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जब मैं तुम्हे लिखने चली

2 मई 2018

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जमाने में रहे पर जमाने को खबर न थी

ढिंढोरे की तुम्हारी आदत न थी

अच्छे कामों का लेख ा तुम्हारा व्यर्थ ही रह गया

हमसे साथ तुम्हारा अनकहा सा कह गया

जीतना ही सिखाया हारने की मन में न लाने दी

तो क्यों एक पल भी जीने की मन में न आने दी

हिम्मत बांधी सबको और खुद ही खो दी

दूर कर ली खुदा ने हमसे माँ कि गोदी

दिल था तुम्हारा या फूलों का गहना

अब जुदाई को तुमसे सदा ही सहना

रोता रहा दिल आँखों ने साथ न दिया

फैसले के खुदा ने घर सूना कर दिया

बड़ा अनमोल है यह रिश्ता तुम संग गहराया यह रिश्ता

जब पलकें पलकों से मिली दिल ने तेरी तस्वीर दिखाई

आँखे खोली जब हर जगह माँ तू ही नजर आई

किस्मत की लकिरों ने इक पल मुझे मिटा दिया

पर इसने जीवन में संभलना सिखा दिया

नयन नीर की अविरल धारा बह निकली

आज जब माँ मैं तुम्हे लिखने चली।।

सर से जो तेरा साया उठा माँ रोने से न बच पाई

साथ छोड़ दिया हम सबका तूने दे कर के तन्हाई

जब याद आई तेरी माँ दिल मेरा रोने लगा

शरीर मेरा आत्मा से साथ खोने लगा

याद में तेरी माँ जीना जीना ही क्या

बिन माँ के जो पला वो बचपना ही क्या

ढाँढस बाँधी सबने सहायता के हाथ बढादिए

बिन माँ के बचपने में हम बदनसीब ही जिये

एक रोज तुने कहा था के साथ कभी न छोड़ेगी

पर पता ना था के तू इतना जल्दी वादा तोड़ेगी

आँखो से मोतीयों की माला बह निकली

आज जब माँ मैं तुम्हे लिखने चली।।

सोचा न था इस कद्र जीवन बदलेगा

हमारे साथ खुदा इस कदर खेल खेलेगा

आशा की किरण हमारी न जाने कहाँ खो गई

दिया जलाकर तू न जाने कहाँ चली गई

तेरी तस्वीर देखूं जब भी मैं इक पल तू सामने आ जाती है

तेरी मुझसे कही एक एक बात फिर याद आती है

तेरी पायल की आवाज कानों में गूंजने लग जाती

जब मैं तेरे गहनों को हूं हाथ लगाती

कुलदीपक की चाह में चिराग ही बुझ गया

सपना साथ रहने का तुम्हारे अधूरा ही रह गया

अश्कों की धारा फिर बह निकली

आज जब माँ मैं तुम्हे लिखने चली।।

BY-

मानसी राठौड़ D/O रविन्द्र सिंह

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वजह यह भी

2 जनवरी 2018
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वजह यह भी रही मेरी उदासी कीतेरे से ही थी मुस्कुराहट मेरीवजह यह भी कह सकते हो मेरी बैचेनी कीसुकून देती थी मीठी बोली तेरीवजह यह भी कह दो खामोशी कीदर्द ने आवाज छीनली मेरीवजह यह भी जानो इस सन्नाटे कीअब कहां से आएगी कदमों की आहट तेरीवजह यह भी समझो हर पहर रोने कीबातें सताती

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3 जनवरी 2018
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गेरो की महफ़िल में वो गलत ही मिल गये शरीफो की बस्ती में वो जरा फिसल गये शानो शौकत ऊँची बाते तब जरा अजीब लगी जब वो इसी का हवाला देकर हमें अलविदा कह गए हुस्न तो इतना हममे भी नहीतोह फिर क्यों वो हमारे चेहरे पे मर गये और जब मुड़के न देखने की ठानली हमने तो फिर क्यों पलट क मुस्कु

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किताबों के पन्ने पलट कर सोचता हूं

23 मार्च 2018
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कवि

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जो और कोई कह ना पाए कर नापाए और कोईऐसा जज्बा लिए संग में चलताहै अकेला कोई। उसके पासअनूठी क्षमता और अनोखा ज्ञान है सदा हीकागज पर अपने रचता अलग जहाँ है।अनोखा अंदाज उसका लिखता जागृतदेश बन

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काश

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काश भ्रष्टाचार न होता ,फिर भलों का दिल न रोताकानून ढंग से काम करता, काश भ्रष्टाचार न होता। लोकतंत्र भ्रष्ट न होता, रिश्वत का तो नाम न होता संसद ढंग से काम करता काश भ्रष्टाचार न होता।होता चहुँ और निष्पक्ष विकासफैलता स्वतं

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जब मैं तुम्हे लिखने चली

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जमाने में रहे पर जमाने को खबर न थी ढिंढोरे की तुम्हारी आदत न थीअच्छे कामों का लेखा तुम्हारा व्यर्थ ही रह गयाहमसे साथ तुम्हारा अनकहा सा कह गयाजीतना ही सिखाया हारने की मन में न लाने दीतो क्यों एक पल भी जीने की मन में न आने दीहिम्मत बांधी सबको और खुद ही खो दीदूर कर ली खुदा ने हमसे माँ कि गोदीदिल था तुम

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तलबगार है कई पर

2 मई 2018
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तलबगार है कई पर मतलब से मिलते हैं ये वो फूल हैं जो सिर्फ मतलबी मौसम में खिलते हैं रोक लगाती है दुनिया तमाम इन पर पर देखो मान ये इश्कबाज पक्के जो पाबंदियों में भी मिलते हैं मोहब्बत के रोगी को दुनिया बेहद बदनाम ये करती है जनाब क्यों फिर भी आधी दुनिया हाए इसी पे मरती है कहते हैं कई धोखेबाज भी लेन-देन द

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7 मई 2018
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जब हुनर कुछ कर नहीं पाता तब आक्रोश कविता रचता है ||

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गर्मी और पेड़

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धूप तो धूप है इसकी शिकायत कैसी, अबकी बरसात मे कुछ पेड़ लगाना साहब.#निदा फ़ाज़ली की कलम से

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रंग

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