर उससे सम्हल जाता है
कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को....
सन्नाटे में जब तुम्हे सुनने की
आस जगती है
तुम्हारे लम्स को सोचूँ तो फिर
प्यास लगती है
कभी असीमित आकाश में वो
थक चुका पंछी
नहीं धरती कही उसको अब
पास दिखती है
एक आँख झूमती मस्ती में दूजी
उदास लगती है ||
जब एक आँख से हिमखंड
पिघल जाता है ||
कितना कुछ बदल जाता है, आधी रात को....