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भारतीय तिथिपत्र

15 सितम्बर 2017

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भारतीय तिथिपत्र चाँद्र-सौर (LuniSolar) तिथिपत्र है जिसमें मास की गणना चंद्रमा की गति पर आधारित है और वर्ष सूर्य की गति पर।


चंद्रमा को पृथ्वी की एक परिक्रमा करने में २७.३ दिन लगते हैं किंतु इस बीच पृथ्वी भी सूर्य की कक्षा में लगभग ३० अंश आगे बढ़ जाती है। पृथ्वी की इस गति के कारण पृथ्वी से देखने पर चंद्रमा का आवर्तन काल (पूर्णिमा से पूर्णिमा या अमावस्या से अमावस्या) २७.३२ दिन न होकर २९.५३०६ दिन का प्रतीत होता है। इसके निकटस्थ पूर्णाँक अर्थात ३० दिन को भारतीय तिथिपत्र में एक मास माना गया है।


उत्तर-भारत में मास का प्रारम्भ पूर्णिमा के अगले दिन से और महाराष्ट्र, गुजरात एवं दक्षिण भारत में अमावस्या के अगले दिन से होता है। पूर्णिमा से अमावस्या तक के १५ दिनों को कृष्ण पक्ष और अमावस्या से अगली पूर्णिमा तक के १५ दिनों को शुक्ल पक्ष कहते हैं। इस प्रकार एक मास में दो पक्ष होते हैं। पूर्णिमा और अमावस्या के अतिरिक्त अन्य तिथियों के नाम हैं- प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी और चतुर्दशी हैं जो एक मास में दो बाद आती हैं जिस कारण इनमें भेद करने के लिये मास और तिथि के साथ पक्ष का उल् लेख भी आवश्यक है। पूर्णिमा और अमावस्या के साथ पक्ष का उल्लेख नहीं किया जाता क्यूँकि एक मास में सामान्यत: एक ही पूर्णिमा और एक ही अमावस्या होती है।


सौर-मंडल के पिंडों की गति और स्थिति की गणना सुदूर स्थित तारों या तारों के समूह के सापेक्ष की जाती है। इसकी दो पद्धतियाँ हैं - राशियाँ और नक्षत्र । भारतीय और पश्चिमी दोनों पद्धतियों में १२ राशियाँ मानी गयीं हैं। राशियाँ वास्तव में तारों के समूह हैं जिनके आकार के नाम पर इनका नामकरण किया गया है। १२ राशियाँ सौर-मंडल के ग्रहों की कक्षा (३६० अंश) को १२ भागों में बाँटती हैं। यद्यपि ये राशियाँ समान दूरी पर स्थित नहीं हैं किंतु समझने की सरलता के लिए एक राशि को अपने निकटस्थ दूसरी राशि से ३० अंश की दूरी पर स्थित माना जा सकता है। इन राशियों की पृष्ठ-भूमि में ग्रहों को देखने पर वो किसी न किसी राशि में स्थित दिखायी देते हैं।


दूसरी पद्धति है नक्षत्रों की पद्धति। भारतीय ज्योतिष में ग्रहों की स्थिति की गणना १२ राशियों के अतिरिक्त २७ नक्षत्रों के सापेक्ष भी की जाती है। राशियों की भाँति ही ये २७ नक्षत्र भी तारों के समूह हैं जो ग्रहों की ३६० अंश की कक्षीय यात्रा को २७ भागों में बाँटते हैं और समान दूरी पर न होते हुए भी समझने के लिए ये माना जा सकता है की ये नक्षत्र १३.३ अंश की दूरी पर स्थित हैं। चंद्रमा एक मास में और सूर्य १२ मास में १२ राशियों और २७ नक्षत्रों में घूमता है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, चंद्रमा को पृथ्वी का एक आवर्तन करने में २७ दिन लगते हैं। ये २७ नक्षत्र इन्हीं २७ दिनों को दर्शाते हैं।


१२ राशियाँ हैं - मेष (Arise), वृषभ (Taurus), मिथुन (Gemini), कर्क (Cancer), सिंह (Leo), कन्या (Virgo), तुला (Libra), वृश्चिक (Scorpio), धनु (Sagittarius), मकर (Capricornus), कुम्भ (Aquarius) और मीन (Pisces)।


२७ नक्षत्र हैं - चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र, रेवती, अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनवर्सु, पुष्य, अश्लेशा, मघा, पूर्व फाल्गुन, उत्तर फाल्गुन और हस्त।


जिस मास की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र में होता है उसी उसी के नाम पर उस मास का नाम रखा गया है। चित्रा नक्षत्र के नाम पर चैत्र मास (मार्च-अप्रैल), विशाखा नक्षत्र के नाम पर वैशाख मास (अप्रैल-मई), ज्येष्ठा नक्षत्र के नाम पर ज्येष्ठ मास (मई-जून), पूर्वाषाढ़/उत्तराषाढ़ के नाम पर आषाढ़ मास (जून-जुलाई), श्रवण नक्षत्र के नाम पर श्रावण मास (जुलाई-अगस्त), पूर्वभाद्र/ उत्तरभाद्र से भाद्रपद मास (अगस्त-सितम्बर), अश्विनी के नाम पर आश्विन मास (सितम्बर-अक्टूबर), कृत्तिका के नाम पर कार्तिक मास (अक्टूबर-नवम्बर), मृगशीर्ष के नाम पर मार्गशीर्ष (नवम्बर-दिसम्बर), पुष्य के नाम पर पौष (दिसम्बर-जनवरी), मघा के नाम पर माघ (जनवरी-फरवरी) तथा फाल्गुन/ उत्तर फाल्गुन के नाम पर फाल्गुन मास (फरवरी-मार्च) का नामकरण हुआ है।


ये १२ मास एक चाँद्र-वर्ष के समतुल्य है। २९.५३०६ दिन के १२ मास से एक वर्ष में ३५४.३६७२ दिन हुये जबकि एक सौर-वर्ष में ३६५.२५६३६ दिन होते हैं। इस कारण एक वर्ष में १२ चन्द्र-मास मानने पर सौर-वर्ष की तुलना में १०.८९ या ११ दिन कम हो जाते हैं। इस कारण सौर-वर्ष के सापेक्ष अगला वर्ष ११ दिन पहले प्रारम्भ हो जाता है और लगभग सभी तिथियाँ ११ दिन खिसक जाती हैं। इस प्रकार २ वर्ष और ८.५ महीनों (२९.५३/१०.८९ = २.७१ वर्ष = २ वर्ष ८.५ महीने) में ३० दिन अर्थात १ महीने का अंतर हो जाता है। यदि इस अंतर को न पाटा जाये तो हमारे त्योहार धीरे-धीरे खिसकते हुए एक ऋतु से दूसरी ऋतु में चले जायेंगे और अपनी ऋत्विक प्रासंगिकता खो देंगे। अत: यह संशोधन हर तीसरे वर्ष एक अतिरिक्त मास जोड़ कर किया जाता है जिसे अधिक मास, मलमास या पुरुषोत्तम मास कहते हैं।


एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा के अंतराल को चाँद्र मास कहते हैं। उसी प्रकार एक सूर्य-संक्रान्ति से दूसरी सूर्य-संक्रान्ति को सौर-मास कहते हैं। जब सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है उस दिन को सूर्य-संक्रान्ति कहते हैं। १२ राशियाँ किसी भी ग्रह के आवृत्ति-काल को १२ समान भागों में बाँटती हैं। सूर्य की पृथ्वी के चतुर्दिक आभासी गति का आवृत्ति-काल एक वर्ष है और १२ राशियाँ इसे १२ महीनों में विभक्त करती हैं, अत: एक सूर्य-संक्रान्ति से दूसरी सूर्य-संक्रान्ति के बीच का अंतराल एक सौर-मास कहलाता है।


विषय को सरल बनाने के लिये ऊपर मैंने कहा था कि १२ राशियाँ एक दूसरे से समान दूरी पर अर्थात ३० अंश पर स्थित होती हैं किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। वास्तव में राशियों के बीच की दूरी असमान है। दो सूर्य-संक्रान्तियों के बीच का न्यूनतम अंतराल अर्थात न्यूनतम सौर-मास २९ दिन १० घंटे और ४८ मिनट है और अधिकतम अंतराल अर्थात बृहत्तम सौर-दिन ३१ दिन १० घंटे और ४८ मिनट है। उसी प्रकार चाँद्र-मास का अंतराल भी बदलता रहता है जिसका औसत २९.५३ (२९ दिन १२ घंटे और ४४ मिनट) दिन है। चाँद्र-मास का न्यूनतम अंतराल २९ दिन ५ घंटे ५४ मिनट और अधिकतम अंतराल २९ दिन १९ घंटे ३६ मिनट होता है।


सौर और चाँद्र वर्ष के बीच तालमेल बिठाने के लिये सौर और चाँद्र मास के बीच तालमेल बिठाया जाता है। एक चाँद्र मास में एक सूर्य-संक्रान्ति का पड़ना सही तालमेल को दर्शाता है। चाँद्र-वर्ष और सौर-वर्ष के बीच के ११ दिन के अंतराल और सौर-मास तथा चाँद्र-मास की परिवर्तनशीलता के कारण २ और ३ वर्ष के बीच में कोई एक मास ऐसा आता है जिसमें कोई सूर्य-संक्रान्ति नहीं पड़ती। इसी मास को अधिक-मास माना जाता है। “यस्मिन चांद्रे न संक्रान्ति: सो अधिमासो निगह्यते”। ऐसा संयोग वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद और आश्विन मास में ही सम्भव है इस कारण यही मास अधिक मास हो सकते हैं। दो मास के बराबर एक मास होने के कारण अधिक मास में चार पक्ष होते हैं। अधिक मास का कोई अलग से नाम नहीं होता है। जिस मास में अधिकमास पड़ता है उसी मास को दो मास के बराबर बढ़ा दिया जाता है। उदाहरण के लिए यदि अधिक मास ज्येष्ठ मास में हुआ तो उसके चार पक्षों को प्रथम ज्येष्ठ कृष्ण, प्रथम ज्येष्ठ शुल्क, द्वितीय ज्येष्ठ कृष्ण और द्वितीय ज्येष्ठ शुल्क कहा जाएगा। पिछला अधिक मास सान २०१५ में आषाढ़ मास में पड़ा था इस कारण आषाढ़ ३ जून से प्रारम्भ होकर ३० जुलाई तक रहा था जिसमें १७ जून से १६ जुलाई के अंतराल को अधिक मास माना गया था।


इसी संयोग को पश्चिमी जगत में “Blue Moon” के नाम से जाना जाता है जिसका अर्थ है कि एक मास में दो पूर्णिमा का पड़ना। क्यूँकि यह संयोग एक लम्बे अंतराल के बाद होता है, इस कारण अंग्रेज़ी की कहावत “Once in a Blue Moon” का अर्थ है “कभी-कभी”।


जिस प्रकार हर तीसरे वर्ष में किसी एक मास में सूर्य-संक्रान्ति नहीं पड़ती है उसी प्रकार कई वर्षों (१९ से १४१) में ऐसा भी संयोग आता है जब किसी मास में दो सूर्य-संक्रान्तियाँ पड़ जाती हैं। उस मास को क्षय-मास माना जाता है और उसे गणना में नहीं लिया जाता। “यस्मिन मासे द्वि संक्रान्ति क्षय: मास: स कथ्यते”। ज्ञातव्य है कि हर क्षय मास के ठीक पहले और बाद के मास में कोई सूर्य-संक्रान्ति नहीं पड़ती इस कारण क्षय मास के पहले और बाद के मास अधिक-मास हो जाते हैं।


एक चाँद्र मास में ३० दिन या तिथियाँ होती हैं। एक मास में चंद्रमा ३६० अंश की दूरी तय करता है, अर्थात एक दिन में ३६०/३० = १२ अंश की दूरी तय करता है। तिथि की गणना इसी सिद्धान्त के आधार पर होती है कि जब चंद्रमा सूर्य के सापेक्ष १२ अंश की दूरी तय कर लेता है तब एक तिथि पूर्ण होती है और अगली तिथि आरम्भ होती है। ज्योतिष में सूर्य की गति पृथ्वी की गति दर्शाती है। यद्यपि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी सूर्य के चतुर्दिक घूमती है किंतु पृथ्वी से देखने पर पृथ्वी के सापेक्ष सूर्य घूमता दिखाई देता है। यही कारण है कि तिथि की गणना में चंद्रमा की गति और स्थिति की गणना सूर्य के सापेक्ष की जाती है। क्यूँकि पृथ्वी की सूर्य के चतुर्दिक और चंद्रमा की पृथ्वी के चतुर्दिक कक्षा दीर्घ-वृत्ताकार है इस कारण पृथ्वी से देखने पर सूर्य और चंद्रमा की गति वर्ष भर समान नहीं होती है। इसका प्रभाव तिथि की गणना पर भी पड़ता है और इस कारण तिथि का प्रारम्भ और अंत होने का समय था अंतराल भी सदैव बदलता रहता है। तिथि का अंतराल १९-२६ घंटे तक हो सकता है।


कभी-कभी एक तिथि दो सौर-दिनों तक चलती है, ऐसे में दूसरे सौर-दिन की तिथि को अधिक तिथि कहा जाता है। उसी प्रकार कभी-कभी कोई तिथि एक सौर-दिन के अन्दर ही समाप्त हो जाती है, ऐसी तिथि को क्षय तिथि कहा जाता है और सौर-दिन के सापेक्ष उस तिथि की गणना नहीं होती है। उदाहरण के लिए यदि चतुर्दशी क्षय तिथि हुई तो त्रयोदशी से सीधे अगले दिन अमावस्या आ जायेगी।


आशा है कि यह चर्चा आपको रोचक और लाभप्रद लगी होगी। यूँ तो इस विषय पर बहुत कुछ और भी कहा जा सकता है किंतु आज के लिए इतना ही, शेष फिर कभी।

रेणु

रेणु

बहुत ही ज्ञानवर्धक और अनुपम लेख आदरणीय आशीष जी ----------------------- सादर शुभकामना

18 सितम्बर 2017

AJIT  SINGH

AJIT SINGH

बहुत उपयोगी ।आपको बधाई ।

16 सितम्बर 2017

अजीत सिंहः

अजीत सिंहः

बहुत सुन्दर लेख ज्ञान-विज्ञान से परिपूर्ण आज के अन्धानुकरण के समय में और भी उपयोगी। धन्यवाद नमन आप अपना एक खाता मूषक पर भी बनायें। और हाइक का भी प्रयोग करें।

16 सितम्बर 2017

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