मेरे क्षण को मत बांधो तुम , उन्मुक्त हवा में उड़ने दो
दूषित हो रही प्रेम-भाषा , मुझे चंद्र-सूर्य को सुनने दो.....
भीगे पत्तों के चादर पर, खेल ती रश्मि मुस्काती सी ,
पापा के कहने पर वैसे, जागे बिटिया अलसाती सी ...
माथे का काजल फैला है, पर दांत दूध के खिले हुए,
मन में निद्रा का है उमंग, थोड़े सपने अधखिले हुए. ..
मैं धन्य, मुझे कन्या देकर, ईश्वर तुमने उपकार किया,
कोमल, शालीन, मधुरिमा की, प्रतिमाओं को साकार किया. ..
मैं पिता धन्य, मैं जनक धन्य, लक्ष्मी सरस्वती आँगन में,
एक चपला, चंचल दौड़ रही, एक रोये तो भी सरगम में. ..
धरती, धारिता, धरा, धारिणी, गाम्भीर्य सभी का पुत्री में ,
सबके सुख-दुःख का समावेश, परिवार समन्वित, पुत्री में. ..
जब थक कर घर लौटूँ अपने, पुत्री स्पर्श करे माथा,
नन्हें हाथों ने खींच लिया ,जैसे दिन भर की विष-व्यथा. ..
दादा की गोदी में बैठी उनको ही डपट सुनाती है,
सबको है बाँधे एकसूत्र, निश्छल, स्नेहिल तुतलाती है. ..
उंगली थामे जो उठती थी, धीरे-धीरे वह बड़ी हुयी,
कोमलता के क्रीड़ांगन में , शिशु कन्या बन कर खडी हुयी. ...
..........मेरी लम्बी कविता 'कन्या-रत्न' के कुछ प्रथम अंश