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लेख--ये तो उत्तम प्रदेश बनने की निशानी नहीं

2 सितम्बर 2017

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गोरखपुर के चर्चे सियासी गलियारों में तेज़ है। तो उसी गोरखपुर के चर्चे जनमानस के जुबां पर भी है। अगस्त महीने के शुरुआती दौर में 60 बच्चों की मौत ने लोंगो को अचंभित कर दिया था। अब जब महीने के आखिर में भी 42 मौत हो गई । तो जनता के पैर के नीचे से जमीं खिसक रहीं है। इसके अलावा वह हतप्रभ, और व्याकुल हो उठी है। वहीं मौत ने गोरखपुर में जो तांडव रचा है। उसनें सूबे की लचर स्वस्थ सुविधाओं, और नीतियों को स्पष्ट किया है। वैसे सूबे की चिकित्सा व्यवस्था का सूरतेहाल किसी से छुपा नहीं है। इसके अलावा सूबा ख़ुद रुगाणुता का शिकार हो चला है। साथ में स्वस्थ सुविधा की क्या स्थिति है? इसको लेकर नियंत्रक और महा लेख ा परीक्षक ने उत्तर प्रदेश की स्वास्थ्य व्यवस्था पर गहरे सवलिया तीर छोड़ें हैं, उससे सत्ता की हनक औऱ भनक दोनो जगजाहिर होती है। इसके अलावा इन सवालों से चिकित्सा व्यवस्था की कलई खुलती नजऱ आती है। सूबे में 50 फ़ीसद प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर डॉक्टरों की कमी है। इसके इतर एक मर्ज़ हमारी व्यवस्था को औऱ लगी है, जिसने सार्वजनिक क्षेत्र को धोखा दिया है। मीडिया रिपोर्ट्स जिसकी साक्षी बनती रहती हैं, कि देश के सरकारी डॉक्टरों को पैसे उगाही से भी तो फुर्सत नहीं। जिसके लिए वे निजी क्लीनिक सत्ता के आंखों में धूल झोंककर चलाते हैं। ऐसे में सवाल बहुतेरे उत्पन्न होते हैं। उसके पहले यह लगता है, कि चिकित्सा व्यवस्था ख़ुद आईसीयू के वेंटिलेटर पर है। उसे फ़ौरी रूप से आक्सीजन उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। अगर सत्तर वर्षों में सरकारों ने कुछ उपलब्ध नहीं करवाया। तो वह बेहतर स्वास्थ्य सुविधा, जल और बुनियादी आवयश्कता है। जो केंद्र और राज्य दोनों की जिम्मेदारी होती है। वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश में पिछले एक वर्ष में कुपोषण से तीस हज़ार बच्चों की मौत हो चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 2016 के एक अध्ययन के मुताबिक , उत्तर प्रदेश में 19.9 फीसदी चिकित्सकों की कमी है। वहीं नर्सों की संख्या के हिसाब से देखें तो देश में नीचे से 30 जिलों में से ज्यादातर जिले उत्तर प्रदेश के हैं। उत्तर प्रदेश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 50 फीसदी तक नर्सिंग स्टॉफ की कमी है। भारतीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में, शिशु मृत्यु दर के मामले उत्तर प्रदेश नीचे से तीसरे स्थान पर है। ऐसे में उत्तम प्रदेश की परिकल्पना ही थोथी दिखती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में कमजोर और लाचार सरकार बेबसी को व्यक्त करती हैं, जो लोकतंत्र को अपमानित करना है। अगर मौत पर वितण्डा खड़ा कर राजनीति का स्वांग रचा जा रहा है, तो वह भी लोकतंत्र की भावना को क्षीण करने जैसा है। मासूम वोटबैंक का हिस्सा नहीं। इसलिए उनकी मौत पर सियासत नहींचाहिए। बल्कि आगे से सबक लेने की सोच उत्पन्न होनी चाहिए। इसके अलावा छोटी मछली को पकड़ने की सनातनी परम्परा को त्याग कर अपनी नैतिक जिम्मेदारी सरकारों को लेनी होगी । इसके अलावा हमारा सिस्टम आज के विगत दौर मे ऐसा ही चलता रहेगा, कि संकीर्ण विचारधारा से ग्रषित हो चुका है, जिसे दूर करना होगा। 2016 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि देशभर में 24 लाख नर्सों की कमी है। उनके मुताबिक 2009 में इनकी संख्या 16.50 लाख थी जो 2015 में घटकर 15.60 लाख रह गई थी। राष्ट्रपति ने सवा अरब से अधिक आबादी के लिए केवल 1.53 लाख स्वास्थ्य उपकेंद्र और 85,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने पर चिंता जाहिर की थी। इसके साथ सरकार मानती है कि देशभर में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। कमी होने के बावजूद प्रतिवर्ष 5500 डॉक्टर ही तैयार हो पाते है। देश में विशेषज्ञ डॉक्टरों की 50 फीसदी से भी ज्यादा कमी है। ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसद है। सरकार ने नई स्वस्थ नीति में सबको मुफ्त इलाज की सुविधा उपलब्ध करवाने की बात कही है। ये तथ्य काफी हैं, कि देश की स्वास्थ्य व्यवस्था कितनी लचर हैं। ऐसे में सरकार का मुफ्त इलाज वादा वादा ही रह जाएगा। जब तक देश में स्वास्थ्य तंत्र को जड़ से मजबूत नहीं बनाया जायेगा। अब अगर वही भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने कहा है, कि जनता कहीँ अपने बच्चों को सरकार के पास न रख दे, तो उससे नए निज़ाम की व्यवस्था न चला पाने की बौखलाहट साफ़ जगजाहिर होती है। और केंद्र के साथ राज्य के बीच अंतर्विरोध साफ़ परिलक्षित होता है। इसके साथ सरकार जनता की दिक्कतों के प्रति कितनी सज़ग, स्वस्थ सुविधाओं को मयस्सर करवाने को लेकर तत्पर, मुस्तैद, संवेदनशील, और ईमानदार है? इसका पता चलता है। तो क्या समझा जाए, कि केंद्र की नई स्वास्थ्य नीति में किए गए वादे भी न्यू इंडिया को दिखाएं गए जुमले ही हैं? आज के दौर मे अगर किसी इलाके को मौत का कुंआ कहा जाने लगे, तो यह सरकार के मुंह पर तमाचा है। ऐसे में सरकार को अगस्त महीने को दोषी ठहराने की प्रवृत्ति को छोड़ना होगा। साथ ही साथ त्वरित कदम उठाते हुए, इन मौतों पर विराम चिह्न लगाना होगा।

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लेख-- लोगों के माथे पर ग़रीब लिखना उचित नहीं

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लेख-- सरकारें बदल जाती हैं, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलतीं

27 दिसम्बर 2017
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सरकारें बदल जाती है, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलती। चुनावी मुलम्मा खड़ा किया जाता है, लेकिन जनतंत्र की आवाज़ को क्यों अनसुना कर दिया जाता है। सामाजिक पैरोकार बनने की बात होती है, लेकिन हकीकत से व्यवस्था मुँह क्यों मोड़ लेती है। तो क्या अब समय आ गया है, कि जनता उग्र हो

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