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ये नौटंकी बंद होनी चाहिए..

6 जनवरी 2018

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featured image अगर आपकी पत्नी अध्यापक हैं तो आप उनके स्थान पर स्कूल में जाकर पढ़ा नहीं सकते, यदि आपकी पत्नी आईएएस हैं तो आप उनकी कुर्सी पर नहीं बैठ सकते, यदि आपकी पत्नी डॉक्टर हैं तो उनकी जगह आप किसी मरीज का इलाज नहीं कर सकते. लेकिन यदि आपकी पत्नी ग्राम प्रधान हैं या नगरपालिका परिषद की चेयरपर्सन या सदस्या हैं तो आपको कोई समस्या नहीं. आप उनकी कुर्सी का ही नहीं बल्कि उनके समस्त अधिकारों का भी अपनी मर्जी के अनुसार इस्तेमाल कर सकते हैं. अब तो जमाना और भी तरक्की कर गया है, आजकल तो चेयरपर्सन का पुत्र ही अपने को चेयरमैन समझता है, नगरपालिका में जाकर मीटिंग्स लेता है, और तो और अपनी गाड़ी पर भी चेयरमैन ही लिखवाये घूमता है और भोली जनता उसके पीछे-पीछे घुमती है. जब शपथग्रहण समारोह होता है तो शपथ लेने वाली वो महिला उम्मीदवार होती है जिसने चुनाव जीता है. कानूनी तौर पर भी उस महिला को ही समस्त अधिकार प्राप्त हैं जिसने चुनाव जीता है लेकिन हिंदुस्तान का कानून देखिये कि अधिकांश महिलाएं चुनाव जीतने के बाद अपने घर का चूल्हा-चौका सम्भालती हैं और उनका पति या पुत्र उनकी कुर्सी सम्भालता है. सवाल ये है कि बीजेपी सरकार, जो कि महिलाओं को उनका हक दिलाने के नाम पर तीन तलाक पर कानून बनाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा रही है, मुस्लिम महिलाओं को हज पर (बिना मेहरम के या पुरुष गार्जियन) जाने के लिए गला फाड़ रही है, वह इतने बड़े मसले पर चुप क्यों है? जब औरत को घर का चूल्हा-चौका ही सम्भालना है तो महिला सीट का क्या अर्थ है? यह समस्या किसी धर्म या समुदाय विशेष की महिलाओं की नहीं है बल्कि हर समुदाय या धर्म की महिला को इसी समस्या से दो-चार होना पड़ता है. जनता जिसे वोट देकर जिताती है, पांच साल तक उसकी शक्ल भी नहीं देख पाती और कई बार तो शुरू से लेकर आखिर तक ये ही नहीं जान पाती कि जिसे उसने अपना प्रतिनिधि चुना है वह है कौन? तब ऐसी महिला जनप्रतिनिधि का क्या फायदा? जब समस्त निर्णय पति या पुत्र को ही लेने हैं तब महिला जनप्रतिनिधि चुनने का क्या फायदा? महिलाओं को आरक्षण देकर जनप्रतिनिधि बनाकर हर क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने की योजना नाकाम होती दिखाई दे रही है। महिलाओं की स्थिति पर कोई असर नही पड़ रहा है। निर्वाचित हुई महिलाओं के स्थान पर पुरुष ही काम कर रहे है। अधिकारी और जिम्मेदार लोग भी इस ओर ध्यान न देकर केवल कार्य सही प्रकार से चलने की बात कर पल्ला झाड़ लेते हैं। मेरा सीधा सवाल बीजेपी सरकार से है कि क्या केवल महिलाओं को तलाक और हज पर भेजने से ही महिला सशक्तिकरण हो जायेगा? या केवल राजनितिक लाभ लेने के उद्देश्य से इस तरह की फुलझड़ियां छोड़ी जा रही हैं. ये नौटंकी बंद होनी ही चाहिए. -मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री” शास्त्री संदेश नोट- “ये मेरे स्वयं के विचार हैं, आपका इनसे सहमत होना या न होना आवश्यक नहीं.” My blog;- https://shastrisandesh1972.blogspot.in

“तुम कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा”, “कश्मीर की आजादी तक जंग जारी रहेगी”, “अफजल के अरमानों को मंजिल तक लेकर जायेंगे”, “बंदूक के बल पर आजादी”, “अफजल हम शर्मिंदा हैं, तेरे कातिल जिन्दा हैं” जैसे नारे लगाये गए, 26 जनवरी, २०१५ को इंटरनेशनल फ़ूड फेस्टिवल के बहाने कश्मीर को अलग देश दिखाकर उसका अलग स्टाल लगाया गया, जब नवरात्रि के दौरान पूरा देश देवी दुर्गा की आराधना कर रहा था, उसी वक्त जेएनयु में देवी दुर्गा का अपमान करने वाले पर्चे, पोस्टर जारी कर न सिर्फ अशांति फैलाई गई बलिक महिषासुर शहादत दिवस का आयोजन किया गया. जेएनयु के कैम्पस में हिन्दू देवी-देवताओं की आपत्तिजनक तस्वीरें लगाकर नफरत फ़ैलाने की कोशिश की गई. आतंकी अफजल गुरु की फांसी पर जेएनयु कैम्पस में मातम मनाया गया था. २०१० में छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा में सीआरपीऍफ़ जवानों की हत्या पर जश्न मनाया गया.

इन सब देशद्रोही गतिविधियों में उमर खालिद नाम का एक शख्स शामिल था, उमर खालिद का सम्बन्ध अलगाववादियों या किसी आतंकी सन्गठन से होने की चर्चाएँ भी रही हैं. खालिद जिस संगठन DSU से जुड़ा है, उसे सीपीआई माओवादी समर्थित छात्र संगठन माना जाता है. खालिद कई बार आजाद कश्मीर की मांग कर चूका है. ये भी खबर उड़ी थी कि जेएनयु जैसे कार्यक्रम देश के १८ विश्वविद्यालयों में कराने की योजना बनाने वालों में भी उमर खालिद शामिल था. एक चैनल की वेबसाईट पर प्रकाशित खबर के अनुसार दिल्ली पुलिस ने उमर खालिद की करतूतों की एक रिपोर्ट गृह मंत्रालय को भी भेजी थी लेकिन उसके बावजूद न तो उमर खालिद के खिलाफ कोई कार्यवाही हुई और न ही DSU के खिलाफ ही कोई एक्शन लिया गया.


उमर खालिद का परिवार करीब 30 साल पहले महाराष्ट्र के अमरावती के तालेगांव से दिल्ली आया था. उमर खालिद के पिता सय्यद कासिम रसूल इलियास दिल्ली में ही उर्दू की एक पत्रिका “अफकार-ए-मिल्ली” चलाते हैं. उमर खालिद जेएनयु से स्कूल ऑफ़ सोशल साइंस से इतिहास में पीएचडी कर चूका है. इससे पहले वो जेएनयू से ही हिस्ट्री में एम्ए और एम्.फिल कर चूका है. २०१४ से देश में बीजेपी की सरकार केंद्र में है, वर्तमान में महाराष्ट्र में भी बीजेपी की सरकार है, मकोका जैसे कानून भी महाराष्ट्र में लागू हैं. तब सवाल ये है कि पाकिस्तान से हाफिज सईद के खिलाफ कार्यवाही करने की मांग करने वाली बीजेपी सरकार उमर खालिद जैसे लोगों के खिलाफ कोई कार्यवाही क्यों नहीं करती जो कि भारत में रहकर, भारत के टुकड़े होने की बात करते हैं? हाफिज सईद भारत के खिलाफ जहर उगलता है, न कि पाकिस्तान या पाकिस्तानियों के खिलाफ. जबकि उमर खालिद तो खुलेआम कश्मीर की आजादी की बात करता है, भारत के टुकड़े करने की बात करता है, तब अपने को हर मौके पर राष्ट्रवाद से जोड़ने वाली बीजेपी सरकार कानों में रुई डाले क्यों बैठी है? सवाल ये भी है कि महाराष्ट्र के भीमाकोरे गाँव(पुणे) में जब लाखों लोगों को एकत्र किया जा रहा था और उसमें एक समुदाय विशेष और सरकार के विरुद्ध जहर उगलने वाले लोगों के साथ-साथ उमर खालिद जैसे गद्दार भी शामिल थे तब सरकार को कानोंकान खबर क्यों नहीं हुई? आखिर इंटेलिजेंस क्या कर रही थी? या फिर जानबूझकर “सबकुछ” भगवान भरोसे छोड़ दिया गया? सवाल ये भी है कि आखिर मकोका जैसे कानून किन लोगों के लिए बनाये गए हैं जब उमर खालिद जैसे गद्दार जो देश को तोड़ने की बात करते हैं, खुलेआम घूम रहे हैं. सवाल ये भी है कि पाकिस्तान और चीन जैसे देशों से टकराने की बात करने वाले, सर्जिकल स्ट्राइक का दावा करने वाले, पुणे में होने वाली अनहोनी को क्यों नहीं पहचान पाए?


मेरा सीधा सवाल बीजेपी सरकार से है कि आखिर उमर खालिद जैसे जहरीले नागों का फन कुचलने के लिए वो कोई ठोस कदम क्यों नहीं उठा रही है? कभी मन्दिर-मस्जिद के नाम पर, कभी साम्प्रदायिक हिंसा के नाम पर, कभी जातिवाद के नाम पर और कभी कश्मीर की आजादी के नाम पर निर्दोष और बेबस लोगों का खून बहाया जाता है? कब तक ये खून ऐसे ही बहाया जाता रहेगा? आखिर कब तक लाशों पर राजनीती होती रहेगी?

-मनोज चतुर्वेदी “शास्त्री”
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