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तो इसलिए लोग इश्क को बला, आफते-जां कहते हैं...?

19 सितम्बर 2017

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अपना वजूद ही इस संसार की सबसे बड़ी दुविधा एवं विस्मयकारी पहेली है। कभी भी, किसी सूरत, इसमैं-बोध’ से बच कर कोई राह चल पड़ने की जुगत नहीं बन पाती। लेकिन, ऐसा नहीं कि अपने वजूद को दरकिनार कर, बेखुदी के रस से खुद को सराबोर नहीं किया जा सकता।

वजूद की जद में रह कर पूर्ण चेतना में जीने का अपना सुख-संतोष है मगर, इस नामुराद मैं की सीमाओं से परे एक बेहद खूबसूरत संसार में कुछ पल अगर मिल पाये, तो समझ आता है कि मैं बोध के दुख दुविधा से बच पाने का एक रास्ता तो है।

इकबाल साहब ने इसलिए कहा-

अच्छा है दिल के पास रहे पासबाने-अक्ल,

लेकिन कभी-कभी इसे तन्हा भी छोड़ दें।

हो सकता है, इसलिए ही कुछ लोग इश्क को बला, यानि आफत कहते हैं। जिनको अपने वजूद के आगे-पीछे कुछ दिखता नहीं, समझ आता नहीं, उनको इश्क आफत लगे, ऐसा मुनासिब ही है। मगर, यह नामुराद इश्क ही है, जो ना-वजूदगी और बेखुदी के रंग दिखाता है और इस रस से रोम-रोम को सराबोर कर जाता है। अब किसी से यह रंग और रस ना संभले, तो फिर खराबी इश्क में नहीं, वजूद के ही किसी पुर्जे में है।

किसी शायर ने कहा-

अपने रिश्ते की नजाकत का भरम रख लेना,

मैं तो आशिक हूं, दिवाना ना बनाना मुझको।

तो मामला यह कि इश्क आशिकी के रंग और रस के लिए है। कोई इसे दिवानगी का नाम दे, उस पर उतर आये, या उतारू हो जाये तो दोष इश्क का नहीं, वजूद की अपनी कारस्तानियों का है। इश्क तो वजूद को फैलाती है, मैं-बोध की असल पहचान कराती है, स्व-बोध को परिमार्जित पुनर्परिभाषित करती है। इश्क वजूद के परतों को खोजने का खूबसूरत जरिया है। अपना वजूद आमतौर पर बेहद छिछले परत में पेश आता है। इश्क इसे गहराईयों तक ले जाता है। अब कोई गहरे जा कर डूब जाये, तो दरिया को दोष दें।

तो एक शायर ने कहा-

है नाखुदा का मेरी तबाही से वास्ता,

मैं जानता हूं नीयते-दरिया बुरी नहीं।

इश्क को जरिया बना कर लुत्फ लेने वाले अगर डूब जायें, दिवानगी पर उतर आयें और अपने वजूद की शैतानियों की सवारी बना डालें, तो फिर इश्क से बड़ी आफत और बला शायद ही कुछ हो। मगर, जो जानते हैं, समझते हैं, उन्हें पता है – ‘इश्क अपने आप में मंजिल है, रास्ता ना बनायें इसे’। इश्क अपने आप में सबसे बड़ी खूबसूरती है, वही पूर्णता की मंजिल है।

एक कवि ने कहा-

रात हसीन, ये चांद हसीन, पर सबसे हसीन है तू,

और तूझसे हसीन तेरा प्यार... तूं जाने ना....

तो कमाल यह है कि इश्कना-वजूद’ भी करता है और इश्क वजूद कोमुकम्मल’ भी करता है! यही तो कारण है कि अपना वजूद और इश्क इस संसार की सबसे बड़ी दुविधा एवं विस्मयकारी पहेली है। हम सब अपने वजूद को लेकर ही इस संसार में संघर्ष करते रहते हैं। जीवन का संघर्ष अपने वजूद की पहचान स्थापना का ही संघर्ष है। मगर, जब इश्क होता है तो समझ में आता है कि वजूद के लिए संघर्ष, वजूद का सिर्फ एक आयाम है। जीवन बहुआयामी है- मल्टीडाइमेंशनल है। और वजूद जीवन के अन्य आयामों का सुख पाने के लिए उन्हें पहचानना समझना होता है।

जब हम इश्क से रूबरू होते हैं, तब वजूद जीवन के सभी अन्य आयाम के दरवाजों के खुलने का मुकाम बन पाता है। यह जो तन्हा सा, बेहद सहमा सा और डूबता-उतरता सा वजूद है - यह जो मैं बोध है, उसका कैसे संसार के हर शय से, सारे दूसरे वजूदों से, हर पत्ता-बूटे से सरोकार बाबस्ता हो जाता है, रिश्तेदारी जुड़ जाती है, आसनाई मुकम्मल होती है और सब में अपने ही वजूद का विस्तार दिख पड़ने लगता है, यह सिर्फ इश्क ही सिखा-समझा सकता है।

इश्क की शायद सबसे खूबसूरत मिसाल भारतीय सभ्यता-संस्कृति से उपजे उस मूलमंत्र में है जो कहता है - वसुधैव कुटुम्बकम, यानि पूरी सृष्टि ही अपना परिवार है। यानि, अपना वजूद और मैं-बोध सृष्टि के हर अंश से जुड़ाव बना पाये, यही जीवन की सुभीच्छा है। अब यह समझना शायद आसान हो पाये कि इश्क में कोई कैसे डूब सकता है और भला इश्क कैसे कोई आफत बला हो सकती है?

बात बस इतनी सी है, हम प्रेम को, करुणा को, आत्मीयता को, सौहार्द को कोई बाहरी वस्तु परिकल्पना ना समझें। यह सब हमारे भीतर, यानि अपने ही वजूद की गहराईयों में है। जो वजूद के, मैं बोध की इन गहराईयों में जा कर, परत दर परत अपने वजूद चेतना के अंशों को देख-समझ पाये, समझिये कि वह आम इंसान नहीं है बल्कि वह सच्चा प्रेमी है। प्रेम के बिना, इश्क के रंग रस के बिना यह आत्म-अन्वेषण हो ही नहीं सकता।

इस संसार में बहुत दुविधाएं हैं और कोई जवाब नहीं बन पाता इनसे बचने का। एक ही रास्ता है और वह है प्रेम का, सच्चे इश्क का। कोई हमें भला-बुरा कह जाये, बेहद चुभती बात कह जाये तो हम गुस्से में ही जाते हैं। मगर अगर प्रेम होगा तो गुस्सा नहीं आयेगा। इश्क ही है जो सिखलाता है कोई भी सही हो सकता है और, किसी के सही हो जाने मात्र से मैं गलत हो जाउं, ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है इस दुनिया में। इसलिए, अगर कोई मुझे गलत भी समझता है, तब भी मैं उससे प्रेम कर सकता हूं क्यों कि, वह भी ठीक है अपनी जगह और मैं भी गलत नहीं अपनी जगह। आज शायद दुविधा या मत-भेद है, मगर अगर प्रेम बरकरार रहा तो देर-सवेर, यह भेद भी मिट जायेगा।

प्रेम है ही चेतना की ऐसी स्थिति जिसमें कोई भी दोष इतना बड़ा नहीं दिखता कि जिसे करुणा के दायरे में ना लाया जा सके। एक बेहद लाजवाब शायरा, परवीन शाकिर ने कहा-

वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया,

बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की...

इश्क हुआ तो करुणा क्षमा हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। इंसान सबसे पहले खुद से ही प्रेम करता है, खुद को ही माफ करने की जुगत में रहता है। प्रेम जब यह सिखा देता है कि मैं इतना विस्तारित है कि उसका अंश सब में है, तो अपने अंशों से करुणा कोई भला कैसे करे। इसलिए ही इश्क मुझसे, आपसे, उनसे, सबसे ज्यादा खूबसूरत होता है!

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** लेख की -बुक, ‘यूं ही बेसबबसे...

संतोष झा

संतोष झा

सबसे पहले तो शब्दनगरी संगठन, आपको लगभग मेरी हर रचना को ‘विशिष्ट लेख’ का सम्मान देने के लिए बहुत धन्यवाद। फिर, बेहद विनम्रता व सहज भाव से यह आग्रह कि यहां बहुत से युवा व अन्य प्रतिभावान सदस्य बहुत अच्छा लिख रहे हैं, आप उन्हें उत्साहित करें। ऐसे भी मुझे लिखना नहीं आता, इसलिए किसी ‘विशिष्टता’ की योग्यता एवं अभिलाषा नहीं रखता। शुभकामनाएं...

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