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8 भारतीय फिल्में जिन्हें पोलिटिकल कारणों से बैन झेलना पड़ा

21 नवम्बर 2017

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मधुर भंडारकर ने पिछले साल ‘इंदु सरकार’ बनाई तो उसे थियेटर तक पहुंचने में ज़ोर आया. क्योंकि ये फिल्म इंदिरा गांधी, उनके बेटे संजय गांधी और 1975 के आपातकाल पर बेस्ड थी. वे बीजेपी समर्थक हैं और ये दल सत्ता में है फिर भी मधुर को इस तरह की सेंसरिंग का सामना करना पड़ा. हाल में सनल कुमार ससिधरन की फिल्म ‘एस दुर्गा’ और रवि जाधव की ‘न्यूड’ को इफ्फी गोवा की लिस्ट में से हटा लिया गया. ‘एस दुर्गा’ का नाम पहले ‘सेक्सी दुर्गा’ था जिसे जबरन बदलवाया गया. जबकि फिल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था. अभी संजय भंसाली की ‘पद्मावती’ को तमाम तरह की दिक्कतें हो रही हैं जबकि अभी वो सेंसर बोर्ड के पास भी नहीं पहुंची है. अलाउद्दीन खिलजी, रानी पद्मावती और रतन सिंह की कहानी है डायरेक्टर भंसाली की फिल्म 'पद्मावती.' (फोटोः सोशल मीडिया) अलाउद्दीन खिलजी, रानी पद्मावती और रतन सिंह की कहानी है डायरेक्टर भंसाली की फिल्म ‘पद्मावती.’ (फोटोः सोशल मीडिया) अतीत में भी पोलिटिकल और नॉन-पोलिटिकल फिल्मों का नसीब ऐसा नहीं रहा है. जो फिल्में किन्हीं राजनेता के जीवन पर आधारित थीं, या विवादित राजनीति क मुद्दों पर आधारित थीं या जो राजनीति के लपेटे में आ गई थीं उनकी किस्मत हिंदुस्तान में खराब हो जाती थी. ऐसी फिल्मों को घोषित या अघोषित तौर पर बैन कर दिया जाता था. कभी ये बैन हमेशा के लिए होता था और कभी कुछ महीनों-वर्षों की लड़ाई के बाद निर्माता अपनी फिल्म लगा पाता था. बात ऐसी ही कुछ फीचर फिल्मों की जिनकी रिलीज को लेकर ऐसी दुश्वारियां रहीं.


#1. किस्सा कुर्सी का (1977) इस लिस्ट में बहुत हिम्मती फिल्म है ‘किस्सा कुर्सी का.’ इसे जोधपुर मूल के अमृत नाहटा ने डायरेक्ट किया था. नाहटा खुद इंडियन नेशनल कांग्रेस में थे. ये कहानी गंगू नाम के टुच्चे की है जो जनता को मूर्ख बनाकर राष्ट्रपति बन जाता है. तानाशाह बन जाता है. ये सीधी आलोचना इंदिरा गांधी की सरकार की थी. इसमें संजय गांधी की मजाक भी उड़ाई गई थी जो ऑटो-उद्योग में अपने फैसलों को लेकर चर्चा में थे. ये भारत की बेस्ट पोलिटिकल फिल्मों में एक थी. अप्रैल 1975 को उन्होंने सेंसर बोर्ड में इसे भेजा. लेकिन सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तक इसे भेजा गया. वहां से निर्माता को नोटिस भेजा गया और 51 आपत्तियां भीं. फिर इमरजेंसी लग गई. फिल्म बैन कर दी गई. संजय गांधी ने इसके सारे प्रिंट गुड़गांव की मारुति फैक्ट्री में मंगवाए और जला दिए. फिर मामले की जांच के लिए 1977 में कमीशन बैठा. संजय ने फिल्म के नेगेटिव भी जला दिया थे और ये अपराध था. केस 11 महीने चला. संजय और अन्य नेता वी.सी.शुक्ला को जेल की सजा सुनाई गई. बाद में फैसला पलट दिया गया. मनोहर सिंह, शबाना आज़मी, सुरेखा सिकरी, राज बब्बर ने फिल्म में काम किया था.


#2. परज़ानिया (2005) अभी शाहरुख खान को लेकर फिल्म रईस बना रहे राहुल ढोलकिया की ये पहली फीचर फिल्म थी. इसमें नसीरुद्दीन शाह और सारिका ने लीड रोल किया था. ‘परज़ानिया’ की रिलीज से पहले गुजरात में बजरंग दल जैसे संगठनों ने इसे बैन कर दिया था. उनकी हिंसा के डर से वहां के सिनेमाघरों ने इसे लगाने से मना कर दिया. ये फिल्म 2002 के गुजरात दंगों पर आधारित थी. इसके केंद्र में 10 साल के पारसी लड़के अज़हर मोदी का असली केस था जो फरवरी में गुलबर्ग सोसायटी में हुए नरसंहार के दौरान गायब हो गया जिसमें 69 लोगों को कत्ल कर दिया गया था.


#3. सोनिया (2005) ये कहानी है इटली मूल की युवती सोनिया गांधी की जो बाद में भारत के सबसे बड़े राजनीतिक परिवार की बहू बनती है. उसे राजनीति बिल्कुल भी पसंद नहीं. उसकी सास इंदिरा है जो देश की प्रधान मंत्री है. पति राजीव है जो भाई संजय की मौत के बाद न चाहते हुए भी राजनीति में आता है. सोनिया इसके लिए उसे मना करती है. बाद में इस असल कहानी के अगले पड़ाव हैं. फिल्म में बहुत ज्यादा मेलोड्रामा है जो इसे फनी बना देता है. टीडी कुमार ने इसे डायरेक्ट किया था. 2005 में फिल्म बन गई थी लेकिन पांच साल धक्के खाती रही. सेंसर बोर्ड ने इसे पास करने से मना कर दिया था. निर्माताओं से कहा कि पहले सोनिया गांधी से अनुमति ले. इस पर वे लोग बॉम्बे हाई कोर्ट गए. दो साल बाद कोर्ट ने इसे रिलीज करने की अनुमति दे दी. फिल्म में कोई भी स्टार या जाना पहचाना एक्टर नहीं था. अंत में ये रिलीज नहीं हुई.


#4. फिराक़ (2008) नंदिता दास ने इसे डायरेक्ट किया. डेब्यू फिल्म. कहानी 2002 के गुजरात दंगों के एक महीने बाद की है. कि अच्छे, बुरे हर तरह के लोग हैं और उनकी लाइफ में क्या फर्क पड़ा है. नसीरुद्दीन शाह, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, रघुवीर यादव, शहाना गोस्वामी, दीप्ति नवल, परेश रावल, दिलीप जोशी ने इसमें प्रमुख रोल किए थे. गुजरात में ये फिल्म रिलीज नहीं हुई. कारण ये बताया गया कि वितरक लोग सिनेमाघर मालिकों से ज्यादा पैसा मांग रहे थे, जबकि निर्माताओं के मुताबिक ऐसा कुछ नहीं था. ये अघोषित बैन अन्य कारणों से था.


#5. आंधी (1975) गुलज़ार के निर्देशन में बनी ये फिल्म रिलीज हो गई और 26 हफ्ते चलने के बाद इसे बैन कर दिया गया. संजीव कुमार और सुचित्रा सेन ने इसमें लीड रोल किए थे. सुचित्रा ने एक राजनेता आरती देवी का किरदार किया था जिसे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीवन पर आधारित बताया गया. यहां तक कि फिल्म के प्रचार के लिए पोस्टरों पर ये भी लिखा गया कि अपनी प्रधान मंत्री को देखने थियेटर आइए. इसे थियेटरों से हटाया गया तब इमरजेंसी भी लग गई थी. 1977 में आम चुनाव हुए और नई सरकार बनी तब इसे फिर से रिलीज किया गया.


#6. फना (2006) आमिर खान स्टारर इस फिल्म का कंटेंट हालांकि पोलिटिकल नहीं था. इसमें वे दिल्ली के टूरिस्ट गाइड रेहान क़ादरी के रोल में थे जिसे एक कश्मीरी लड़की से प्यार हो जाता है जो देख नहीं सकती है. बाद में बम धमाका होता है जिसमें रेहान के मरने की खबर आती है, असल में वो जिंदा होता है. उसे आतंकी एक मिशन पर भेजते हैं. कुल मिलाकर इस गंभीर मसले का बॉलीवुड ीकरण था. डायरेक्टर थे कुणाल कोहली. दिक्कत ये हुई कि प्रमोशन के दौरान आमिर गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन के प्रदर्शनकारियों से मिले और उनके समर्थन में बात बोली. उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से जवाबदेही मांगी. उसके बाद राज्य सरकार ने कहा कि वे माफी मांगे. आमिर ने कहा कि वे वही बोल रहे हैं जो सुप्रीम कोर्ट कह चुका है और वे माफी नहीं मांगेंगे. गुजरात में फिर उनकी फिल्म बैन हो गई. कारण ये था कि हिंसा और तोड़फोड़ के डर के चलते कोई सिनेमाघर मालिक फिल्म लगाने के राजी न था. निर्माता आदित्य चोपड़ा ने सुप्रीम कोर्ट से अनुरोध किया कि वो गुजरात सरकार को निर्देश दे कि सिनेमाघरों में सुरक्षा मुहैया करवाई जाए. कोर्ट ने कहा कि जिस थियेटर को चाहिए वो खुद पुलिस से सुरक्षा मांग सकता है. इस तरह फिल्म नहीं लगी. सिर्फ एक थियेटर ने अपनी मर्जी से लगाई और वहां भी किसी ने खुद को आग लगा ली तो फिल्म उतारनी पड़ी. बाद में उसकी जान चली गई.


#7. अमु (2005) मार्गरीटा, विद अ स्ट्रॉ जैसी फिल्म की डायरेक्टर शोनाली बोस की पहली फीचर थी अमु. ये अमेरिका से लौटी युवती काजू की कहानी थी जिसका रोल कोंकणा सेन शर्मा ने किया. वो मुंबई आती है और अपने ऐसे अतीत के बारे में पता लगता है जो उसकी जिंदगी की बुनियाद हिला देता है. इसी में एक पूरा संदर्भ 1984 के सिख-विरोधी दंगों का है. जिससे काजू और उसके दोस्त कबीर का कोई संबंध है. इसी फिल्म में सीपीआई की नेता बृंदा करात और सुभाषिनी अली ने भी एक्टिंग की थी. सेंसर बोर्ड की ज्यादती के कारण इसे रिलीज नहीं किया जा सका. सेंसर ने कथित रूप से राजनीतिक मंशा से प्रेरित 6 कट लगाने के लिए कहा जिससे फिल्म का पूरा असर खत्म हो जाता. सेंसर ने कहा कि दंगों के सारे रेफरेंस हटा दिए जाएं. एक दस मिनट का सीन भी काटने को बोला. इसे देखते हुए शोनाली ने फिल्म को सिनेमाघरों में नहीं उतारा और सीधे डीवीडी पर रिलीज किया.


#8. नील आकाशेर नीचे (1958) आजाद भारत की पहली ये फिल्म थी जिसे बैन कर दिया गया था. इसे मृणाल सेन ने डायरेक्ट किया था. ये महादेवी वर्मा की कहानी ‘चीनी भाई’ पर आधारित थी. ये ब्रिटिश राज के आखिरी दिनों की कहानी थी. 1930 के बाद के कलकत्ता की. यहां एक गरीब चाइनीज़ फेरीवाला वांग लू रहता है जो कलकत्ता की गलियों में चाइना सिल्क बेचता है. मजबूर पृष्ठभूमि से आया होता है. जब उसके देश चीन पर ताकतवर, साम्राज्यवादी जापान ने हमला बोला होता है. कहानी की अन्य प्रमुख पात्र है बसंती जो एक बैरिस्टर की बीवी है और वांग से आत्मानुभूति रखती है. उसके कष्टों को लेकर संवेदना रखती है. पहले फिल्म रिलीज हो गई. लोगों को पसंद आई. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने तारीफ की. फिल्म ने थियेटरों में अपना रन भी पूरा कर लिया. फिर जब भारत-चीन सीमा पर तनाव बढ़ने लगा तो सूचना प्रसारण मंत्रालय ने रोक लगा दी. फिल्म में भारत की अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई और 1930 के दौर में चीनी लोगों की साम्राज्यवादी जापान के अतिक्रमण की लड़ाई को एक ही दिखाने की कोशिश थी. बाद में संसद में कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद हीरेन मुखर्जी ने इसे लेकर टिप्पणी की. नेहरू और रक्षा मंत्री वीके कृष्णा मेनन वहीं थे. इन्होंने बाद में फिल्म पर से बैन हटवाया. ये बैन दो महीने चला था.

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