shabd-logo

लेख-- आज़ादी के साथ अपने दायित्वों और संवैधानिक कर्तव्यों को समझें

3 सितम्बर 2017

187 बार देखा गया 187
भारत परम्पराओं और त्योहारों का देश है। हमारी संस्कृति के परिचायक यहीं तीज-त्यौहार हैं। आज त्योहारों की आड़ में हुलड़बाजी समाज में पनप रहीं है। गणेश पूजन की बात हो, या किसी अन्य त्यौहार की क्या उसकी मूल भावना समाज में जीवित है। इस पर गौर करना चाहिए। क्या गणेश उत्सव को लेकर जो भावना बाल गंगाधर तिलक ने जागृति की थी। समाज उस पर चल रहा है। आज गणेश उत्सव का आयोजन भले हर गली-मोहल्ले में हो रहा है। ऐसे में उसको मनाने की मूल भावना गायब दिखती है। आज गणेश उत्सव का वह स्वरूप नहीं दिखता । जो देखते हुए लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने गणोत्सव को शुरू किया था। उस समय गणेश पूजन राष्ट्रीय एकता के प्रतीक बन गया था। आज केवल मौज-मस्ती के लिए इन उत्सवों को मनाया जा रहा है। लोगों की अपनी स्वतंत्रता के साथ साथ पर्यावरण एवं अपने स्वास्थ्य और अन्य प्राणियों को ध्यान में रखते हुए अपने धार्मिक भाव एवं विचारों को व्यक्त करना चाहिए। जिससे किसी को क्या खुद को भी भविष्य में कोई कष्ट प्रतीत ना हो । गणेश पूजन वर्तमान परिदृश्य में देश के लिए महत्वपूर्ण पर्व के रूप में सम्मिलित हो चुका है । हमें विदित होना चाहिए कि गणेश पूजन की शुरुआत बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र से स्वतंत्रता संग्राम में लोगों को एकजुट होने के लिए किया था। जिसके द्वारा वह लोगों को एकत्रित करके अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़ सकें । वर्तमान में गणेश उत्सव समग्र महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में बड़ी तेजी के साथ पैठ बना रहा है । जहां तक बात करें तो गणेश पूजन अधिकांशता सभी लोग बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। यह त्योहार जहां लोगों को मिलजुल कर रहना सिखाता है। वही लोगों के बीच आपसी प्रेम एवं भाईचारे को बढ़ाने का काम कर रहा है। ऐसे में गौरतलब होना चाहिए की वर्तमान में जहां गणेश पूजन को हर एक घर में मनाया जा रहा है। वही इसके कुछ पहलू ऐसे हैं जो कि उचित नहीं हैं। वर्तमान में गणेश पूजन में मूर्तियों की मांग लगातार बढ़ रही है। हर एक लोग हर वर्ष एक नई मूर्ति की स्थापना करते हैं। बात यहां तक तो ठीक है कि इसकी वजह से कुछ लोगों को अस्थायी रोजगार के अवसर मिल जाते हैं। जिससे कि वे अपने परिवार का पालन पोषण कर सकते हैं, लेकिन यह कोई स्थाई रोजगार के तौर पर नहीं माना जा सकता है। आज के समय में चमक दमक की भारत में ही नहीं पूरे विश्व में मांग बनी हुई है। लोगों को सहज सरल और टिकाऊ चीजों की जरूरत ही नहीं है उन्हें केवल दिखावा ही पसंद है। उसके लिए आप चाहे जिस क्षेत्र की चीजों के लिए उदाहरण ले लीजिए। यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात कहें या अपनी अ ज्ञान ता की आज के वैज्ञानिक युग में चीजें तो बदल गई हैं लेकिन हमारे रहन सहन एवं ढंग पुराने समय से भी बदतर होते चले जा रहें हैं। आज के समय में हम जिस प्रतिमाओं को स्थापित करने के पश्चात विसर्जित करते हैं। हमने शायद ही उस पर गौर किया हो। हम तो बस धर्म और बाहरी दिखावों के नाम पर अंधे हो चले हैं। तिलक के प्रयास से पहले गणेश पूजा परिवार तक ही सीमित था। गणेश महोत्सव का सार्वजनिक रूप देने का कार्य तिलक जी ने किया। उसके साथ गणेश पूजन को धार्मिक कर्मकांड तक ही संकुचित नहीं रखा, बल्कि आजादी की लड़ाई, छुआछूत दूर करने और समाज को संगठित करने तथा आम आदमी का ज्ञानवर्धन करने का उसे जरिया बनाया और उसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया। जिस आंदोलन के कारण अंग्रेजी हुकूमत की जड़ों में दरारें पड़ गई। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था, दो चीजें असीमित हैं−एक ब्रह्माण्ड तथा दूसरी मानव की मूर्खता। आज कल गणेश जी और दुर्गा जी की मूर्तियां प्लास्टर ऑफ़ पेरिस की बनी होती हैं। इन मूर्तियों को नदी, तालाब या समुद्र में डाला जाता हैं। पर्यावरण के दॄष्टि से प्लास्टर ऑफ पेरिस से बनी मूर्तियां हानिकारक होती हैं। जिसके कारण पर्यावरण को नुकसान के साथ लोगों में कैंसर होने का ख़तरा रहता हैं। इसके अलावा ये मूर्तियां जल्द पानी में घुलती नहीं। इसके अलावा पानी की भी बर्बादी होती है। इस वक्त में प्रतिमाओं के निर्माण के लिए प्लास्टर ऑफ पेरिस, जिप्सम जैसे घातक केमिकल का प्रयोग कर रहे हैं। जो हमारे स्वास्थ्य के साथ साथ पर्यावरण एवं जीव जंतु के लिए भी हानिकारक हैं। हमारे यहां बहुत से तीज - त्योहारों में मान्यता है, कि हम उस उपलक्ष्य में मूर्ति स्थापित करने के पश्चात विसर्जित करें। जब हम ऐसे रसायन युक्त एवं पीओपी जैसे पदार्थों से बनी प्रतिमाओं को जिस नदी या तालाब में विसर्जित करेंगे। तो उस नदी का जल प्रदूषित होगा साथ ही साथ नदी का जलस्तर भी कम हो जाएगा। जिसके कारण बहुत सारी बीमारियों के साथ ही साथ पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएगा। एक खास बात और आज के वर्तमान परिदृश्य में साउंड और डीजे का प्रचलन भी तीज-त्योहारों पर बड़ी तेजी के साथ बढ़ रहा है। जिससे पर्यावरण प्रदूषण के साथ साथ मनुष्य को बहुत सारी तकलीफ , जैसे कान की सुनने की क्षमता आदि प्रभावित होती हैं। इन सभी बातों पर गौर करते हुए इस भौतिकवादी परिवेश में लोगों को अपने पर्यावरण के प्रति सचेत होते हुए वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिए। जिससे कि किसी भी जीव जंतु के साथ पर्यावरण को किसी प्रकार का कोई खतरा न हो। धर्म का महत्व अलग तथा कर्म का अपना अलग महत्व होता है। हमें अपने वातावरण एवं आस-पड़ोस को सुंदर और सुशोभित बनाए रखने का प्रयत्न करना चाहिए ऐसा कोई भी कदम नहीं उठाना चाहिए जिससे कोई भी क्षति हो सके। साथ ही साथ जब आज समाज तमाम तरीके के दुर्व्यवहार से फल-फूल रहा है, फ़िर गली-गली में आज़ादी के नाम पर शोर-शराबे का क्या अर्थ। आदमी अपने पड़ोसी को फूटी आँखों से देखकर खुश नहीं। फ़िर सामाजिक दिखावा किसलिए? आदमी अपनी धार्मिक आज़ादी को घर के अंदर रह कर निभा सकता है, या फ़िर सामाजिक बदलाव की तऱफ क़दम उठाए। फ़िर इन विषयों की सार्थकता भी सिद्ध होगी, और पर्यावरण भी प्रदूषित नहीं होगा। मोदी जी ने भी मन की बात में मिट्टी की मूर्ति के प्रयोग की बात कही थी, समाज को उस तरफ़ ध्यान देना चाहिए। जब समाज में छुआ-छूत, और सामाजिक ढांचे का स्वरूप बिगड़ रहा है, फ़िर व्यर्थ की दिखावट क्यों। अगर संविधान ने धर्म और स्वतंत्रता की आज़ादी दी है, तो कुछ सामाजिक और पर्यावरण के प्रति कर्तव्य और उत्तरदायित्व भी, उसका निर्वहन भी आज़ादी के साथ होना चाहिए।

महेश तिवारी की अन्य किताबें

1

लेख-- हुज़ूर न्यू इंडिया की स्थितियों पर नज़र करके तो देखिए

28 अगस्त 2017
0
1
0

भारत को अब डिजिटल इंडिया और न्यू इंडिया का सपना दिखाया जा रहा है। वही भारत में जहां अभी भी गरीब, भुखमरी व्याप्त है। उसको राजनीति क लाभ की दृष्टि से उपयोग करने की रवायत हावी हो रही है। देश की समस्याओं पर राजनीति करके अपनी राजनीतिक

2

लेख-- बाबा न राम के हुए , न रहीम के

28 अगस्त 2017
0
0
0

आज की नजाकत में धर्म पर हावी विज्ञान है। फ़िर भी धर्मांधता का चश्मा समाज पर चढ़ा है। सत्ता का तख़्त सजाती जनमानस है। जनमानस और सियासी रणबाकुरों की फ़ौज लिपटी एक बाबा के चरणों में है। आज देश में न्यू इंडिया का तासा पीटा जा रहा है, क्या न्यू इंडिया में जनमानस धर्मांधता का दामन ओढ़कर और सत्ता बाबाओं की जूती

3

लेख-- खेल के मैदानों से दूर होता बचपन

29 अगस्त 2017
0
0
0

देश में तीव्र गति से बच्चों का झुकाव आक्रमक रवैये और अन्य असामाजिक कार्यों में लग रहा है। जिसका अहम कारण बच्चों की खेलों के प्रति बढ़ती दूरी भी है। आज के समाज में बच्चा जहां घर में माता-पिता की भाग-दौड़ भरी जिंदगी में अकेलेपन का एहसास करता है, वहीं खेलों से बढ़ती दूरी उसके मानसिकता के विकास को भी अवरुद

4

लेख--- अब तो सुधरो

29 अगस्त 2017
0
0
1

संयुक्त राष्ट्र की तरफ से आई एक रिपोर्ट में विस्थापन को लेकर खुलासा हुआ हैं, वह देश की व्यवस्था और लोगों की सोच में बदलाव की तरफ़ इशारा करती है , कि अब प्राकृतिक संरक्षण के प्रति सचेत हो जाओ। इस रिपोर्ट के तहत यह पता चलता है, कि देश में पिछले वर्ष आपदाओं और पहचान के साथ जातीयता की जकड़न से आज़ादी के सा

5

चमकदार इंडिया की ग़रीब दास्ताँ

29 अगस्त 2017
0
4
2

राजनीति और जनता का प्रत्यक्ष मिलन अब मात्र चुनावी हल-चल के वक़्त दिखता है, जब उसके प्रत्याशी जनता रूपी मत को अपना भगवान और उसके साथ तमाम वे रिश्ते- नाते रचने की कोशिश करती है, जिसके जोड़ का धागा बहुत ही नाज़ुक होता है, और उसको बनाया भी इसलिए जाता है, कि क्षणिक उपयोग ह

6

लेख-- उच्च शिक्षा में सुधार का ये तरीका भी हो सकता है?

29 अगस्त 2017
0
0
0

आज एक बड़ी घटना बाज़ार का हिस्सा बनती जा रहीं है। वह है, पोर्टिबिलिटी। मोबाइल नंबर पोर्टिबिलिटी, बैंक पोर्टिबिलिटी। क्या शिक्षा के स्तर पर भी पोर्टिबिलिटी की सुविधा से सकारात्मक असर दिख सकता है? जवाब उत्तरित नहीं, लेकिन आज गाड़ी मझधार में हो, तो सभी घोड़े खोल देने चाहिए। तो क्या हमारी हुक्मरानी व्यवस्था

7

एक देश , एक कानून पर अमल हो

30 अगस्त 2017
0
1
0

देश में आज के दौर में कोई सबसे बड़ा बदलाव दिख रहा है। तो वह 1400 वर्षों बाद देश में मुस्लिम महिलाओं की सुदृढ़ होती सामाजिक स्थिति की ओर बढ़ता क़दम। महिलाएं जो सामाजिक औऱ धार्मिक प्रथा के नाम पर सामाजिक बुराई रूपी तीन तलाक के दंश से पीड़ित थी, उस समस्या से निजात दिलाने का प्रयास सार्थक रहा। अब इस समस्या

8

लेख--- लोकतंत्र के प्रहरियों को तोड़ना होगा, परम्परागत राजनीति की रवायत

30 अगस्त 2017
0
0
0

लोकतांत्रिक व्यवस्था को विस्तार और परिभाषित करने की आज की व्यवस्था में कोई आवश्यकता नहीं हैं। अगर लोकतंत्र सात दशक आज़ादी की आबोहवा में पंख फड़फड़ाने के बाद भी वर्तमान दौर में जातिवाद, परिवारवाद, और तमाम सामाजिक कुरीतियों की साया से आज़ाद नहीं हो सका, तो उसके लिए जिम्मेवार लालफीताशाही भी हैं, क्योंकि अग

9

लेख- किस दिशा में जा रहा समाज

30 अगस्त 2017
0
1
0

इस सभ्यता को हुआ क्या है। कहीं हिंसात्मक माहौल है, कहीं बर्बरता की सीमा लांघा जा रहा है। क्या यहीं लोकतांत्रिक व्यवस्था है। जिस समाज की सभ्यता और संस्कृति के रग-रग में आपसी भाईचारा और वसुुधैव कुटुम्बकम की भावना समाहित है। अगर उस समाज में बर्बरता और हिंसात्मक परिवेश अपने चरम की ओर बढ़ रहा है। फिर यह

10

लेख-- राजनीतिक उदासीनता के शिकार गांव और ग्रामीण

31 अगस्त 2017
0
2
1

भारत की दो तिहाई आबादी अगर जेल से भी कम जगह में रह रही है। तो ऐसे में निजता के मौलिक अधिकार बन जाने के बावजूद छोटे होते मकान और रहवासियों की बढ़ती तादाद प्रतिदिन की निजता को छीन रही है। जिस परिस्थिति में देश में सबको घर उपलब्ध कराने की बात सरकारें कह रही हैं। उस दौर में देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा

11

लेख-- निजी हाथों में सौप कर कैसे सबको शिक्षा दे पाएगी सरकार?

1 सितम्बर 2017
0
0
0

हमारे देश की साक्षरता वर्तमान में लगभग 75 फीसद हैं, तो उसका कारण सरकार की सरकारी स्कूलों की अनदेखी के साथ निजी स्कूलों को बढ़ावा देना हैं। फिनलैंड, नार्वे, अजरबैजान ऐसे देश हैं, जो 100 प्रतिशत साक्षर हैं। यह देश के सामने विडंबना हैं, कि हम अजरबैजान जैसे देश की बराबरी साक्षरता के मामले में नहीं कर प

12

लेख--ये तो उत्तम प्रदेश बनने की निशानी नहीं

2 सितम्बर 2017
0
2
1

गोरखपुर के चर्चे सियासी गलियारों में तेज़ है। तो उसी गोरखपुर के चर्चे जनमानस के जुबां पर भी है। अगस्त महीने के शुरुआती दौर में 60 बच्चों की मौत ने लोंगो को अचंभित कर दिया था। अब जब महीने के आखिर में भी 42 मौत हो गई । तो जनता के पैर के नीचे से जमीं खिसक रहीं है। इसके अलावा वह हतप्रभ, और व्याकुल हो उठी

13

लेख-- आज़ादी के साथ अपने दायित्वों और संवैधानिक कर्तव्यों को समझें

3 सितम्बर 2017
0
0
0

भारत परम्पराओं और त्योहारों का देश है। हमारी संस्कृति के परिचायक यहीं तीज-त्यौहार हैं। आज त्योहारों की आड़ में हुलड़बाजी समाज में पनप रहीं है। गणेश पूजन की बात हो, या किसी अन्य त्यौहार की क्या उसकी मूल भावना समाज में जीवित है। इस पर गौर करना चाहिए। क्या गणेश उत्सव को

14

लेख-- राष्ट्र का उदय और अस्त गुरु के हाथों में

4 सितम्बर 2017
0
1
0

गुरुर ब्रह्मा गुरुर देवो महेश्वरा गुरुर साक्षात परब्रम्ह तस्मै श्री गुरुवे नमः आज यह उक्ति हमारे शैक्षिक परिवेश में शिक्षकों और छात्रों के बीच क्रियान्वित होती नहीं दिखती। आज शिक्षक और छात्रों के बीच खाई गहरी होती जा रहीं है। गुरु हमारे पुनर्जन्म का गर्भ होता है जहां से हमारा सही अर्थों में दोबारा ज

15

लेख-- ब्रिक्स में दिखी भारत की गर्जना

5 सितम्बर 2017
0
0
0

आर्थिक विशेषज्ञो की माने, तो ब्रिक्स देशों की आतंरिक व आर्थिक स्थिति के आधार पर भारत की स्थिति हर दृष्टिकोण से वर्तमान में सबल नज़र आती है। उसके साथ भारत वर्तमान दौर की विश्व व्यवस्था में सबसे मजबूत जनाधार की लोकतांत्रिक सरकार है। साथ-साथ अगर अर्थव्यवस्था की दिशा में भारत तेज़ी से बढ़ रहा है, तो विश्

16

लेख-- व्यवस्था की टूटी चारपाई, मीडिया और हमारा समाज

7 सितम्बर 2017
0
0
0

संविधान में मीडिया को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ माना जाता है। इस लिहाज से मीडिया का समाज के प्रति उत्तरदायित्व और जिम्मदरियाँ बढ़ जाती हैं। मगर क्या वर्तमान वैश्विक दौर में जब कमाई का जरिया बनकर मीडिया रह गया है। वह समाज के प्रति अपने दायित्वों का सफल निर्वहन कर पा रहा है। उत्तर न में ही मिलेगा, क्योंक

17

लेख--- देश में असुरक्षित होता बचपन

10 सितम्बर 2017
0
0
0

आज समाज की स्थिति में असामाजिक तत्वों का समावेश अधिक होता जा रहा है, फिर हम नए भारत का निर्माण किसके लिए कर रहें हैं? जब देश के वर्तमान ही भविष्य के लिए सुरक्षित नहीं, फ़िर क्या बात की जाए? किस संस्कृति और आचरण को महत्व दिया जाए? इस बाज़ार में सब नंगे नजऱ आ रहें हैं। आज समाज को हवशीपने का जो ज्वार लगा

18

लेख-- लोगों के माथे पर ग़रीब लिखना उचित नहीं

25 दिसम्बर 2017
0
1
0

वो राम की खिचड़ी भी खाता है, रहीम की खीर भी खाता है, वो भूखा है जनाब उसे, कहाँ मजहब समझ आता है। किसी न काफ़ी विचार-विमर्श के बाद इन लाइनों को गढ़ा होगा, लेकिन देश के सियासतदां तो धर्म औऱ मज़हबी राजनीति से ऊपर उठ सकें नहीं। तभी तो गरी

19

लेख-- सरकारें बदल जाती हैं, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलतीं

27 दिसम्बर 2017
0
0
0

सरकारें बदल जाती है, व्यवस्थाएं क्यों नहीं बदलती। चुनावी मुलम्मा खड़ा किया जाता है, लेकिन जनतंत्र की आवाज़ को क्यों अनसुना कर दिया जाता है। सामाजिक पैरोकार बनने की बात होती है, लेकिन हकीकत से व्यवस्था मुँह क्यों मोड़ लेती है। तो क्या अब समय आ गया है, कि जनता उग्र हो

---

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए