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अपना मन ही अपना कुरुक्षेत्र

13 दिसम्बर 2017

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आज प्रत्येक व्यक्ति का मन चलता फिरता कुरुक्षेत्र बना हुआ है| जहां पर हमारी निकृष्ट और उत्कृष्ट ,सद्गुण और दुर्गुण ,धर्म और अधर्म दोनों ही प्रकार की प्रुवृत्तियों में निरंतर द्वंद्व चलता रहता है| हमारी आंतरिक प्रुवृत्तियाँ हमसे वो सब करवा लेती है जिन्हें हम मन से तो स्वीकार नही करते लेकिन करने के लिए मजबूर है| अन्यथा जीवन चला पाना मुश्किल है | हमे कर्म करने से पहले एक अज्ञात शक्ति ये तो आभास करा देती है की क्या धर्म है और क्या अधर्म ,क्या सत्य है और क्या असत्य ,क्या न्याय है और क्या अन्याय लेकिन फिर भी हम धर्म का पक्ष नही ले पाते और ये कहकर अधर्म के साथ खडे हो जाते है की जमाना ही ऐसा है| जब लोग मेरे साथ ऐसा करते है तोमैंभी क्यों न करूं महाभारत का एक दृष्टांत आता है जहां धृतराष्ट कहते है कीमैंजानता हूँ की पांडवों के साथ अन्याय कर रहा हूँमैंजानता हूँ की धर्म पांडवों के पक्ष में है मुझे धर्म, अधर्म का पूरा ज्ञान भी है लेकिन विडम्बना ये है की मैं धर्म को जानते हुए भी अपनी प्रुवृत्तियाँ धर्म में नही लगा पाता ‘जानामि धर्ममं न च पृवृत्ति जानामि अधर्ममं न च निवृत्ति’ धर्म में पृवृत्ति नही होती और अधर्म से निवृत्ति नही होती | महाभारत में धृतराष्ट द्वारा कहे गये ये वाक्य उसके अस्थिर दुर्बल मन के ही प्रतिक है जो कि समूचे युद्ध का कारण रहे इसी लिए श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश देकर अर्जुन को धर्म की रक्षा के लिए पृवृत्त किया | मनुष्य के अंतःकरण में दो प्रवृत्तियाँ रहती हैं, जिन्हें आसुरी एवं दैवी प्रवृति कहते हैं । इन दोनों में सदा परस्पर संघर्ष चलता रहता है। गीता में जिस महाभारत का वर्णन है और अर्जुन को जिनसे लढाया गया है वास्तव में वे हमारी दूषित प्रदूषित प्रवृत्तियाँ ही हैं और यह वस्तुत नित्य निरंतर मनुष्य के अंत:करण में चलने वाला युद्ध ही है। आसुरी प्रवृतियाँ बडी़ प्रबल हैं कौरबों के रूप में उनकी बहुत बड़ी संख्या है । सेना भी उनकी बड़ी है जबकि पांडव पांच ही है उनके सहायक और सैनिक भी थोड़े हैं फिर भी भगवान् ने युद्ध की आवश्यकता समझी और अर्जुन से कहा लढ़ने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं क्योंकि यदि समय रहते इन तामसिक आसुरी प्रवृत्ति का दमन न किया जाए तो सतोगुणी दैवी प्रवृतियों का अस्तित्व ही खतरे में पड जायेगा। इसलिए लढ़ना जरूरी है । अर्जुन पहले तो झंझट में पढ़ने से कतराते रहे पर भगवान् ने जब युद्ध को अनियार्य बताया तो उन्हें लढ़ने के लिए कटिबद्ध होना पडा। इस लड़ाई को इतिहासकार महाभारत के नाम से पुकारते हैं। अध्यात्म की भाषा में इसे साधना समर कहते हैं । देवासुर संग्राम की अनेक कथाओं में इसी साधना समर का अलंकारिक निरूपण है। असुर प्रबल होते है देवता उनसे दुख पाते है, अंत में दोनो पक्ष लड़ते हैं देवता अपने को हारता-सा अनुभव करते हैं वे भगवान् के पास जाते हैं। प्रार्थना करते है। भगवान् उनकी सहायता करते हैं। अंत में असुर मारे जाते है देवता विजयी होते हैं। देवासुर संग्राम के अगणित पौराणिक उपाख्यानों की पृष्ठभूमि यही है। लेकिन भगवान् भी तभी सहायता करते है जब मनुष्य अपने में सुधर लाने के लिए तत्पर हो यदि मनुष्य खुद ही सुधार के तैयार न हो तो ईश्वर भी सहायता किस आधार पर करे | अपनी प्रुवृत्तियों को धर्म में लगाने का एक मात्र साधन केवल और केवल एक ही है ईश्वर को साक्षी मानकर कर्म करना और ये मानकर चलना की मेरे द्वारा किये जा रहे अच्छे कार्यों को भले ही समाज न देख रहा हो लेकिन मेरे अंत:करन में बैठा मेरा ईश्वर तो देख रहा है आप हर कार्य को उसकी साक्षी में करने का यदि प्रयास करें तो थोड़ी या अधिक मात्र में अपनी दुषप्रुवृत्तियों का निगृह करने में सफल हो सकते है |

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