सच सच बतलाओ...
क्या तुमको तकलीफ़ नहीं होती होगी ...
है याद तुम्हें या भूल गयी हो बीती उन स्मृतियों को
या भूल गयी हो मेरी उन आश्वस्ति भरी उम्मीदों को
तुम कहती थीं ना क्या हम जग के तूफ़ाँ में बह जायेंगे
या मर्यादा के सागर में बहते बहते खो जायेंगे
फ़िर वो बातें जो चुप तुमको मुझको घायल कर जाती थीं
और हर मंज़िल माँझी की नज़रों से ओझल हो जाती थी
तब अनायास ही माथे पर दो मूक अधर रख देता था
क्यूँ अशुभ बोलती हो कहकर होंठों पर कर रख देता था
उन ख़्वाबों की आकृतियों में आशाओं के आकाश तले
उन लम्हों की प्रतिछवियों में उम्मीदों के जो दीप जले
हर वर्तमान को भूल कभी उन संस्मृतियों के मेले में
जब हृदय कभी खोता होगा इक पीड़ा तो उठती होगी ...
सच सच बतलाओ...
क्या तुमको तकलीफ़ नहीं होती होगी ..!१
.........................................................
फ़िर कभी कभी हम राहों पर जब अनायास मिल जाते थे
जब नज़रों से ही नज़रों के अहसास पढ़ लिए जाते थे
जब मर्यादा का ध्यान ऱखे तुम धीरे से कुछ कहती थीं
जब सभी दिशाएँ चंचलतावश हमको देखा करती थीं
जब धीरे चलने पर भी जल्दी से मंज़िल आ जाती थी
जब बिछड़न की वो अंगड़ाई तन और मन में छा जाती थी
जब तुम्हें छोड़ चलने की इच्छा सुध बुध खोने लगती थी
जब प्राण सन्न सकुचे सहमे जीवनगति रोने लगती थी
पर कहो प्रिये क्या तुम अब वो बाट नहीं तकती होगी
इक खोज लिए बाहर आने पर टीस नहीं उठती होगी
छिपकर कुंठा के वारों से हृदयांचल के अंतरतम में
जो शेष बची मेरी ख़ातिर वो प्रीत नहीं रोती होगी ...
सच सच बतलाओ ...
क्या तुमको तकलीफ़ नहीं होती होगी ..!२