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भरतबन्द का पंचनामा

6 अप्रैल 2018

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अगर कोई पूछे कि आपने अपनी ज़िंदगी में सबसे क्रूर मज़ाक क्या सुना हैं तो मैं कहूँगा, "भारत का कानून सब भारतीयों के लिए एक बराबर हैं"। आरक्षण कानून, अल्पसंख्यक कानून, निजी कानून होने के बाद भी कोई दावा करे कि कानून सबके लिए एक बराबर हैं तो वो मज़ाक के अलावा कुछ हो ही नही हो सकता। खैर ये सब कानून तो सोशल मीडिया पर बहस का हिस्सा बहुत समय से बने हुए थे पर 20 मार्च को दिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के ऊपर हुई राजनीति के बाद SC/ST कानून भी इसी बहस का बड़ा हिस्सा बन चुका हैं।


इस सबकी शुरुआत हुई महाराष्ट्र के कराड से जहां एक स्टोर कीपर एक सरकारी कॉलेज में काम करता था। वहां पर उसके सीनियर डॉक्टर्स ने वार्षिक रिपोर्ट में स्टोर कीपर के लिए प्रतिकूल टिप्पणी की। जब स्टोर कीपर को ये पता चला तो उसने उनके खिलाफ़ SC/ST कानून के अंतर्गत पुलिस में रिपोर्ट कर दी। अब क्योंकि जो सीनियर डॉक्टर थे वो सरकारी अधिकारी थे तो पुलिस ने चार्जशीट के लिए शिक्षा विभाग के निर्देशक से अनुमति मांगी जिन्होंने अनुमति देने से मना कर दिया। इससे नाराज़ होकर स्टोर कीपर ने निर्देशक के ख़िलाफ़ भी SC/ST कानून के तहत रिपोर्ट कर दी। अब ये मुक़द्दमा हाई कोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने मुक़द्दमा निरस्त करते हुए कहा कि अगर हर SC/ST कर्मचारी अपने खिलाफ दी हुई प्रतिकूल टिप्पणी को अपनी जाति से जोड़कर सीनियर अधिकारियों को अदालतों में घसीटता रहेगा तो वो अधिकारी काम कैसे कर पाएंगे। वो तो हमेशा इसी डर में रहेंगे की कही कुछ कह दिया तो जेल जाना पड़ेगा। साथ ही साथ सुप्रीम कोर्ट ने जब ऐसे मुकद्दमों की स्थिति जानी तो पता चला कि 2015 में SC/ST कानून के तहत दर्ज हुए 15638 मुकद्दमों में से 11024 में आरोपी बरी हो गए और 495 वापिस ले लिए गए जिसका मतलब सिर्फ 25% में ही सज़ा मिली।


इन सब बातों पर गौर करते हुए अदालत को लगा कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा हैं और कानून की व्याख्या करते हुए तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी और ये निर्देश दिया कि हर मामले की जांच 7 दिन के अंदर अंदर DSP स्तर का अधिकारी करें और अगर सही लगे तभी रिपोर्ट दर्ज हो और अगर मामला झूठा लगे तो आरोपी को अग्रिम जमानत भी दी जा सकती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिना जांच के किसी को भी जेल में डालना असंवैधानिक हैं। किसी भी तरह से देखा जाए तो बात एकदम तर्कसंगत हैं। सरकारी अधिकारी को गिरफ्तार करने के लिए तो फिर भी अधिकारिओं की इज़ाज़त चाहिए होती हैं पर आम आदमी का क्या? बिना जांच के गिरफ्तार करना और फिर ज़मानत भी न देना तो उसकी जिंदगी खराब करना ही हैं। पर ये बात वोटों की राजनीति करने वालों को नागवार गुजरी। उन्हें तो दलित वोट चाहिए, चाहे बाकी सबके साथ कुछ भी होता रहे। उन लोगों ने दावा किया कि 25% मामलों में सज़ा मिलने का मतलब नही की 75% मामले झूठे थे। पर इससे ये भी तो साबित नही होता कि वो सच्चे थे। साबित करने के लिए जांच तो करनी ही होगी तो पहले जांच ही क्यों न हो? क्या ये तर्कसंगत हैं कि पहले एक इंसान को सज़ा दे दी जाए और फिर देखा जाए कि उसका कोई दोष था भी या नही।


तर्कसंगत बातें लाशों पर भी राजनीति करने वाले हमारे नेताओं के किसी काम की नही थी। उन्होंने भड़काऊ भाषण देने शुरू कर दिए कि ये निर्णय दलित विरोधी हैं और इसमें सरकार का हाथ हैं। सरकार भी कौन सा पीछे रहने वाली थी। सत्ता के लालच में उसने भी कहना शुरू कर दिया कि निर्णय गलत हैं और वो पुनर्विचार याचिका डालेगी। आखिर आम आदमी इंसान थोड़े ही हैं। वो तो ऐसा बेवकूफ़ हैं जो विकास और ईमानदारी के खोखले वादों पर वोट भी देता हैं और टैक्स भी। बदले में उसको मिलते हैं ऐसे दमनकारी कानून। सरकार और नेताओं के इन भड़काऊ बयानों की वजह से 2 अप्रैल को भारत बंद हुआ जिसमें हमेशा की तरह विरोध के नाम पर बसों, कारों में आग लगा दी गयी, घरों, दुकानों में लूट पाट की गई, स्टेशन और पुलिस चौकियां जला दी गई, 1 दर्जन से ज्यादा लोगों की जान गई जिसमे एक विद्यार्थी, एक पुलिस अधिकारी, एक वृद्ध, एक महिला, एक नवजात शिशु और एक गर्भस्थ शिशु भी था। और कुछ न सही पर अभी तक नेताओं से इतनी तो उम्मीद की जाती थी कि वो घड़ियाली आंसूं बहाते हुए इन हत्याओं पर दुःख प्रकट करेंगे पर बेशर्मी की हद पार करते हुए उन्होंने दंगों

के लिए अपनी पीठ ठोंकी जैसे इस बार खुलकर मान रहे हो कि ये सब तोड़ फोड़ और हत्याएं उन्होंने ही करवाई हैं, वो भी बस चंद वोट की खातिर। जिस मुख्यमंत्री ने 2007 में SC/ST कानून में संशोधन कर उत्तरप्रदेश में तुरंत गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी, उसीने सुप्रीम कोर्ट के इसी आदेश पर बाकी दलों के साथ मिलकर पूरे उत्तरप्रदेश में आग लगाने में कोई कसर नही छोड़ी। इंसानियत तो शायद कब की मर चुकी थी पर अब हैवानियत का खुला प्रदर्शन हो रहा हैं।


सुप्रीम कोर्ट के आदेश से एक उम्मीद जगी थी कि कम से कम अदालतों ने आम समुदाय को इंसान समझना शुरू कर दिया हैं पर हमारे सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों की हरकतों को देखकर लगता हैं कि वो ऐसा कुछ होने नही देंगें। पुनर्विचार याचिका पर अदालत ने सरकार से फिर पूछा हैं की पहले इस बात का जवाब दो की तुम राजनीती के नाम पर निर्दोष लोगों को जेल में क्यों डालना चाहते हो पर सरकार अपनी बात पर अड़ी हुई हैं। मेरे बहुत से मित्र नियमित तौर पर आरक्षण विरोधी पोस्ट डालते हैं और वर्तमान सरकार से उम्मीद करते हैं कि जाति आधारित आरक्षण खत्म होगा तो मैं उन्हें समझाता हूँ ऐसा संभव नही हैं। अब उम्मीद करता हूँ कि वो सरकार की एक तर्कसंगत सुधार के खिलाफ बेचैनी को देख समझ जाएंगे कि ऐसा संभव क्यों नही हैं। फिर भी मैं अपने सभी मित्रों को कहता हूँ कि अगर वो किसी ऐसे देश में रहना चाहते हैं जहां आपकी भावी पीढ़ी को जाति और धर्म की जगह योग्यता को मह्त्व मिले तो या तो आप वोटबैंक बनकर भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाये नही तो ऐसा देश ढूंढ लीजिये जहां ये भेदभाव न हो। इस देश में तो आप सामाजिक न्याय की अपेक्षा न ही करें तो बेहतर हैं।


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