हे जग जननी आस तुम्हारा
शब्दों को देती तुम धारा
वाणी को स्वर मिलता तुमसे
कण-कण में है वास तुम्हारा |
दिनकर का है ओज तुम्ही से
शशि की शीतलता है तुमसे
नभ गंगा की रजत धार में
झिलमिल करता सार तुम्हारा |
सिर पर रख दो वरद हस्त माँ
लिखती रहूँ अनवरत मैं माँ
हर पन्ने पर अंतर्मन के
लिखती हूँ उपकार तुम्हारा ||
मीना धर