कहाँ से लाऊँ वो बात,
जो किसीने न कही हो?
कहाँ से लाऊँ वो हालात ,
जो एकदम सही हो?
कहाँ जाके बेचूँ वो लकड़ी,
जो चुराई थी चिता से पिता की?
कहाँ जाके खरचूँ वो कमाई ,
जो मेरी नहीं हो?
कहाँ से लाऊँ वो महक ,
जो उसके पसीने में रही हो?
कहाँ से लाऊँ वो नमक ,
जिससे स्वादिष्ट घर की रसोई बनी हो ?
कहाँ से लाऊँ वापस ,
वो बात जो मेरी कही हो ?
कहाँ से लाऊँ वापस ,
वो ज़िन्दगी जो उससे ढही हो ?
कहाँ से सुलटूँ ,
वो सिलबटें ,
मुठ्ठी में बंद मुड़े कागज की ?
कहाँ से पलटूँ ,
वो करवटें ,
ज़िन्दगी की जो अब न रही हो ?
कहाँ से लाऊँ वो दर्द,
पेट में अजन्में के गिरने का ?
कहाँ से लाऊँ वो दर्द ,
जान के देह से तड़पकर निकलने का ?
कहाँ से लाऊँ वो मिटावन,
जो मिटा दे चेहरे में पड़ी सिकुड़ने ?
कहाँ से लाऊँ वो कलम ,
जो उठा देख और फिर लिख सके ,
हर सिकुड़न के साथ कहानी जो घटी हो?
कहाँ जाऊँ ?
कहाँ से लाऊँ ?
कोई एक जो कहे तुम सही हो?
बस ,...कोई एक,...जो कहे तुम सही हो?
कहाँ जाऊँ ??
कहाँ से लाऊँ ???
- मनोज कुमार खँसली " अन्वेष "