दोस्तों आज के परिवेश में क्या ऐसा परिवार है की जिसमें स्नेह- सौजन्य एवं सहयोग रूपी अमृत की धारा बहती हो। शायद नहीं ही उत्तर होगा । क्योंकि घर- घर में प्रत्येक सदस्य के बीच कलह- क्लेश, ईर्ष्या- द्वेष, वैमनस्य तथा मनोमालिन्य की भावनाएँ दृष्टिगोचर होती हैं। परिवार में पति- पत्नी, पिता- पुत्र, भाई- भाई, सास- बहू के मध्य जो प्यार और कर्त्तव्य- भावना होनी चाहिए, उसकी सभी उपेक्षा करते दिखाई देते हैं। और मैंने तो अपने ४० साल के उम्र में यही देखा । शायद मैं गलत भी हो सकता हूँ , लेकिन मैं जो देखा और महसूस किया और व्यथित हो आत्ममंथन किया तो जो तथ्य मुझे दिखाई दिया आप सबके सामने रख रहा हूँ । परिवार की इन असहाय विकृतियों के कारण लोग पारिवारिक जीवन से ऊबे, शोक- सन्ताप में डूबे अपने भाग्य को कोसते नजर आते हैं। ऐसे कलुषित एवं कलह पूर्ण पारिवारिक जीवन में सुधार लाने के लिए आवश्यक है कि उसमें स्नेह, ममता, सौहार्द्र, उदारता इत्यादि दैवी गुणों के बीज बोये जायें और उसे सुव्यवस्थित बनाया जाये, क्योंकि व्यवस्थाक्रम में गड़बड़ी होने पर ही मनोमालिन्य, असन्तोष तथा लड़ाई- झगड़ों की शाखाएँ फूटने लगती हैं। परिणाम स्वरूप उस वातावरण में सुख- समृद्धि, उन्न्ति का मार्ग अवरूद्ध होता जाता है। इन्हीं परिस्थितियों के उत्पन्न होने के कारण ही गृहस्थ जीवन की दिशा निर्धारित नहीं होती। चलने से पूर्व यदि अपने गन्तव्य स्थान का निर्धारण कर लिया जाय तो मंजिल तक पहुँचने में किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता। लेकिन हम सब सिर्फ एक अवधारणा से सबकुछ खत्म कर देते हैं कि सर्वार्थ ही सबकुछ है , और जब तक हम सब इसको तिलांजलि नहीं देंगे , संयुक्त परिवार की कल्पना बेईमानी है । मैं खुद ही कभी संयुक्त परिवार का हिस्सा था लेकिन नैतिक पतन का खेल जो हमारे बुजुर्गों द्वारा परिवार में प्रस्तुत हुआ , तो उस परिवारिक संस्कार अपने अधिकार मद से उत्पन्न असन्तुलन, पक्षपात एवं मनमानी के तरफ अग्रसर हो रहा था । परिवार के सदस्यों में कार्य तथा अधिकार का उचित बँटवारा नहीं था । विचार- भ्रम एवं अनावश्यक संकोच का बढ़ावा अपने चरम स्थान पर काबिज था । अनुचित कमाई से उत्पन्न बुद्धि दोष का सुत्रपात का आगाज हो चुका था । दुराव- छिपाव , उदंण्दता एवं मनमानी , आत्मानुशासन एवं पारिवारिक अनुशासन का अभाव पहले से ही घर कर गया था । आय- व्यय तथा अन्य महत्वपूर्ण बातों की परिवार में सभी वयस्कों को जानकारी नहीं था तथा सबके विचार- विमर्श से निर्णय न किया जाना दुखदाई और कलह हमेशा परिवार में सारी मार्यदाओ को हनन कर रहा था । दुर्भाग्यवश मेरे बाबा का देहांत हो गया । और मुझे घर जाना पड़ा । और वहां का रीति रिवाज और चारों भाइयों के बीच की खिंच तान मुझे बहुत व्यथित कर गयी । मैं इस पर जब आत्ममंथन करके इसके समाधान के लिए अपने कदम को बढ़ाया कि पारिवारिक भावना यानी पारस्परिक आत्मीयता- सद्भाव का निर्माण कायम हो जाय , सभी के स्वाभिमान की रक्षा , परस्पर सम्मान एवं शिष्टाचार का वातावरण का माहौल स्थापित हो , बजट बनाकर ही खर्च किया जाये , जिससे किसी को किसी से कोई शिकवा और शिकायत मन में न रहे । और आय- व्यय की पूरी जानकारी हर वयस्क सदस्य को हो , पारिवारिक गोष्ठियाँ हों, जिनमें खुली एवं सौजन्यतापूर्ण चर्चा हो तथा महत्वपूर्ण निर्णय लिये जायें।
पारिवारिक मर्यादा का निर्वाह किया जाय, अनुशासन एवं आत्मानुशासन हो। शील एवं सदाचार कभी न छोड़ा जाय। परिश्रम तथा ईमानदारी की कमाई ही की जाय। किसी का अहंकार न बढ़ने दिया जाये और असमानता का पोषण न होने दिया जाये। क्योंकि मुझे विश्वास था कि समस्याओं का समाधान कठिन नहीं। अगर पारस्परिक प्रेम अक्षुण्य रहे तथा व्यापक दृष्टिकोण अपनाया जाय, तो संयुक्त परिवार सुख- शान्ति के उत्कृष्ट आधार बन सकते हैं और हर सदस्य को उनसे आनन्द की ही अनुभूति होगी। लेकिन मैं किसी को दोष नहीं देना चाहता हूँ क्योंकि मैं आज तक यही मानता हूं कि मैं इसमें सफल नहीं हुआ , किसीने सही कहा अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता , और ये मेरे बाबा के अंतिम भोज के दिन ही प्रस्तुत हो गया , और मैंने धार्मिक किताबों का सहारा लेकर एक बार फिर कोशिश करने का प्रयास किया । क्योंकि मैं जानता था कि जब कोई भी व्यक्ति आपसी कुंठा से ग्रसित हो तो दोनों को अलग-अलग करने से आपस में प्रेम फिर हो सकता है , और दूसरी बात कि जब संयुक्त परिवार भावनाविहीन हो जाय और उसमें भावना उत्पन्न करना संभव ना हो तो वहाँ भावनाविहीन प्राण रहित ढाँचे को ढोते रहना व्यर्थ ही है। और अलग होने का निर्णय लिया । लेकिन लग रहा है कि दूसरा प्रयास भी सफल नहीं होगा । क्योंकि भावनाओं का जोर वहां होता है जहां हृदय में धड़कन हो , जहां सिर्फ पाषाण की मूर्तियां हो तो वहां संवेदना सहनशीलता भावनाओं का कोई मोल नहीं । दोस्तों चाणक्य ने कहा था प्रयोग खुद पे कर सिखना मूर्खता के सिवा कुछ नहीं । इसलिए मैंने सोचा कि कुछ सामाजिक दायित्व का निर्वहन तो कर दूं , शायद किसी को इससे कुछ हासिल हो जाय और कोई परिवार टुटे नहीं ।🤔
धन्यवाद 🙏
______संजय निराला ✍