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लेख-- व्यवस्था की टूटी चारपाई, मीडिया और हमारा समाज

7 सितम्बर 2017

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संविधान में मीडिया को लोकतंत्र को चौथा स्तम्भ माना जाता है। इस लिहाज से मीडिया का समाज के प्रति उत्तरदायित्व और जिम्मदरियाँ बढ़ जाती हैं। मगर क्या वर्तमान वैश्विक दौर में जब कमाई का जरिया बनकर मीडिया रह गया है। वह समाज के प्रति अपने दायित्वों का सफल निर्वहन कर पा रहा है। उत्तर न में ही मिलेगा, क्योंकि लोकप्रियता का तमगा हासिल करने का जो बुखार हमारे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को लगा है। उसके साथ प्रिंट मीडिया के कुछ एक स्वामित्व ऐसे भी हैं, जो बाबाओं के लिए माहौल तैयार करते दिखते हैं। क्या देश मे पत्रकारिता की शुरुआत इसी उद्देश्य के लिए हुई थी? कि अपनी जेब भरने के लिए नेताओं और बाबाओं के चरणों मे गिरकर चरनगुलामी करते रहो, और उनकी चिलम भरते रहो। अगर आज देश में संत- बाबाओं और मुल्लाओं की एक ऐसी फ़ौज तैयार हो रहीं है। जो समाज को अंधेरे में रखकर अपनी नजायज दुकान चला रहें हैं। तो उसकी गुनहगार हमारी लोकतांत्रिक मीडिया भी है। जो पैसों की सेज़ पर सोने की चाहत पालते हुए, इन ढोंगी बाबाओं और मुल्लाओं का खुले आम प्रचार-प्रसार करती है। जिससे आम जनमानस प्रभावित होकर इन बाबाओं और कठमुल्लों के क़दमो में झुक जाती है। फ़िर इन संत, बाबाओं की अपनी अंदुरुनी दुकान चलती है। जिसकी खबर शुरुआती दौर में किसी के पास नहीं होती। आज के वैश्विक युग मे भी अगर हमारी सामाजिक जड़ता पीछा नहीं छोड़ रहीं। तो इसका निहितार्थ यही है,कि समाज ने चन्द्र और मंगल तक उड़ान भले भर ली हो, लेकिन, धर्म और आस्था के नाम पर होने वाला नासूर समाज से दूर नहीं गया है। आज देश में करीब 30 लोगों की जान जाती है, सैकड़ों घायल हो जाते हैं क्योंकि एक धार्मिक गुरु को गुनहगार ठहराया जाता है। धर्म और आस्था के नाम की चिंगारी हिंसा की सुनामी बनकर हजारों सुरक्षाकर्मियों को ध्वस्त करते हुए सड़कों को खून से लहूलुहान कर देती है। देश के कई राज्यों में कानून-व्यवस्था चरमरा जाती है। किसलिए? क्योंकि बहुत से लोगों को उनकी आस्था के आगे किसी कानून, संविधान और नैतिकता की परवाह नहीं है। क्या यही लोकतंत्र की परिपाटी में संवेधनिक ढांचे में रखा गया था? क्या भारतीय राजनीति का असल में यही न्यू इंडिया का प्रारूप है? सवाल तो बहुतेरे हैं, लेकिन जवाब ढूढ़ने होंगे, हमारी व्यवस्था को। समाज को, और उग्र हुई भीड़ को भी सोचना होगा, देश के भीतर क्या एक ढोंगी की हैसियत संविधान, लोकतंत्र और व्यवस्था से भी सर्वोपरि हो सकती है? जिस देश के युवा देश में किसी लड़की के साथ हुए घिनोने अपराध के बाद कैंडिल मार्च करते हैं, फ़िर ऐसी क्या स्थिति निर्मित हो गई, कि बलात्कार के मामले में गुरमीत राम रहीम को अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने पर उनके समर्थकों ने हरियाणा-पंजाब से लेकर दिल्ली-यूपी तक आतंक मचा दिया। इसके साथ इन प्रदेशों को आग की लपटों के हवाले करने की हिमाकत की। आज का हमारा मीडिया लोगों को जागरूक करने की जगह भ्रमित करने का काम कर रहा है। लोकतंत्र के अन्य स्तंभों विधायिका ,न्यायपालिका , और कार्यपालिका के सभी क्रियाकलापों पर नजर रख कर उन्हें भटकने से रोक सकता है , लेकिन विगत कुछ वर्षों से मीडिया सरकारों और संत-महात्माओं के चरणों में नतमस्तक हो चुका है। पैसों की बढ़ती ललक, और अपनी टीआरपी के लिए मीडिया समाज को वास्तविक ता दिखाने से कतराता है। मीडिया अपने विचार रखने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन जब वह बाबाओं के विज्ञापन और विज्ञापन के रूप में कार्यक्रम प्रसारित और प्रचारित करने लगे। फ़िर चंद सवाल उठते हैं। क्या मीडिया उसे मिली आजादी को पूरी जिम्मेदारी से जनहित के लिए निभा पा रही है ? क्या वह अपने कार्य कलापों में पूर्णतया ईमानदार है ? अगर ईमानदार है, तो फ़िर हमारी मीडिया भेड़- चाल चलने को विवश क्यों है। खबरों की प्रामाणिकता भी कोई विषय होता है, वह जल्दबाज़ी के चक्कर में क्यों खो जाता है? जो गुरमीत के मुद्दे में दिखा। हम यहां पर गुरमीत को राम- रहीम से सम्बोधित नहीं कर रहे, क्योंकि कोर्ट के फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है, कि ऐसे संत राजनेताओं और आज की मीडिया की ही देन हैं। जो कि अपने राजनीतिक और पूंजीगत लाभ के लिए सामाजिक व्यवस्था के समानांतर खड़े किए जाते हैं। आज मीडिया को अपने हित की ज्यादा फ़िक्र है। तभी तो वह टीआरपी के चक्कर में पड़ कर विश्वसनीयता को भी खो रहीं है। पिछले दिनों गुरमीत के केस में जो वाकया मीडिया के तऱफ से दिखा। उससे क्या समझा जाए। कोर्ट द्वारा 20 वर्ष की सजा का एलान होता है, और सबसे तेज और पहले ख़बर पहुचाने के फ़ेर में फंस कर मीडिया कौआ कान ले गया कि तर्ज़ पर दस वर्ष की सजा की जानकारी देता रहा। ये तेज और बढ़ती मीडिया का कौन सा रूप है। जो एक ख़बर को सटीकता के साथ समाज के सामने रखने में अपने को सक्षम नहीं पाता। ऐसे में वर्तमान मीडिया से क्या उम्मीद की जा सकती है?

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